Homeदेशदिल्ली की सीमाओं पर क्यों भड़की खेतों की आग?

दिल्ली की सीमाओं पर क्यों भड़की खेतों की आग?

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

जैसे ही केंद्र सरकार को दिल्ली सीमा पर किसान आंदोलन की आहट महसूस हुई, मैंने 18 फरवरी, 2024 को अपने पिछले ही कॉलम ‘प्रहार’ में लिखा, ‘दिल्ली के किसान आंदोलन में शामिल हों!’ इसकी अपील की गई थी। यदि आपने वह लेख पढ़ा है, तो आप समग्र स्थिति को समझ जायेंगे।

जिस तरह कठोर चट्टान टूट जाती है और बीज से अंकुर निकल आता है, उसी तरह किसान आंदोलन ने केंद्र सरकार की मजबूत चट्टान को भी तोड़ना शुरू कर दिया है। इस आंदोलन ने सन 2020 में 11 महीने तक दिल्ली बॉर्डर यानी सिंधु बॉर्डर पर जाम लगाकर, फिर 2022 में पंजाब में राज्य सरकार को गिराकर और अब एक बार फिर दिल्ली और हरियाणा के बीच शंभू और खानुरी बॉर्डर पर धावा बोलकर केंद्र सरकार के पसीने छुड़ा दिए हैं। किसानों की मांग है कि केंद्र सरकार एमएसपी कानून को लेकर किया गया अपना वादा पूरा करे। लेकिन, देश के किसानों को बार-बार राजधानी की सीमाओं पर धरना देकर आंदोलन करना पड़ रहा है, जिससे केंद्र सरकार की निर्ममता का पता चलता है। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चंपारण के किसानों के आंदोलन के बाद अंग्रेजों ने भी उनकी मांगें मान लीं थीं, उस समय की अदालतें भी किसानों के सामने झुक गईं थी, लेकिन स्वतंत्र भारत की वर्तमान केंद्र सरकार, जो खुद को ‘देशभक्त’ और ‘राम भक्त’ कहती है और ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ के रूप में राम राज्य का सपना देखती है, वह अपने ही वादे को पूरा करने के लिए किसानों के साथ तालमेल नहीं दिखा रही है।

दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन की ‘लहरें’ भारत के लोगों के शरीर पर ‘रोंगटे’ खड़े कर रही हैं। किसानों के साथ-साथ मजदूर वर्ग के बीच भी यह आंदोलन तेजी से बढ़ गया है। क्या इस सरकार के लिए इस समय किसानों पर अत्याचार करके राजनीतिक अराजकता पैदा करना उचित होगा? क्योंकि किसानों और जनता के बीच फूट डालने की उनकी सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। इसमें धार्मिक, सांप्रदायिक, क्षेत्रीय मुद्दों पर फूट डालना, तरह-तरह की साजिशें रच कर आंदोलन को खालिस्तानी और आंदोलनजीवी कहकर बदनाम करना शामिल है। उसने सब उपाय करके देख लिए, लेकिन इनमें से किसी भी प्रचार का इस आंदोलन पर कोई असर नहीं पड़ा है। हालांकि, एक बात तो साफ है कि टकराव अब उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां से दोनों पक्ष पीछे नहीं हट सकते। यदि वे बिना कहीं रुके और बिना कहीं भटके अपने स्वाभाविक मार्ग पर चलते रहें, तो संघर्ष निश्चित रूप से वास्तविक अर्थों में निर्णायक स्थिति तक जरूर पहुंचेगा।

