राज्यपाल को लेकर अक्सर यह आरोप लगाते रहते हैं कि ये केंद्र सरकार के इसारे पर काम करते हैं और जहां विपक्ष की सरकार होती है ,उस राज्य सरकार के कामों में अड़ंगा डाल सकते हैं।हालांकि संविधान में इसे रोकने के प्रावधान हैं,तथापि विपक्षी राजनीतिक दल की सरकार को राज्यपाल किसी न किसी तरह परेशान करते ही रहते हैं।खासकर सरकार द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल द्वारा लटकाने के मामले खूब सामने आते हैं।अब ये मामले सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे भी पहुंचने लगे हैं।सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पश्चिम बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस से एक जनहित याचिका पर जवाब मांगा है, जिसमें राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में उनकी कथित निष्क्रियता का दावा किया गया है।सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने याचिका पर चार सप्ताह में वापसी योग्य नोटिस जारी किया। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उन राज्यों में राज्यपालों की ओर से निष्क्रियता को लेकर बड़ी मात्रा में मुकदमेबाजी हुई है, जहां भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का शासन नहीं है।
राज्यपाल विपक्षी दलों के सरकार के द्वारा पारित विधेयकों को लटका रहे हैं
अप्रैल 2023 में, शीर्ष अदालत ने इस बात पर ध्यान दिया था कि राज्यपाल राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर अपनी सहमति देने में देरी कर रहे थे और उनसे आग्रह किया था कि वे संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत जनादेश को ध्यान में रखें, जो विधेयकों को जल्द से जल्द मंजूरी देने का कर्तव्य उन पर डालता है।तेलंगाना राज्य ने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित 10 प्रमुख विधेयकों पर अपनी सहमति देने के लिए तत्कालीन राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन को निर्देश देने के लिए शीर्ष अदालत का रुख किया था।
राज्यपाल द्वारा विधेयक लटकाने वाला मामला पहुंचने लगा सुप्रीम कोर्ट
पंजाब, तमिलनाडु और केरल द्वारा भी इसी तरह की याचिकाएँ शीर्ष अदालत के समक्ष दायर की गयीं।10 नवंबर, 2023 को, न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा राज्य विधानमंडल द्वारा पारित 12 विधेयकों को सहमति देने से इनकार करने पर आपत्ति जतायी थी।पंजाब सरकार की याचिका पर फैसला करते हुए, 23 नवंबर, 2023 को न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल केवल राज्य का एक प्रतीकात्मक प्रमुख है, और विधानसभाओं की कानून बनाने की शक्तियों को विफल नहीं कर सकता है।