उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर अपनी नाराजगी जताई है, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा निर्धारित की गई थी। धनखड़ ने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं, और संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत मिले विशेष अधिकारों का दुरुपयोग लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ हो सकता है।
8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि राज्यपालों द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समय सीमा निर्धारित की गई है।अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति के निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है, और यदि निर्णय में मनमानी या दुर्भावना पाई जाती है, तो न्यायपालिका उसे रद्द कर सकती है. साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति किसी विधेयक को बार-बार वापस नहीं भेज सकते; यदि विधानसभा उसे पुनः पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस पर अंतिम निर्णय लेना होगा।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने इस फैसले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को विशेष अधिकार मिले हैं, लेकिन उनका दुरुपयोग लोकतांत्रिक संस्थाओं के खिलाफ हो सकता है।उन्होंने यह भी कहा कि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार सबसे अहम होती है, और सभी संस्थाओं को अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करना चाहिए।उनका कहना था कि कोई भी संस्था संविधान से ऊपर नहीं है।
उपराष्ट्रपति के इस बयान पर कानूनी विशेषज्ञों ने मिश्रित प्रतिक्रियाएं दी हैं
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका को संविधान के दायरे में रहते हुए अपनी शक्तियों का प्रयोग करना चाहिए, जबकि कुछ का कहना है कि न्यायिक समीक्षा लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा है और इसे कमजोर नहीं किया जा सकता।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह बयान न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के संतुलन पर महत्वपूर्ण सवाल उठाता है।जहां एक ओर न्यायपालिका ने भी राष्ट्रपति और राज्यपालों को निर्णय लेने के लिए समय सीमा निर्धारित की है, वहीं दूसरी ओर उपराष्ट्रपति का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 142 का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।यह मामला संविधानिक संस्थाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण और उनके अधिकारों के दायरे को लेकर आगे और बहस का कारण बनेगा।