चक्रव्यूह // सुदर्शन चक्रधर
सब जानते हैं कि विदर्भवीर भाऊ जांबुवंतराव धोटे को विदर्भ का शेर कहा जाता रहा है। उनकी एक आवाज पर विदर्भ की जनता सड़कों पर उत्तर आती थीं। ‘पृथक विदर्भ’ के लिए उनके द्वारा समय-समय पर किए गए आंदोलन, आज भी पुराने लोगों को याद है। उनसे तबका शासन- प्रशासन भी हिलता था। हालांकि पृथक विदर्भ के लिए धोटे के अलावा बापूजी अणे, ब्रिजलाल बियाणी, हरिकिशन अग्रवाल आदि विदर्भवीरों ने अपने-अपने स्तर पर काफी अलख जगाई। वहीं कुछ वर्ष पहले एड. श्रीहरि अणे ने भी महाराष्ट्र राज्य का महाधिवक्ता पद छोड़ कर विदर्भ आंदोलन की मशाल जलाई। लेकिन भाऊ जांबुवंतराव घोटे जैसे शेर की दहाड़ मानो विलुप्त-सी हो गयी थी। उनके परलोक-गमन के बाद धीरे- धीरे इस आंदोलन की मशाल में वह आग भी के नहीं देखी गई, जो 80 के दशक में देखी जा रही थी।
इस बीच पूर्व विधायक वामनराव चटप, श्रीनिवास खांदेवाले और अहमद कादिर जैसे विदर्भ-पुत्रों ने विदर्भ आंदोलन को गति देने का काम जरूर किया, लेकिन जबसे विदर्भ की माटी के दबंग किसान-पुत्र और लोकनायक प्रकाश पोहरे ने विदर्भ आंदोलन में छलांग लगाई, तबसे इस आंदोलन की चिन्गारी के शोलों में तब्दील होने के आसार बढ़ते चले गए और जो विदर्भ आंदोलन जांबुवंतराव धोटे के बाद मंथर गति से चल रहा था, प्रकाश पोहरे की दहाड़ से मानो अचानक उसमें गति आ गयी।
दरअसल, विदर्भ के लगभग सभी दलों के अमूमन सभी विधायक, एक-दो अपवाद छोड़कर नागपुर के शीतकालीन अधिवेशन में विदर्भ के मुद्दों पर खामोशी की चादर ही ओढ़े रहते हैं। उनकी यही खामोशी हर विदर्भवादी और यहां की जनता के साथ ही मराठी दैनिक देशोन्नती व हिन्दी दैनिक राष्ट्र प्रकाश के प्रधान संपादक को भी सालती रही, खलती रही। जब शीत-सत्र के सातवें दिन वे एक पत्रकार-संपादक के रूप में पत्रकार- दीर्घा में पहुंचे, तो पाया कि वहां विदर्भ के मुद्दे पर कोई भी विधायक बात ही नहीं कर रहा है। तब मराठा आरक्षण पर विस्तृत चर्चा, जोकि पिछले तीन दिनों से सदन में चल रही थी और 50-60 विधायक बोलना बाकी है, ऐसा अध्यक्ष ने जाहिर किया, तो इससे सच्चे विदर्भवादी को निराशा होनी स्वाभाविक ही थी। सो, पोहरे के संयम का बांध टूट गया और उन्होंने पत्रकार-गैलरी से ही विदर्भ के शेर जैसी दहाड़ लगाई कि ‘ये सब क्या चल रहा है? आप लोग विदर्भ पर चर्चा क्यों नहीं करते?’ ये उनका विदर्भवादी होने का आक्रोश था, जिसे विदर्भ की प्रत्येक जनता समझ सकती है। पोहरे का यह आक्रोश कितना सही था, इस पर कानूनविद बैरिस्टर विनोद तिवारी का कहना है कि पोहरे ने कोई अपराध नहीं किया है। अगर विदर्भ के विधायक अपने क्षेत्र के मुद्दे विधानसभा के शीत-सत्र में लगातार रखते रहते, तो क्या यह नौबत आती? यह विचारणीय है। फिर आज तक किसी भी विधायक, जनप्रतिनिधि, समाजसेवक, पत्रकार या संपादक ने विदर्भ के लिए ऐसी जोरदार दहाड़ क्यों नहीं लगाई? जैसे कि प्रकाश पोहरे में लगाई। अब पोहरे की विधानसभा के भीतर लगाई गई उक्त दहाड़ के कारण ही उन्हें विदर्भ का ‘नया शेर’ कहा जा रहा है।
