
यद्यपि भारतीय संविधान ने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को स्थापित किया है, फिर भी इसमें जगह-जगह सामाजिक और आर्थिक असमानता दिखती है। दुनिया में मुट्ठी भर पूंजीपतियों ने ‘कोरोना का हौवा’ खड़ा किया है और कुछ अवसरवादी कंपनियों ने इससे भारी मुनाफा भी कमाया है। कोरोना लॉकडाउन के दौरान मुकेश अंबानी ने एक घंटे में जितना पैसा कमाया, उतना पैसा कमाने में एक अकुशल श्रमिक को 10,000 साल लगेंगे। यह भारत में आर्थिक असमानता की कठोर सच्चाई है।
भारत में एक ओर गरीबों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे भरपेट भोजन कर सकें या अपने बच्चों को दवा दे सकें, वहीं दूसरी ओर भारतीय अरबपतियों की संपत्ति में प्रति दिन 3200 करोड़ की वृद्धि होती रही है। यदि यह ‘आर्थिक खाई’ इसी तरह बढ़ती रही, तो इस देश की सामाजिक और आर्थिक नींव को ढहते देर नहीं लगेगी। एक बार जब सामाजिक और आर्थिक बुनियाद गिर जाती है, तो लोकतंत्र की बुनियाद अपने आप डगमगा जाती है और फिर ‘श्रीलंका’ बनने में देर नहीं लगती!
मूलतः हमारा देश एक ऐसा देश है, जो पिछले कुछ हज़ार वर्षों से सामाजिक और आर्थिक असमानता से त्रस्त है। मौजूदा दौर में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ को सिर पर चढ़ाने वाले मौजूदा शासक और उनकी नीति के ‘ग्लोबल कोरोना ग्रैंड ड्रामा’ को सहारा देने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था में इसे ‘दुग्ध-शर्करा योग’ कहना ही उचित होगा। 2019 के कोरोना ड्रामा के बाद अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर मौजूद अधिकांश लोगों की संपत्ति लूटने की रफ्तार और भी तेज हो गई है। उस समय, सर्वविदित है कि ‘बिग फार्मा लॉबी’ ने कैसे इस मुद्दे को उठाया था।
मूल रूप से भारत में दुनिया की सबसे गरीब आबादी है। ये लगभग 23 करोड़ है। हमारे देश में 2020 में 102 अरबपति थे, 2022 में यह संख्या 166 पर पहुंच गई। भारत के 100 सबसे अमीर व्यक्तियों की कुल संपत्ति 54.12 लाख करोड़ रुपये है। टॉप 10 लोगों के पास 27.52 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति है। 2021 के बाद से इन 10 सुपर रिच की संपत्ति में 32.8 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यह अच्छी बात है कि देश में वास्तव में इतने अमीर पैदा हो रहे हैं, लेकिन उनकी संपत्ति ऊपर की ओर बढ़ रही है, लेकिन गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग दिन-ब-दिन और रसातल में जा रहे हैं, यह अच्छी बात नहीं है. सल्तनत-शैली के नोटबंदी, (वास्तव में नोट बदली) और लापरवाही से लागू किए गए जीएसटी ने आम आदमी के लिए जीवन को और अधिक कठिन बना दिया है। इसके अलावा लगातार बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी भी है। महंगाई का एक ताजा उदाहरण हम देख रहे हैं। हाल ही में एक घरेलू गैस सिलेंडर की कीमत वर्ष 2014 में जो 450 रुपये थी, वह अब 1155 रुपये हो गई है, जबकि 2014 में कमर्शियल गैस सिलेंडर जो 950 रुपये का था, वह अब 2,400 रुपये का हो गया है।
कोई भी अर्थव्यवस्था जो वास्तविक असमानता को जन्म देती है, न तो स्वस्थ है और न ही स्वच्छ… और न ही नैतिक! कोई भी अरबपति अपनी असाधारण मेहनत या असीम बुद्धि से इतनी दौलत का मालिक नहीं बनता, बल्कि वह अपनी दौलत बढ़ाने के लिए सरकारी तंत्र, अर्थव्यवस्था, कानून, मीडिया का इस्तेमाल करता है। कानून, शासकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहा है। इस संदर्भ में टाटा समूह का उल्लेख गर्व के साथ किया जाना चाहिए। अभी पिछले महीने संसद सत्र में राहुल गांधी ने हवाई जहाज़ में दो गुजराती आदमियों की तस्वीरें दिखाईं। ये उदाहरण ‘समझदार को इशारा काफी’ वाला है!
