Homeप्रहारअगला प्रधानमंत्री किसान ही होना चाहिए

अगला प्रधानमंत्री किसान ही होना चाहिए

Published on


प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’

‘नॉन इश्यू’ की लहर में ‘इश्यू’ मर जाते हैं. लोगों के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं. जिन पर चर्चा होनी चाहिए, उनकी चर्चा नहीं होती. बेकार के विषय छा जाते हैं. विपक्ष को तरह-तरह से परेशान कर और महाविकास आघाड़ी सरकार को गिराकर बीजेपी को और मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को लगा होगा कि उन्हें बड़ा तीर मारा है. केंद्र में मोदी-शाह के दबाव में अन्य राज्यों में भी इसी तरह की राजनीतिक उथल-पुथल हुई. इससे जनता का ध्यान अन्य मुद्दों की ओर मोड़ने में भी वे सफल रहे, लेकिन जनता की बुनियादी समस्याओं को हल करने का नैतिक कर्तव्य हम कहां तक ​​निभा रहे हैं? इसे भी शासकों ने मानना ​​चाहिए.

लोकतंत्र में समानता को बहुत महत्वपूर्ण मूल्य माना जाता है. हमारा संविधान इस बात पर जोर देता है कि देश के नागरिकों के बीच किसी भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा, लेकिन समानता के इस सिद्धांत को सरकार ने सीधे तौर पर बाधित किया है. एक बहुत ही सरल तार्किक प्रश्न पूछा जाए, जिसके आधार पर सरकार अपने कर्मचारियों को महंगाई भत्ता (जो अब मूल वेतन से दोगुना हो गया है) का भुगतान करती है, उसी आधार पर अन्य उत्पादक घटकों का विचार क्यों नहीं किया जाता? क्या महंगाई सिर्फ नौकरशाही के लिए ही बढ़ती है? क्या मुद्रास्फीति केवल नौकरशाही को प्रभावित करती है?

साधारण तुलना से पता चलता है कि 2015 से 2022 तक सात वर्षों में किसी भी तीसरे दर्जे के कर्मचारी का कुल वेतन दोगुना से अधिक हो गया है. 2015 में तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का मासिक वेतन 40,068 रुपये था, जो 2022 में महंगाई भत्ते के साथ बढ़कर 87,685 रुपये हो गया. अब निम्नलिखित आँकड़ों को देखें जो अंतर दिखाते हैं-

2015 से 2022 के बीच हर साल महंगाई के आधार पर किसानों को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जो मुआवजा तय किया गया था, वह 2015 में कृषि योग्य फसलों के लिए 6,800 रुपये प्रति हेक्टेयर और बागवानी फसलों के लिए 13,500 रुपये प्रति हेक्टेयर था और बारहमासी फसलों के लिए 18,000 रुपए था. अब अगस्त 2022 में इसे दोगुना कर दिया गया है. इस हिसाब से कृषि योग्य फसलों के लिए 13,600 रुपये, बागवानी फसलों के लिए 27,000 रुपये और बारहमासी फसलों के लिए 36,000 रुपये है. यह मुआवजा केवल दो हेक्टेयर प्रति हेक्टेयर की सीमा तक ही सीमित है. इस साल भी सरकार ने राज्य के आधे से ज्यादा तहसीलों को मुआवजे की सूची से बाहर कर दिया है.

यही ‘एमएसपी’ का गणित है। विपणन सीजन 2014-15 के दौरान कपास की कीमत 3,750 रुपये से 4,050 रुपये प्रति क्विंटल थी. 2021-22 के सीजन में यह कीमत 5,726 से 6,025 रु. की गई. यानी सात साल में गारंटीड कीमत में सिर्फ 1,975 रुपये की वृद्धि हुई. वर्ष 2022-23 के लिए घोषित कपास का गारंटीकृत मूल्य 6,080 रुपये से 6,380 रुपये प्रति क्विंटल है. यानी पिछले साल की तुलना में कपास का गारंटीकृत मूल्य में 354 रुपये की वृद्धि हुई. इस साल हालांकि निजी बाजार में कपास की कीमत शुरू में 8,500 से 9,000 रुपये प्रति क्विंटल मिल रही है, लेकिन ये आंकड़े बताते हैं कि सरकार द्वारा कपास को दी जाने वाली गारंटी मूल्य सुरक्षा कितनी कम है! इसके अलावा सरकार ने वर्ष 2022-23 के लिए कपास की निवेश लागत 4,053 रुपये तय की है. यह उत्पादन लागत प्रति क्विंटल है या प्रति हेक्टेयर है, प्रति एकड़ है? और किस आधार पर है? इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. हालांकि, कपास की कीमत आज 8,500 से 9,000 रुपये प्रति क्विंटल मिल रही है. अगर भाव इस तरह मिल रहे हैं, तो इसका मतलब है कि किसानों से कपास 85-90 रुपये प्रति किलो की दर से ही खरीदी जाती है. उस पर कपड़ा, तेल, सरकी पेंड जैसे उत्पाद लेकर अरबों रुपये कमाए जाते हैं. किसानों से सस्ते और मिट्टीमोल दाम पर कपास लेकर उससे कपड़ा बनाकर कपड़ा हजारों रुपए प्रति मीटर की दर से बेचा जाता है. 400 ग्राम कपास से एक कमीज तैयार की जाती है. लिनन जैसी ब्रांडेड कंपनी की शर्ट की न्यूनतम कीमत 2000 रुपये से अधिक है. 2000 रुपये की 400 ग्राम वाली शर्ट के लिए एक किसान को 60-65 रुपये ही मिलते हैं. अर्थात संक्षेप में, कपास किसानों की स्थिति ‘जिसका माल, उसके हाल(दुर्दशा)’ जैसी हो गई है.

