अखिलेश अखिल
भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है लेकिन लोकतंत्र का प्रतीक हमारी संसद आज जनता के सवालों को लेकर कितनी लाचार और बेबस है इस पर देश, दुनिया में बहस जारी है। दुनिया के कई देश आज शक की निगाहों से भारत को देख रहा है और हमें अपने गिरेवान में झाँकने की सलाह भी देता है। जो देश कभी लोकतंत्र के खिलाफ था आज वही देश हमें लोकतंत्र का पाठ भी पढ़ा रहा है। जाहिर है इसके कोई मायने होंगे और कुछ कारण भी।
एक समय था जब भारतीय लोकतंत्र की दुहाई दुनिया भर के नेता, समाज सुधारक और लोकतंत्र के रक्षक देते नहीं थकते थे आज वही शक्तियां हमारे लोकतंत्र को शक की निगाह से देख रही है और सवाल भी उठा रही है। संसद की गरिमा, सांसद के चाल चरित्र, जहाँ लम्पट होती राजनीति की कहानी कहते हैं तो जनता के मुद्दों पर संसद की चुप्पी लोकतंत्र के कमजोर होने और उसके ढहने की गाथा बताती है। आखिर ऐसा क्यों ? क्या हम अपनी लोकतान्त्रिक विरासत को खो दिया है ? क्या हमारी सरकार की सोच और समझ में ही कमी आती जा रही है ? क्या देश के लोगों में भी लोकतंत्र के प्रति आस्था नहीं रही ? क्या लोकतंत्र के चार स्तंभ अब किसी काम के नहीं रहे ? क्या मौजूदा सरकार लोकतंत्र के स्तम्भों को कमजोर कर रही है और क्या लोकतंत्र का प्रहरी कहलाने वाला प्रेस अब वाकई में सत्ता का गुलाम होकर लोकतंत्र के साथ मजाक कर रहा है ? प्रेस की भूमिका जो सत्ता सरकार के खिलाफ विपक्ष की आवाज के रूप में की गई थी ,क्या अब अपनी भूमिका से अलग हो गई है ? क्या जनता के सवाल लोकतंत्र के मंदिर संसद में उठते हैं ? क्या संविधानिक संस्थाए अपना काम ठीक से कर रही है ? क्या जनता के प्रतिनिधि जनता के प्रति ईमानदार नहीं रहे ? क्या हमारी संसद दागियों ,आरोपियों की महफ़िल हो गई है जहां हर रोज नए -नए दागियों के रूप दीखते हैं ,क्या चुनाव आयोग वाक़ई में अपना संस्कार छोड़ सत्ता और सरकार के इशारे पर चल रहा है ? क्या मौजूदा दौर में विपक्ष की आवाज संसद में दबा दी जाती है और क्या तमाम जांच एजेंसियां सरकार के इशारे पर काम करती है और न्यायपालिका की भूमिका भी शक के दायरे में आता गया है ?ऐसे बहुत से सवाल आज उठ रहे हैं जिससे लगता है कि हमारा लोकतंत्र सिर्फ दिखावे से ज्यादा कुछ भी नहीं। इन सवालों का जवाब हम तलाशेंगे और आपके सामने पेश भी करते रहेंगे।
जिस देश के संसदीय बहस पर दुनिया की निगाहें टिकी होती थीं और संसद के भीतर पक्ष -विपक्ष के तीर से जनता के सवाल हल हो जाते थे वही संसद आज सवालों से परहेज करती है और आज का सत्ता पक्ष सामने वाले विपक्ष को डराकर जो खेल करता है वह भरमाता भी है और लुभाता भी है। मौजूदा सत्ता सरकार के पक्ष में खड़े लोग सरकार की हर कहानी को देश प्रेम से जोड़कर देखते हैं और विपक्ष के हर सवाल को देशद्रोह की श्रेणी में मानते हैं। संसद के भीतर सत्ता पक्ष, विपक्ष को नपुंसक मानता है तो संसद से बाहर सरकार के लोग विपक्ष को कमजोर और प्रभावहीन।
मौजूदा सच तो यही है कि भारतीय संसद की गरिमा अब पहले जैसी नहीं रही। आज संसद और संसदीय प्रणाली में गिरावट जारी है और जनता के प्रतिनिधि कहे जाने वाले नेता मानो किसी गिरोह की अगुवाई कर रहे हों जिसके सामने जनता बौनी हो चली है। यह बात और है कि लोकतंत्र के प्रतीक भारतीय संसद और उसके कार्य प्रणाली में गिरावट आज से पहले ही शुरू हो गई थी लेकिन पिछले एक दशक का इतिहास तो यही बताता है कि जो अभी हो रहा है अगर उसे रोका नहीं गया तो भारतीय लोकतंत्र पर हंसने के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा। और संभव है कि फिर भारतीय लोकतंत्र की कहानी भी संसद की दीवारों में पैवस्त होकर रह जाएगी।