अखिलेश अखिल
मौजूदा समय में क्या विपक्षी एकता संभव है ? जो हालात है उसे देखते हुए तो ऐसा नहीं लगता कि खासकर कांग्रेस के साथ मिलकर बीजेपी को हराने के लिए कोई गठबंधन बनेगा। ऐसे में एक बात जो साफ़ दिख रही है है कि आपसी टकराव की वजह से कोई भी क्षत्रप कम से कम कांग्रेस के साथ जाने को तैयार नहीं है। बड़ा सवाल तो यही है कि जो पार्टियां कांग्रेस के वोट बैंक को खींचकर ही अपना मंच सजाया है वह भला कांग्रेस के साथ कैसे जाए ? कहने को तो सभी क्षेत्रीय पार्टियां विपक्षी एकता की बात कर रही है लेकिन यह एकता किसके साथ हो और कैसा हो इस पर किसी के पास कोई रोड मैप भी नहीं है। केसीआर की मुहिम गर बीजेपी और गैर कांग्रेस वाली एकता की संभावना ही ज्यादा दिख रही है। कल क्या होगा कोई नहीं जानता। कांग्रेस भी इस कहानी को समझ रही है और मालूम है कि जबतक उसकी अपनी ताकत नहीं बढ़ेगी बीजेपी से लड़ना मुश्किल है।
विपक्षी नेताओं की कहानी को गौर से देखिये तो कई खेल सामने आते हैं। हालिया उपचुनाव में बंगाल से एक सीट कांग्रेस जितने में सफल हो गई। यह सीट लम्बे समय से टीएमसी के पास थी। यहां कांग्रेस ने वाम दलों के साथ मिलकर अपना उम्मीदवार उतारा और जीत भी गई। यह सीट मुस्लिम बहुल है। ममता को लगा कि कांग्रेस ने उसके साथ धोखा किया है। लेकिन ममता को यह नहीं लगा कि मेघालय में पूरी कांग्रेस टीएमसी में चली गई। कांग्रेस ने तो कुछ नहीं कहा। पश्चिम बंगाल की सागरदिघी सीट ममता के हाथ से निकलते ही वह बिफर उठी। कांग्रेस और बीजेपी में सांठ गाँठ का आरोप भी लगाया और लोकतंत्र को ख़त्म करने का आरोप भी जड़ दिया। फिर उन्होंने ऐलान किया कि टीएमसी अगले चुनाव में किसी के साथ नहीं लड़ेगी। वह अकेले चुनाव मैदान में उतरेगी। साफ़ है कि ममता ने विपक्षी एकता की कहानी को फिलहाल बंद ही कर दिया।
इधर दो और घटनाएं हुई। पिछले महीने केसीआर ने खम्मम में एक रैली का आयोजना किया था। कई विपक्षी नेता उसमे शामिल हुए थे लेकिन उस रैली में कांग्रेस समेत कई दलों को नहीं बुलाया गया था। रैली के बाद इस बात की संभावना दिखी कि विपक्षी एकता की कोई कहानी आगे बढ़ सकती है। कुछ हुआ नहीं। फिर इसी महीने की शुरुआत में तमिलनाडु में कई विपक्षी नेता मुख्यमंत्री स्टालिन के जन्म दिन और रैली में हिस्सा लेने पहुंचे। सबने एक सुर में यही कहा कि विपक्षी एकता जरुरी है। कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने भी यही ऐलान किया और बाकी दल वाले भी। अखिलेश यादव ने भी विपक्षी एकता का आह्वान किया और राजद नेता तेजस्वी यादव भी। फारुख अब्दुल्ला तो एकता चाहते ही हैं। लेकिन जब वहाँ से अखिलेश यादव लौट कर लखनऊ पहुंचे तो बयां कुछ और आ गया।
अखिलेश की पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने साफ़ किया कि सपा केवल अपनी सहयोगी पार्टी रालोद के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ेगी। उधर मायावती पहले ही कह चुकी है कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। ऐसे में साफ़ है कि विपक्षी एकता की कहानी अभी आगे नहीं बढ़ सकती। बीजेपी भी यही चाहती है। कांग्रेस के पास कोई चारा नहीं है। उसे तो अब खुद को ही मजबूत करने के सिवा कोई दूसरा राह नहीं दिख रहा। बीजेपी की राह फिर आगे बढ़ती जाएगी इसकी संभावना ज्यादा हो गई है। अब तो जानकार यह भी कहने लगे हैं कि जांच एजेंसियों के भय से ममता और मायावती आगे चलकर बीजेपी की सहयोगी भी हो सकती है। और ऐसा हुआ तो फिर विपक्षी एकता की सारी कहानी ख़त्म ही हो जाएगी।
इधर एक और कहानी सामने आयी है। आप नेता मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के खिलाफ 8 दलों ने एक साझा पत्र सरकार को लिखा है जिसमे लोकतंत्र को बर्बाद करने की बात कही गई है। जांच एजेंसियों पर सवाल उठाये गए हैं। इन आठ दलों में ममता भी है और सपा भी। राजद भी है और शरद पवार भी। फारुख अब्दुला भी हैं और केसीआर भी। तो क्या यह सब तीसरे मोर्चे की कहानी दिख रही है ? इसकी भी संभावना कम ही है।
उधर अब आप नेता केजरीवाल कर्नाटक ,मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में चुनावी अभियान भी शुरू कर चुके हैं। जाहिर है इस अभियान का लाभ बीजेपी को मिलना है। बीजेपी और कांग्रेस इन राज्यों में आमने सामने है। ऐसे में आप की इंट्री कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है। और इसकी संभावना भी है। गुजरात में आप की इंट्री ने कांग्रेस को काफी कमजोर किया था। ऐसी हालत में जब कांग्रेस को कमजोर करने की ही राजनीति आगे चल रही है तो बीजेपी की राह आसान ही होगी और फिर विपक्षी एकता की कहानी एक जुमलेबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं। चुनाव के बाद जो स्थिति बनेगी उसकी चर्चा अभी क्या की जा सकती है। सच तो यही है कि कांग्रेस को अपनी लड़ाई लड़नी होगी और वह अगर अपने पुराने यूपीए को ही बचा ले तो बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है।