सोयाबीन की निवेश लागत 2805 रुपए प्रति क्विंटल दर्शाई गई है. तो एमएसपी के हिसाब से रिफंड 4300 रुपए दिया गया है. यानी 1495 रुपए प्रति क्विंटल का रिटर्न ज्यादा होता है. सोयाबीन के किसान यह सब जानते हैं. सोयाबीन की प्रति क्विंटल न्यूनतम उपज प्राप्त करने में कम से कम 5200 से 5500 रुपये का खर्च आता है. उत्पादन लागत से डेढ़ गुणा के नियम के अनुसार सोयाबीन का गारंटी मूल्य कम से कम 7800 से 8250 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी के माध्यम से घोषित किया जाना चाहिए था.

एक अन्य उदाहरण, प्रति क्विंटल ज्वार की उत्पादन लागत की गणना 1977 रुपये की गयी है. एमएसपी के अनुसार ज्वार को 2970 रुपए प्रति क्विंटल की दर दी गयी है. बेशक इसमें 993 रुपए प्रति क्विंटल निवेश ने अतिरिक्त रिटर्न दिया है. प्रति क्विंटल ज्वार पैदा करने में कम से कम 4000 से 4200 रुपए का खर्च आता है. उत्पादन लागत के डेढ़ गुना नियम के मुताबिक सरकार को एमएसपी के जरिए 6000 से 6100 रुपये की दर घोषित करनी चाहिए थी. तो क्या सरकार ने एमएसपी के जरिए किसानों का मजाक बनाया है? यह सवाल उठता है. जैसा कि उपरोक्त दोनों उदाहरणों में दिखाया गया है, अन्य फसलों में भी उत्पादन लागत और मुद्रास्फीति के बीच सहसंबंध में भिन्नता है.

इसमें यह नहीं बताया गया कि किन तत्वों से कितना पैसा पकड़ा गया. उदा. चूंकि एमएसपी की घोषणा ‘सी-2’ फॉर्मूले के तहत की गई है, इसलिए इसमें उत्पादन लागत को शामिल किया गया है. इसमें कितना मानव श्रम है? बैलों की मजदूरी/मशीनरी की मजदूरी कितनी है? पट्टे पर दी गई जमीन का किराया कितना है? बीज-उर्वरक की लागत कितनी है? औजारों पर व्यय, सिंचाई शुल्क, और खेत निर्माण पर मूल्यह्रास, कार्यशील पूंजी पर ब्याज, पंप सेट चलाने के लिए डीजल/बिजली, प्रत्येक घटक की लागत कितनी है? इसकी सार्वजनिक रूप से घोषणा नहीं की गई है. यानी कि सभी मनमाफिक उत्पादन जैसे हैं.

वर्ष 2022-23 के लिए घोषित तिल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में 523 रुपये की वृद्धि की गई है. ज्वार में 232, कपास में 354, सोयाबीन में 350, उड़द, अरहर, मूंगफली में 300-300, मक्का में 92, सूर्यफूल में 385, चावल और बाजरा में 100-100 रुपये की बढ़ोतरी की गई है. पिछले एक साल में कृषि उपकरण, बीज, रासायनिक खाद, श्रम लागत, कीटनाशक, कृषि यंत्रों के दाम तेजी से बढ़े हैं. इसलिए कृषि में निवेश लागत में लगभग 50 से 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इससे किसानों की आय अपने आप कम हो गई है. कुल फसलों के घोषित एमएसपी में सरकार ने आंकड़ों में हेरफेर कर दिखा दिया है कि उत्पादन लागत का डेढ़ गुना गारंटीकृत मूल्य दे दिया है. उत्पादन लागत के आंकड़ों और प्रकाशित एमएसपी के आंकड़ों पर नजर डालें तो साफ पता चलता है कि डेढ़ गुना गारंटीमूल्य का दावा पूरी तरह झूठा है. इसलिए एमएसपी के सकारात्मक दावों की तुलना में अवास्तविक दावे अधिक हैं.

