न्यूज़ डेस्क
गुजरात दंगे पर आधारित प्रतिबंधित बीबीसी डॉक्यूमेंट्री पर सुप्रीम कोर्ट आज सुनवाई करेगा। इस मामले में कम से कम तीन याचिकाएं अदालत के सामने है। टीएमसी नेता महुआ मोइत्रा ,वकील प्रशांत भूषण और अधिवक्ता एमएल शर्मा ने अलग -अलग याचिकाएं अदालत के सामने दायर की है। इन सभी याचिकाओं पर आज शीर्ष अदालत सुनवाई करेगी।
बता दें कि केंद्र सरकार ने बीबीसी की इस डाक्यूमेंट्री को पक्षपातपूर्ण बता कर ख़ारिज कर दिया था। लेकिन सबसे पहले अधिवक्ता शर्मा ने याचिका डालकर कोर्ट को कहा था कि गुजरात दंगो पर आधारित डाक्यूमेंट्री जनता के लिए बनाई गई थी लेकिन सच्चाई के डर से आईटी अधिनियम 2021 के नियम 16 के तहत इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जो गलत है।
शर्मा की याचिका में आईटी अधिनियम के तहत 21 जनवरी के आदेश को अवैध, दुर्भावनापूर्ण और मनमाना, असंवैधानिक और भारत के संविधान के अधिकारातीत और अमान्य होने के कारण रद्द करने का निर्देश देने की मांग की गई है।
डॉक्यूमेंट्री को सोशल मीडिया और ऑनलाइन चैनलों पर प्रतिबंधित कर दिया गया है, लेकिन कुछ छात्रों ने देशभर के विभिन्न विश्वविद्यालयों के परिसरों में इसकी स्क्रीनिंग की है। शर्मा की याचिका में तर्क दिया गया है कि बीबीसी डॉक्यूमेंट्री ने 2002 के दंगों के पीड़ितों के साथ-साथ दंगों के परिदृश्य में शामिल अन्य संबंधित व्यक्तियों की मूल रिकॉडिर्ंग के साथ वास्तविक तथ्यों को दर्शाया है और इसे न्यायिक न्याय के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
उधर ,पत्रकार एन. राम, तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा, और अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने डॉक्यूमेंट्री के लिंक के साथ अपने ट्वीट को हटाने के खिलाफ एक अलग याचिका दायर की है। राम और अन्य द्वारा दायर याचिका में कहा गया है- बीबीसी डॉक्यूमेंट्री की सामग्री और याचिकाकर्ता नंबर 2 (भूषण) और 3 (मोइत्रा) के ट्वीट भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत संरक्षित हैं। डॉक्यूमेंट्री की सामग्री अनुच्छेद 19(2) के तहत निर्दिष्ट किसी भी प्रतिबंध या आईटी अधिनियम, 2000 की धारा 69ए के तहत लगाए गए प्रतिबंधों के अंतर्गत नहीं आती है।
बता दें कि सरकार ने सोशल मीडिया पर डॉक्यूमेंट्री के किसी भी क्लिप को साझा करने पर रोक लगा दी है, जिसने छात्र संगठनों और विपक्षी दलों को इसकी सार्वजनिक स्क्रीनिंग आयोजित करने के लिए प्रेरित किया। राम और अन्य लोगों की याचिका में तर्क दिया गया कि शीर्ष अदालत ने स्पष्ट रूप से निर्धारित किया है कि सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना या यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना भारत की संप्रभुता और अखंडता का उल्लंघन करने के समान नहीं है।