अखिलेश अखिल
हमारी सरकार कहती है कि भारत विश्व गुरु बनने जा है। सरकार यह भी कहती है कि दुनिया के देश भारत की तरफ ललचाई नजरो से देख रहा है। सरकार यह भी कहती है कि भारत दुनिया का सबसे सफल देश है और भविष्य में भारत ही दुनिया की अगुवाई करेगा। और भी बहुत से बाते सरकार कहती है। प्रधानमंत्री मोदी जब यह सब बोलते हैं तो तो भारत के लोग तालियां बजाते हैं और रोमांचित भी होते हैं। दरअसल यही भारत का अमृतकाल है। जब सरकार के नेता के कुछ कहने पर जनता तालिया बजाये और सरकार के बयानों को आत्मसात कर उसके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाए तो जाहिर है कि उस नेता का इकबाल जनता के बीच घर किया हुआ है। ऐसी हालत में चुनावी राजनीति में उस नेता को हराना कठिन जरूर हो जाता है। भारत का मौजूदा सच यही है।
लेकिन सवाल है कि क्या वाकई भारत विश्व गुरु बनने को तैयार है ? सच तो यही है कि विश्व गुरु के कुछ मापदंड है। जिस देश की शिक्षा व्यवस्था सबसे अव्वल हो। जिस देश की इकॉनमी सबसे बेहतर हो और जिस देश की स्वास्थ्य प्रणाली सबके लिए सुलभ हो। तो क्या मान लिया जाए ये सभी बाते भारत में उपलब्ध है! क्या सरकार इस पर दावे के साथ कोई आंकड़ा पेश कर सकती है ? क्या इस देश की जनता यह मान सकती है जो सरकार कह रही है वह सब देश के भीतर मौजूद है?
सच बड़ा ही कड़वा होता है। यह वही देश है जो आजादी के बाद से ही गरीबी हटाओ के नारो का जाप करता रहा है। यह वही देश है जो देश के विकास के नाम पर लगातार बजट बनाता है और उस बजट का अंतिम परिणाम क्या होता यह कोई नहीं जानता। सच यही है कि आज भी देश की 80 करोड़ आबादी पांच किलो अनाज पाने के लिए सरकार का जयकारा लगाती है और उसे पाने के लिए दिन रात सच झूठ का आंकड़ा सरकारी दफ्तरों में पेश करते दिखती है। इस सच को देश के लोग माने या न माने लेकिन इस सच को दुनिया मान रही है।
अब जरा शिक्षा की कहानी पर भी नजर दाल लें। अभी पिछले दिनों ही संसद की जब शुरुआत बजट सत्र के दौरान हो रही थी तब राष्ट्रपति ने कहा है मौजूदा मोदी सरकार हर सप्ताह एक यूनिवर्सिटी तैयार कर रही है। हर रोज एक कॉलेज खुल रहे हैं। लोगो को पिछले 9 में कितने सप्ताह होते हैं और फिर कितने यूनिवर्सिटी खुले हैं इसकी जानकारी लेनी चाहिए। सरकार तो यह भी कहती है कि देश में कॉलेज और मेडिकल कॉलेज की श्रृंखला खड़ी हो गई है। क्या इन कॉलेजों और मेडिकल कॉलेजों में कोई शिक्षण की भी व्यवस्था है इसकी जानकारी भी रखने की जरूरत है। कहने को यह संभव हो सकता है कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी के नाम पर बड़ी -बड़ी बिल्डिंगे बानी हो लेकिन क्या वहाँ शिक्षक भी बहाल हुए हैं ,क्या वहाँ पढ़ाई भी होती है इसकी जानकारी कौन देगा ? सरकार की ही रिपोर्ट कहती है कि हजारो की संख्या में देश के कॉलेज और यूनिवर्सिटी में शिक्षकों के पद खाली है। बड़ी संख्या में प्रोफेसर्स और टीचर के पद खाली है। मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने वाले नहीं है। जहाँ है भी तो वहाँ कोई उपकरण नहीं है ताकि प्रायोगिक पढ़ाई जारी रखी जाए। देश के तमाम आईआईटी और आईआईएम में शिक्षकों की भारी कमी है। देश में पिछले कुछ सालो में ऐसा कोई शोध नहीं हुआ है जिस पर भारत इतराये।
देश के कई राज्यों की हालत तो ये है कि तीन साल का कोर्स पांच साल तक चल रहा है। बच्चो की पढ़ाई कब होगी और उसके रिजल्ट कब निकालेंगे यह कोई नहीं जानता ? फिर भी हम विश्व गुरु का स्वप्न देख रहे हैं? यह सब किसी ठगी से कम नहीं। लेकिन दिक्कत तो यही है कि जब देश की जनता ही सबकुछ सच मानने तो तैयार है तो फिर कहने की बात कहाँ रह जाती।
अब ज़रा इन आंकड़ों को देखिये और समझिये तो पता चल जाएगा कि हम कहा से कहा जा रहे हैं ?