एमएसपी के जरिए कृषि उपज के दाम में बढ़ोतरी को लेकर सरकार की ओर से जो दावे किए जा रहे हैं, उनके तथ्यों को समझें तो इसका झूठ आसानी से देखा जा सकता है. आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक सालाना महंगाई दर 6.7 फीसदी दर्ज की गई है. इस महंगाई के औसत में फसलों की एमएसपी नहीं बढ़ाई गई है. जिन 14 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की गई है, उनमें ज्वार (8.47 प्रतिशत), तिल (7.16 प्रतिशत) और सोयाबीन (8.86 प्रतिशत) को छोड़कर केवल 11 फसलों की कीमतों में वार्षिक मुद्रास्फीति से कम वृद्धि देखी गई है. बाजरे की कीमतों में सबसे कम (4.44 प्रतिशत) वृद्धि हुई है, जबकि अन्य फसलों की कीमतों में वृद्धि 4.76 प्रतिशत से 6.60 प्रतिशत के दायरे में है.

वहीं दूसरी ओर नौकरशाही की सैलरी बढ़ाने के लिए सरकार के पास जो ‘कैलकुलेशन’ है, वह बहुत ही ‘परफेक्ट’ है! वेतन वृद्धि का एक सरल सूत्र है. सूत्र है मूल वेतन + सभी प्रकार का महंगाई भत्ता + 14 प्रतिशत वेतन वृद्धि. संगठित क्षेत्र के चंद लाख कर्मचारियों पर मेहरबानी करके, महंगाई भत्ता बढ़ाकर, मूल वेतन बढ़ाकर और पांचवां, छठा और सातवां वेतन आयोग लागू करके, बढ़े हुए वेतन का भुगतान करने के लिए भर्ती पर रोक जैसे उपाय करके सरकार को उस वेतन का भुगतान करना ही पड़ता है. यानी एक तरफ खेती से बाहर निकलने की चाहत रखने वाले किसानों के बेटे-बेटियों के लिए नौकरी पाने के रास्ते बंद करना, लेकिन उनके लिए अपने पारंपरिक खेती व्यवसाय में पारंपरिक तरीके से जीवन यापन करना मुश्किल बनाना, उन्हें कृषि उत्पादों के आयात के मुंह में धकेलकर उनकी मुश्किलें बढ़ाना…! इस प्रकार अब तक किसान और कृषि के मुद्दे को किसी भी पार्टी ने अपने एजेंडे में नहीं लिया!

मैं एक बार फिर ‘गणना’ प्रस्तुत करना चाहूंगा. देखते हैं सरकारी अधिकारी और कर्मचारी कितने दिन काम करते हैं और उन्हें कितने दिन का वेतन मिलता है. चूंकि एक वर्ष में 365 दिन होते हैं. पांच दिन के सप्ताह के रूप में रविवार और शनिवार की छुट्टी के साथ 105 दिन बीत गए. त्योहारों, राष्ट्रीय दिवसों आदि के लिए कम से कम 15 दिन की छुट्टी यानी 15 दिन और चले गए. यह मानते हुए कि कोई छुट्टी नहीं ली जाती है, साल के 365 दिनों में से 120 दिन काम के बिना लगभग 4 महीने का आराम लेकर भी पूरे 365 दिन का वेतन वे लेते हैं. इसके अलावा काम करवाने के लिए लिया गया ‘दक्षिण’ अलग होता है! ऐसे में यह एक अजीब स्थिति है जहां पूरी क्षमता से, सफाई से और ईमानदारी से काम करके देश को खाद्यान्न की आपूर्ति करने वाले किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं. किसी के पास नौकरशाहों की पदोन्नति, वेतन वृद्धि और प्रोत्साहन के खिलाफ होने का कोई कारण नहीं है. लेकिन महंगाई की कसौटी कभी भी किसानों पर लागू नहीं होती, जैसा कि अफसरशाही पर लागू होती है. इस वजह से यह गैप बढ़ता ही जा रहा है.

नौकरशाहों के सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करते समय केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों द्वारा दिया गया विचार महत्वपूर्ण है. इस अनुशंसा में एक प्रावधान यह है कि चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों का वेतन अठारह हजार रुपये होना चाहिए. कर्मचारियों की भोजन, कपड़ा, आश्रय, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये होने से कोई समस्या नहीं है. हालाँकि, एक किसान की आजीविका पर भी उतना ही खर्च होता है, बल्कि उससे ज्यादा हो जाता है. तो जो न्याय नौकरशाह वर्ग के लिए है, वही न्याय किसान के लिए क्यों नहीं है?