वास्तव में 2004 और 2010 के बीच, योजना आयोग के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी 49.5 प्रतिशत से गिरकर 33.8 प्रतिशत हो गई थी, जबकि शहरी क्षेत्र में गरीबी 25.7 प्रतिशत से गिरकर 20.9 प्रतिशत हो गई थी। 2010 के बाद देश में फिर से गरीबी बढ़ने लगी। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत दुनिया के सबसे विषमताग्रस्त देशों में शुमार है। देश की 70 फीसदी जनता स्वास्थ्य, पौष्टिक भोजन जैसी बुनियादी जरूरतों से वंचित है। अकेले इन्हीं कारणों से देश में हर साल 1.7 करोड़ लोगों की मौत होती है। 2020 में देश के 50 प्रतिशत लोगों की आय राष्ट्रीय आय के 13 प्रतिशत थी और उनके पास राष्ट्रीय संपत्ति का केवल 3 प्रतिशत ही हिस्सा था।
2021 में बेरोजगारी और गरीबी के कारण हर दिन 115 मजदूरों ने आत्महत्या की। दूसरी ओर, भारतीय उद्योगपति अमीर से और अमीर हो रहे थे। तथाकथित महामारी के दौरान गौतम अडानी की संपत्ति 8 गुना बढ़ गई। फिर अक्टूबर 2022 में यह संपत्ति दोगुनी होकर करीब 10.96 लाख करोड़ हो गई और तीन दशक पहले स्कूटर चलाने वाले, सिर्फ स्कूली शिक्षाप्राप्त ये सज्जन देश के सबसे अमीर व्यक्ति बन गए। अंबानी भी इससे अछूते नहीं हैं। पूनावाला ग्रुप की संपत्ति भी 2021 में 91 गुना बढ़ गई, क्योंकि कोविड वैक्सीन ने उसे मालामाल कर दिया।
जब यह सब हो रहा था, तब हमारी सरकार क्या कर रही थी? मोदी सरकार अब तक सुपर रिच उद्योगपतियों को 12 लाख करोड़ रुपये की टैक्स राहत दे चुकी है। 2020-21 के एक ही वित्त वर्ष में एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की रियायतें दी गईं। यह राशि पिछली सरकार द्वारा गरीबों के लिए शुरू किए गए मनरेगा प्रावधान से अधिक है। भारत के सबसे निचले 50 प्रतिशत लोग अपनी आय के सबसे अमीर 10 प्रतिशत की तुलना में छह गुना अधिक अप्रत्यक्ष कर चुकाते हैं। खाने-पीने की चीजों पर 64.3 फीसदी टैक्स नीचे की 50 फीसदी आबादी से आता है। जीएसटी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा इसी श्रेणी से आता है, शीर्ष 40 प्रतिशत से एक-तिहाई और अमीरों के शीर्ष 10 प्रतिशत से केवल 3 से 4 प्रतिशत! यह समझने के लिए आंकड़े हैं कि वास्तव में सरकार को सबसे अधिक राजस्व किससे मिलता है!