2,25,620 भारतीय ऐसे हैं, जिन्होंने पिछले साल भारतीय नागरिकता छोड़ी है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने एक सवाल के लिखित जवाब में यह जानकारी दी। कारोबार, नौकरी और पढ़ाई के लिए विदेश जाकर वहां की नागरिकता लेने पर भारतीय नागरिकता स्वत: रद्द हो जाती है। बीते 12 साल में अमेरिका की नागरिकता लेने वालों की संख्या सबसे ज्यादा रही है। भारतीय संविधान दोहरी नागरिकता रखने की इजाजत नहीं देता है। भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 के मुताबिक भारत के नागरिक रहते हुए आप दूसरे देश के नागरिक नहीं रह सकते। अगर कोई व्यक्ति भारत का नागरिक रहते हुए दूसरे देश की नागरिकता लेता है तो अधिनियम की धारा नौ के तहत उसकी नागरिकता खत्म की जा सकती है। पढ़ाई, नौकरी, कारोबार के लिए विदेश जा बसने वालों की संख्या बढ़ी है।
विदेश मंत्री ने राज्यसभा में वर्षवार भारतीय नागरिकता छोड़ने वाले भारतीयों की संख्या का ब्योरा देते हुए बताया कि कहा कि 2015 में 1,31,489 जबकि 2016 में 1,41,603 लोगों ने नागरिकता छोड़ी और 2017 में 1,33,049 लोगों ने नागरिकता छोड़ी। उनके मुताबिक 2018 में यह संख्या 1,34,561 थी, जबकि 2019 में 1,44,017, 2020 में 85,256 और 2021 में 1,63,370 भारतीयों ने अपनी नागरिकता छोड़ दी थी। मंत्री के अनुसार, 2022 में यह संख्या 2,25,620 थी। जयशंकर ने कहा कि संदर्भ के लिए 2011 के आंकड़े 1,22,819 थे, जबकि 2012 में यह 1,20,923, 2013 में 1,31,405 और 2014 में 1,29,328 थे। वर्ष 2011 के बाद से भारतीय नागरिकता छोड़ने वाले भारतीयों की कुल संख्या 16,63,440 है।
जयशंकर ने उन 135 देशों की सूची भी उपलब्ध कराई जिनकी नागरिकता भारतीयों ने हासिल की है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2021 में भारतीय नागरिकता छोड़ने वाले भारतीयों की सबसे बड़ी संख्या संयुक्त राज्य अमेरिका (78,284) की नागरिकता लेने वालों की रही। दूसरे नंबर पर आस्ट्रेलिया रहा जहां 23,533 भारतीयों ने नागरिकता ली।
इस सूची में तीसरे स्थान पर कनाडा रहा जहां 21,597 भारतीयों ने नागरिकता ली और चौथे नंबर इंग्लैंड रहा जहां 14,637 भारतीयों ने नागरिकता ली। जहां की नागरिकता लेने वाले भारतीयों की संख्या कम रही, वे देश हैं- इटली (5,986 भारतीय), न्यूजीलैंड (2,643), सिंगापुर (2,516), जर्मनी (2,381), नीदरलैंड (2,187), स्वीडन (1,841) और स्पेन (1,595)।
भारत की नागरिकता छोड़ने वालों की जो प्रमुख तीन वजहें- पढ़ाई, नौकरी और कारोबार – सामने आई हैं, उनके अलावा कुछ हद तक रहन-सहन के स्तर को लेकर भी लोगों ने विदेश में नागरिकता हासिल की है। अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और कनाडा की ओर रुख करने की वजह रहन-सहन भी रही है।
जहां तक पढ़ाई का सवाल है, साल 2020 के मुकाबले 2021 में अमेरिका जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या में 10 फीसद से भी ज्यादा का इजाफा हुआ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, विदेश जाने वाले भारतीय छात्रों में से 60 फीसद से ज्यादा युवा देश में वापसी नहीं करते।
क्या माना जाय कि जो सरकार भाषण में जो कहती है वह सच है या फिर सरकारी आंकड़े जो कहते है वह सच है। जिस देश के लाखो युवा हर साल बेहतर पढ़ाई के लिए देश छोड़कर विदेश भाग रहे हों उस देश में विश्व गुरु बनने की बात बेमानी से कम नहीं। सच तो यही है कि जिस देश की शिक्षा व्यवस्था चौपट हो गई हो और केवल डिग्री धारियों की संख्या हर साल बढ़ रही हो उस आधार पर विश्व गुरु की केवल कल्पना ही जी सकती है। भारत का यह सच भरमाने के लिए काफी है।