संक्षेप में, यदि हम पहले वेतन आयोग के बाद से प्रत्येक दस वर्षों में आए वेतन आयोगों का अध्ययन करें, तो यह देखा जा सकता है कि प्रत्येक दस वर्षों में मूल वेतन में 2.5 से 3 गुना की वृद्धि हो रही है. ऊपर से मंहगाई भत्ते का बोझ अलग. वर्ष 1946 में प्रथम वेतन आयोग ने न्यूनतम वेतन 55 रुपये प्रति माह निर्धारित किया था. आज सातवें वेतन आयोग के तहत न्यूनतम वेतन 18 हजार रुपये प्रति माह है. इसके विपरीत, कृषि जिंसों के संदर्भ में, 1972 में कपास एकाधिकार योजना शुरू होने पर कपास की कीमत 275 रुपये प्रति क्विंटल थी, जबकि सोना 180 रुपये प्रति तोला था. उस समय 1 क्विंटल कपास बेचकर 18 ग्राम सोना खरीदा जा सकता था. 50 क्विंटल कपास बिक ​​जाए, तो 900 ग्राम सोना खरीदा जा सकता था. 51 साल में आज कपास के लिए 9,000 रुपए प्रति क्विंटल का भाव मिलना भी मुश्किल हो गया है और इस नौ हजार रुपए में दो ग्राम सोना भी नहीं खरीदा जा सकता.

अगर हम वेतन आयोग और कृषि मूल्य आयोग का अध्ययन करें, तो जो तस्वीर उभरती है, वह एक बहुत ही गंभीर सच्चाई को उजागर करती है. इसलिए 1990 की तुलना में कृषि उत्पादों के उत्पादन में जबरदस्त वृद्धि होने के बावजूद, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा घट रहा है. इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों में खेतिहर मजदूरों की आय वेतन आयोग की न्यूनतम मजदूरी के बराबर होनी चाहिए, तभी आर्थिक समानता बनेगी, क्योंकि कृषि उत्पादों के दाम नहीं बढ़ेंगे, तो पैसा ग्रामीण क्षेत्रों में कैसे जाएगा?… पैसा नहीं जाएगा, तो विकास कैसे होगा?… वहां के लोगों की क्रय शक्ति कैसे बढ़ेगी?..और क्रय शक्ति नहीं बढ़ेगी, तो भारत ‘आत्मनिर्भर’ कैसे बनेगा?

यह तभी संभव है जब अगला प्रधानमंत्री किसान हो !!
तो अब विचार किस बात का किया जाए?

 

Latest articles

दल बदल : झारखंड में बीजेपी को लगा बड़ा झटका ,दिग्गज नेता कांग्रेस में शामिल

अखिलेश अखिल झारखंड में बीजेपी को बड़ा झटका देते हुए पार्टी के दिग्गज नेता...

क्या दिल्ली में लगेगा राष्ट्रपति शासन? क्या उपराज्यपाल करेंगे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से सिफारिश?

 सुदर्शन चक्रधर (चक्रव्यूह) मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की दिल्ली के शराब घोटाले में गिरफ्तारी के बाद...

Ramadan Mehandi Designs: मेहंदी के ये ट्रेंडिंग और लेटेस्ट डिजाइन ईद पर जरूर ट्राई करें

रमजान का महीना इस्लाम धर्म में काफी ज्यादा पवित्र माना जाता है और इसका...

क्या यूपी में बनेगा 6 दलों का नया गठबंधन ?

न्यूज़ डेस्क आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए यूपी में एक नए गठबंधन की आहट...

More like this

दल बदल : झारखंड में बीजेपी को लगा बड़ा झटका ,दिग्गज नेता कांग्रेस में शामिल

अखिलेश अखिल झारखंड में बीजेपी को बड़ा झटका देते हुए पार्टी के दिग्गज नेता...

क्या दिल्ली में लगेगा राष्ट्रपति शासन? क्या उपराज्यपाल करेंगे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से सिफारिश?

 सुदर्शन चक्रधर (चक्रव्यूह) मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की दिल्ली के शराब घोटाले में गिरफ्तारी के बाद...

Ramadan Mehandi Designs: मेहंदी के ये ट्रेंडिंग और लेटेस्ट डिजाइन ईद पर जरूर ट्राई करें

रमजान का महीना इस्लाम धर्म में काफी ज्यादा पवित्र माना जाता है और इसका...