सौ फीसदी कड़वा सच यही है कि नागपुर के शीतकालीन अधिवेशन में न तो विदर्भ की समस्याओं पर कोई खास चर्चा होती है, न पृथक विदर्भ की मांग कोई विधायक उठाता है। शीतसत्र के शुरुआती 6 दिनों के कामकाज में विदर्भ के किसी भी विधायक ने जब अपने क्षेत्र की समस्या रखना आवश्यक नहीं समझा, तो विदर्भ की सवा दो करोड़ जनता की भावना को आवाज देकर प्रकाश पोहरे ने क्या गुनाह कर लिया? सच देखा जाए तो विदर्भ की जनता ने प्रकाश पोहरे का अभिनंदन करना चाहिए, क्योंकि अधिकांंश जनता ने किया भी है। वहीं, उन्होंने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण नहीं, बल्कि समग्र विदर्भ की जनता के लिए तीव्र आक्रोश व्यक्त किया है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए, कम होगी। हालांकि प्रकाश पोहरे यह मानते हैं कि उनके आक्रोश व्यक्त करने के तरीके से विधानमंडल के नियमों का कुछ हद तक उल्लंघन हुआ है। लेकिन सवाल है कि इसके लिए वे क्यों मजबूर हुए? क्या सत्तापक्ष या विपक्ष में बैठे दिग्गज नेता- मंत्री- विधायक इस पर विचार करेंगे? पोहरे के अनुसार, विदर्भ की दुर्दशा से वे आजकल बेहद चिंतित रहते हैं। यहां के पिछड़ेपन और बंजर अवस्था देख कर उनका मन हमेशा भर आता है। उसे व्यक्त करने की पहल किसी को तो करनी ही चाहिए थी। जबकि यह काम विदर्भ के विधायकों का है. लेकिन जब उनमें से कोई आगे नहीं बढ़ रहा है, तो प्रकाश पोहरे ने यह सद्कार्य कर दिया। अब विदर्भ की जनता को प्रकाश पोहरे में आशा की किरण दिखाई दे रही हैं। वे भाऊ जांबुवंतराव धोटे की तरह प्रकाश भाऊ को भी ‘विदर्भ के शेर’ के रूप में देख रहे हैं। क्योंकि प्रकाश पोहरे ने दहाड़ लगाकर शेर के दिल जैसा साहस भरा वृहद एवं बेहद महत्वपूर्ण कार्य किया है। जो आज तक कोई नहीं कर सका, वह कार्य 14 दिसंबर को पूरे दमखम से प्रकाश पोहरे ने कर दिखाया है।
अब यह यहां की जनता के हाथ में है कि वे भाऊ पोहरे को अकेला लडऩे के लिए छोड़ देते हैं, या उनके हाथ मजबूत करने के लिए उनका साथ देते हैं। अगर विदर्भ को ऐसे ही पिछड़ा रखना है, तो यहां की जनता पुन: खामोशी की चादर ओढ़े रहेगी। अगर विदर्भ को विकास के पथ पर आगे ले जाना है या उसके सर्वांगीण विकास के लिए पृथक विदर्भ का निर्माण करने की चाहत है, तो जनता ने अभी से विदर्भ के इस ‘शेर की दहाड़’ में अपनी भी आवाज मिलानी चाहिए, ताकि मुंबई और दिल्ली की सत्ता को जागृति आए!
जय विदर्भ!
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