इस दुष्चक्र को रोकने का उपाय क्या है? इसके लिए ‘ऑक्सफैम’ नामक संस्था ने अति-धनाढ्यों पर भारी कर लगाने का तरीका सुझाया है। केवल शीर्ष 10 अरबपतियों पर 5 प्रतिशत कर आदिवासियों को 5 साल तक खिला सकता है। केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित स्कूली शिक्षा योजना के लिए शिक्षा विभाग ने 2022-23 के लिए 58,585 करोड़ रुपये की मांग की थी। दरअसल 37,383 करोड़ रुपये उनके हाथ लग गए। अगर सबसे अमीर 10 अरबपतियों पर सिर्फ 4 प्रतिशत अधिक कर लगाया गया, तो घाटे को दो साल तक कवर किया जा सकता है। देश में स्कूल न जाने वाले बच्चों को शिक्षा प्रणाली में फिर से शामिल करने और उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए 1.4 लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता है। ऐसा हो सकता है, अगर सबसे अमीर 10 अरबपतियों पर 5 फीसदी अतिरिक्त टैक्स लगाया जाए तो! नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में सुझाव दिया गया है कि स्कूली बच्चों को पौष्टिक नाश्ता और गुणवत्तापूर्ण मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराया जाना चाहिए। केंद्र ने इस सुझाव को खारिज कर दिया। सरकार ने कहा कि इसके लिए जरूरी 31,151 करोड़ रुपये जुटाना संभव नहीं है। अगर 100 अरबपतियों पर 2 फीसदी अतिरिक्त टैक्स लगा दिया जाए, तो रकम आने पर 3.5 साल तक आराम से योजना चलाई जा सकती है।
बेशक, इसके लिए किसी सार्वजनिक संपत्ति का निजीकरण करने की जरूरत नहीं है। 1.4 अरब लोगों के इस देश में अगर केवल 100 अरबपतियों पर मामूली कर अलग से लगाया जाए, तो लोगों की कई बुनियादी जरूरतें आसानी से पूरी की जा सकती हैं। इसके लिए देश की सरकार को केवल 1 प्रतिशत अति-धनाढ्यों पर संपत्ति कर लगाने की जरूरत है। दूसरी ओर खाद्यान्नों, फलों, सब्जियों की दरों में वृद्धि करना और गरीबों पर कर का बोझ कम करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। खासकर जरूरी और शिक्षा से जुड़े सामानों पर जीएसटी कम किया जाना चाहिए। दूसरी ओर विलासिता की वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाकर इसकी भरपाई की जा सकती है।
यह सब देश चलाते समय किया जाना चाहिए, लेकिन वास्तव में अडानी को बढ़ावा देने के चक्कर में सरकार मगन थी। अडानी नाम के एक व्यक्ति के पास कम शिक्षा और उद्योग में कोई पृष्ठभूमि नहीं थी, लेकिन मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनते ही उनकी किस्मत खुल गयी। इतना ही नहीं, मोदी जब प्रधानमंत्री बने, तो उनकी किस्मत और रंग लाई। जब देश में लॉकडाउन हुआ, तो यह आदमी (अडानी) देश के मीडिया और बंदरगाहों, हवाई अड्डों, रेलवे आदि को कवड़ी के दामों पर खरीद रहा था। बैंक उसे हजारों करोड़ का कर्ज काफी कम ब्याज दर पर दे रहे थे। उनका हजारों करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया जा रहा था। लेकिन ऐसा सिर्फ अडानी के साथ ही नहीं हो रहा था। पिछले कुछ सालों में देश के लोग गरीब होते जा रहे थे और देश की कुल संपत्ति अडानी, अंबानी, मित्तल, जिंदल, पूनावाला आदि के पास जा रही थी। सारी संपत्ति मुट्ठीभर उद्योगपतियों के हाथ में केंद्रित हो रही थी। लेकिन उसमें भी अडानी का विमान काफी ऊपर उड़ रहा था।
बहुत कम समय में किसी व्यक्ति के हाथ में जो अथाह धन आता है, वह ईमानदारी के साथ आता है, इसकी संभावना बहुत कम है। हिंडनबर्ग का ध्यान शायद इसी वजह से अडानी की ओर गया होगा। देश में बढ़ती गरीबी और असमानता अति-अमीरों के हाथों में संपत्ति के संचय के कारण है। उनमें से कई ने अवैध तरीकों से यह संपत्ति अर्जित की है।
इन तमाम गंभीर घटनाओं की पृष्ठभूमि में सबका ध्यान पिछले बजट की ओर खींचा गया। लेकिन बजट सत्र के दौरान वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री के चेहरे पर की लकीरें भी नहीं बदलीं। हमेशा की तरह अगले चुनाव को देखते हुए बजट पारित कर दिया गया। जैसा कि उनकी प्रस्तुति जारी रही, प्रधानमंत्री ने सौ बार स्टैंडिंग ओवेशन दिया। हमेशा की तरह नंबरों का खेल खेला गया और स्वास्थ्य, शिक्षा, महंगाई, बेरोजगारी जैसे बुनियादी मुद्दों को दरकिनार कर दिया गया।
लेकिन एक बात बहुतों के ध्यान से छूट गई। वह यानी कॉर्पोरेट टैक्स को 37 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया है।
…. आर्थिक असमानता में सामाजिक विषमता के बीज कैसे बोए जाते हैं, इसे समझने के लिए यदि यह लेख काफी नहीं लगे, तो अवश्य बताइएगा…
–प्रकाश पोहरे
(प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
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