अखिलेश अखिल
आजादी के 75 साल में हमने खूब तरक्की की है। पहली तरक्की तो यही है कि तब हम 30 करोड़ थे और आज 135 करोड़। हमने आर्थिक ,सामाजिक ,वैज्ञानिक और दुनिया के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने में भी काफी प्रगति की है। आज हम गरीब भारत नहीं है ,हम विकासशील देशों में शुमार हैं और तेजी से विकसित देशों की कतार में खड़ा होने की दौर में हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि आजादी के इतने सालों के बाद भी देश का स्वास्थ्य ठीक नहीं है। सरकारी दावे तो बहुत कुछ कहते हैं लेकिन हकीकत तो यही है कि आज शहर से लेकर गांव तक जो स्वास्थ्य तंत्र खड़ा है उसमे कोई जान नहीं। सच तो यही है गांव में 80 फीसदी चिकित्सा विशेषज्ञों की कमी है। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है कि सबकुछ होने के बाद भी भारत खुशहाल नहीं है। स्वस्थ भारत के लिए स्वस्थ चिकित्सा तंत्र की जरूरत है। आज यह देश की सबसे बड़ी जरूरत है। बीमार देश कभी आगे नहीं बढ़ सकता। स्वास्थ्य ही देश की असली पूंजी है।
अभी हाल में ही ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2021 -22 की रिपोर्ट सामने आयी है। यह रिपोर्ट चौंकाती है और सरकार के तमाम भाषणों पर सवाल भी उठाती है। रिपोर्ट कहती है कि देश के गांव आज भी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है और ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी कोई चिकित्सक नहीं है। कहने को तो सरकारी फाइलों में बहुत कुछ दर्ज है लेकिन हकीकत ठीक इसके विपरीत ही है।
रिपोर्ट के मुताबिक देश के ग्रामीण क्षेत्रों में सर्जन डाक्टरों की भारी कमी है। यह कमी 83 फीसदी के आसपास है। इसी तरह बाल रोग चिकित्स्कों की 81 फीसदी कमी है और फिजिसियन की 79 फीसदी कमी है। इस कमी को देखकर देश के ग्रामीण इलाको की हालत को समझा जा सकता है। सरकार कहती है कि महिलाओं और बच्चो के विकास के नाम पर सरकार ज्यादा ध्यान दे रही है लेकिन रिपोर्ट का सच यही है कि आज भी ग्रामीण इलाको में प्रसूति एवं महिला रोग विशेषज्ञों की 72.2 फीसदी की कमी है।
सबसे आबादी बात तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र न के बराबर हैं और जो हैं भी तो वे बंद पड़े हैं। कहा जा सकता है कि भारत का स्वास्थ्य तंत्र लकवाग्रस्त हो गया है। और इसे नहीं सुधारा गया तो देश का भविष्य क्या होगा कोई नहीं जनता।
आंकड़े बता रहे हैं कि भारत के गावो में इकत्तीस सौ मरीजों पर एक विस्तर की सुविधा अभी तक पहुँच पाई है। राज्यों की हालत तो और भी ख़राब है। बिहार की हालत तो और भी ख़राब है। बिहार में 18 हजार मरीजों पर एक विस्तर की सुविधा अभी तक पहुँच पाई है। वही यूपी में 39 सौ मरीजों पर एक विस्तर की सुविधा है। इसी तरह ग्रामीण इलाके में 26 हजार की आबादी पर एक चिकित्सक उपलब्ध है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि एक हजार की आबादी पर एक चिकित्सक जरुरी है। भारत की यह तस्वीर कैसी है इसकी कल्पना ही की जा सकती है। क्या इस तस्वीर से भारत कभी विश्वगुरु बन सकता है ?
सच तो यही है कि भारत जैसे गरीब देश में शिक्षा और स्वास्थ्य मुफ्त में होनी चाहिए जो आज तक संभव नहीं हो सका। हालांकि हाल के समय में कुछ सुविधाएं क्षेत्रों में बढ़ी है लेकिन यह अभी भी बहुत की कम है। सरकार को सबसे पहले बेहतर स्वास्थ्य की सुविधाएं ग्रामीण इलाकों में पहुंचाने की जरूरत है।
इसमें ‘आयुष्मान भारत’ योजना शामिल है, जिसका उद्देश्य पचास करोड़ से अधिक लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करना है। मगर आयुष्मान भारत योजना भी अपर्याप्त वित्तपोषण, स्वास्थ्य कर्मियों की कमी और अपर्याप्त आधारभूत संरचना की वजह से हांफती हुई दिखती है।
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य से जुड़ी असंख्य समस्याएं हैं, जिनसे ग्रामीण लोग जूझ रहे हैं। पीने योग्य साफ पानी की अनुपलब्धता, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, अच्छी सड़कें और रोजगार के साधन जैसी समस्याओं पर अक्सर नेताओं को भी विचार-विमर्श करते देखा जा सकता है, लेकिन होता वही है- ढाक के तीन पात। इसी वजह से जमीनी हकीकत आज भी खराब है और सिर्फ कागजों में देश के गांवों की हालत गुलाबी कही जा सकती है।
मीडिया रपटें बताती हैं कि बिहार में इकतीस प्रतिशत स्वास्थ्य केंद्रों पर न पीने के पानी की सुविधा है और न ही बिजली की। बरसात के मौसम में अस्पताल के अंदर पानी भर जाने की तस्वीरें तो लगभग हर किसी ने देखी होगी। यह किसी एक राज्य की समस्या नहीं है, बल्कि समूचा भारत स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की मार झेल रहा है।
यही वजह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में आम जन या तो झोलाछाप डाक्टरों से इलाज कराने को विवश हैं या फिर झाड़फूंक के जरिए अपनी बीमारियों से निजात पाने का प्रयास करते हैं। सरकारी डाक्टरों की ग्रामीण क्षेत्रों में तैनाती होने के बावजूद वे गांवों में नहीं जाते, शहरों में अपना चिकित्सा केंद्र शुरू कर देते हैं।
ऐसे में असमानता की मार आज भी गरीब लोग झेल रहे हैं, लेकिन लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देकर राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करने में लगे हुए हैं। अगर सचमुच गरीब और ग्रामीणों की सुध लेनी है, तो उन तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने की कोशिश होनी चाहिए और यह दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति और सार्वजनिक-निजी भागीदारी से ही संभव है।