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मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और कोलेजियम के मुद्दे पर संसद और सर्वोच्च न्यायालय आमने – सामने

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बीरेंद्र कुमार झा

भारतीय संविधान में कार्यपालिका न्यायपालिका और व्यवस्थापिका इन तीनों के अधिकार और कर्तव्य निश्चित कर दिए गए है,इसके बावजूद देखा जाता है कि अक्सर इन तीनों के बीच अधिकार के अतिक्रमण के मामले सामने आते रहते हैं।साहबानो जैसे मामले में न्यायालय से फैसला आने के बाद संसद ने कानून ही बदल दिया। एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग को रोकने के लिए जब सर्वोच्च न्यायालय ने मामले के छानबीन के पश्चात गिरफ्तारी जैसे निर्देश दिए तो वोट के खातिर संसद ने इसे भी पलटकर मामला दर्ज होते ही आरोपी की गिरफ्तारी अनिवार्य वाला बना दिया। अब एक बार फिर संसद और सर्वोच्च न्यायालय मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति और कॉलेजियम से न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर आमने-सामने है।

मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) की नियुक्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश

चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाने के उद्देश्य एक ऐतिहासिक फैसले में उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में यह व्यवस्था दी है कि उनकी नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायधीश (CJI) की सदस्यों वाली समिति की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाएगी। न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस महीने की शुरुआत में सर्वसम्मति से सुनाए गए फैसले में कहा था कि यह नियम तब तक कायम रहेगा जब तक कि संसद इस मुद्दे पर कानून नहीं बना देती है।

मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पर कानून मंत्री का बयान

कानून मंत्री किरेन रिजीजू से जब यह पूछा गया की उच्चतम न्यायालय की एक पीठ ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह नया कानून बनने तक मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) और अन्य चुनाव आयुक्तों का चयन करने के लिए प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की सदस्यता वाली एक समिति का गठन करें। इस सवाल के जवाब में कानून मंत्री ने कहा कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया संविधान में दी गई है। संसद को एक कानून बनाना है, जिसके अनुरूप नियुक्ति की जानी है। मैं मानता हूं कि इसके लिए संसद में कोई कानून नहीं है। यह एक रिक्तता है।

संविधान में है बहुत स्पष्ट लक्ष्मण रेखा

कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने कहा कि वे उच्चतम न्यायालय के निर्णय की आलोचना नहीं कर रहे हैं, और ना ही इसके परिणामों के बारे में बात कर रहे हैं। उनका मानना है कि यदि न्यायधीश प्रशासनिक कार्यों में लिप्त होते हैं तो उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ता है।कानून मंत्री ने कहा कि मान लीजिए कि आप प्रधान न्यायाधीश या एक न्यायाधीश हैं और आप एक प्रशासनिक प्रक्रिया का हिस्सा है।जब इस प्रशासनिक प्रक्रिया के निर्णयों पर सवाल उठेंगे और फिर यह मामला आप की अदालत में जाएगा तो क्या आप ऐसे मामले में फैसला कर सकते हैं ,जिसका आप एक हिस्सा हैं? यहां न्याय के मूल सिद्धांत से समझौता करना पड़ेगा। इसलिए ऐसे मामले में संविधान में बहुत स्पष्ट लक्ष्मण रेखा है।

मैं कानून मंत्री के साथ उलझना नहीं चाहता

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली पर कहा कि हर प्रणाली दोष हीन नहीं होती है। लेकिन यह एक बेहतरीन प्रणाली हैं,जिसे हमने विकसित किया है यदि न्यायपालिका को स्वतंत्र रहना है तो हमें इसे बाहरी प्रभावों से बचाना होगा उन्होंने कहा कि कॉलेजियम के मामलों में कैसे निर्णय लेना है, इसको लेकर सरकार की ओर से बिल्कुल कोई दबाव नहीं है। न्यायाधीश के रूप में अपने 23 वर्षों में मुझे किसी ने नहीं कहा कि किसी मामले में मुझे किस तरह से फैसला करना है। मैं इस मुद्दे पर कानून मंत्री के साथ उलझना नहीं चाहता। हमारी अलग-अलग धारणाएं हो सकती है।

कोलेजियम में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका और संसद

कॉलेजियम को लेकर कानून मंत्री किरेन रिजीजू की ओर से यह कहा गया है कि राज्य के प्रतिनिधियों को भी कोर्ट के कॉलेजियम का हिस्सा होना चाहिए। कानून मंत्री किरेन रिजिजू के मुताबिक, इससे 25 साल पुराने कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही आएगी। गौरतलब है कि कॉलेजियम चीफ जस्टिस और अन्य जस्टिस की नियुक्ति पर फैसला करता है।

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