वर्ष 2020 में एक तरफ कोरोना नाम का हौवा खड़ा हुआ, तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने गुपचुप तरीके से संसद के दोनों सदनों में तीन कृषि कानून अध्यादेश पारित कर दिए। इस कानून के खिलाफ लाखों किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर विरोध प्रदर्शन किया। उस समय भी केंद्र सरकार ने दिल्ली की चारों सीमाओं को ब्लॉक कर दिया था ।यह आन्दोलन ग्यारह माह तक चला। पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश समेत देशभर के किसान गर्मी, बारिश और ठंड की परवाह किए बिना दिल्ली की चारों सीमाओं पर डटे रहे। इस दौरान करीब 750 किसानों की मौत हो गई। आख़िरकार सरकार को झुकना पड़ा और तीनो काले क़ानून वापस लेने पड़े। जिस तरह से उस समय गृह मंत्रालय द्वारा किसानों पर अत्याचार किया गया था, दरअसल उससे भी ज्यादा अत्याचार अब भी हो रहा है। किसानों के इस बमुश्किल सात दिवसीय विरोध प्रदर्शन पर आंसू गैस के गोले, ड्रोन से निगरानी, ​​सड़कों पर कीलें ठोकना, पत्थरों, सीमेंट, कंटीले तारों से सड़कों को अवरुद्ध करना शुरू हो गया है। अपनी न्याय की मांग को लेकर दिल्ली आ रहे किसानों को चालीस किलोमीटर दूर शंभू बॉर्डर पर रोका जा रहा है और उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है, मानो वे इस देश के दुश्मन हों। यह अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने वाली सरकार की नये राम राज्य की नीति हो सकती है….!

1 फरवरी 2024 को प्रस्तुत बजट और प्रदर्शनकारी किसानों के साथ सरकार का व्यवहार, उनकी बिजली, पानी और इंटरनेट काटना, पानी के टैंकरों को विरोध स्थल में प्रवेश करने से रोकना, विरोध स्थल के चारों ओर ठोस सीमेंट के बैरिकेड्स लगाना, कंटीले तार और लोहे की छड़ें लगाना, उनके सभी पहुंच मार्गों को अवरुद्ध करना, सड़कों पर गड्ढे खोदना, किसान नेताओं के ट्विटर हैंडल बंद करना, धारा 144 लागू करना, …. इन सभी पहलुओं से हम ‘सरकार’ की मन:स्थिति और उनके ‘शासन’ का भी अंदाज़ा लगा सकते हैं। और हम इस आंदोलन को लेकर उनकी मानसिक स्थिति को समझ सकते हैं। आज सरकार ने दिल्ली सीमा पर ऐसी किलेबंदी कर दी है जो भारत-पाकिस्तान सीमा पर भी नहीं है। यह आंदोलनकारियों के प्रति सरकार के गुस्से और डर को साफ तौर पर दर्शाता है।

इस साल देश की पांच हस्तियों को ‘भारत रत्न’ घोषित किया गया। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरणसिंह एवं प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डाॅ. एमएस स्वामीनाथन भी शामिल हैं। क्या यह विरोधाभास नहीं है? मोदी सरकार आसानी से उद्योगपतियों का पच्चीस लाख करोड़ का कर्ज माफ कर सकती है, उन्हें इनकम टैक्स में 12 फीसदी की छूट दे सकती है, लेकिन जब किसानों की बात आती है, तो सरकार का खजाना खाली बताया जाता है। डॉ स्वामीनाथन की बेटी डॉ. मधुरा स्वामीनाथन ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि किसान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा है। स्वामीनाथन आयोग ने उत्पादन की कुल लागत का 50 प्रतिशत सी2 प्लस की गारंटी की सिफारिश की थी, लेकिन केंद्र सरकार ने केवल आश्वासन दिया।

देश में कम से कम 23 प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की मांग बढ़ रही है। सरकार द्वारा घोषित हरित क्रांति के कारण कृषि क्षेत्र के खर्च में भारी वृद्धि हुई है, लेकिन एमएसपीएन में वृद्धि के कारण किसानों का कर्ज डूब गया है, इसलिए किसानों को कर्ज माफी दी जानी चाहिए। इसलिए किसान दिल्ली आना चाहते हैं, लेकिन सरकार किसानों की राह में कांटे बिछा रही है। किसानों की यह मांग कि हमें दिल्ली के रामलीला मैदान में शांतिपूर्वक विरोध करने दिया जाए। यह भी सरकार को स्वीकार्य नहीं है। पुलिस को सरकार के निर्देश हैं कि उन्हें दिल्ली में प्रवेश ही नहीं करने देना है। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान, अन्ना हजारे के रामलीला मैदान में विरोध प्रदर्शन की अनुमति तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने दी थी, लेकिन मोदी सरकार किसानों के अधिकारों का हनन करती दिख रही है। पिछले आंदोलन में गणतंत्र दिवस पर लापरवाही बरतने वाले किसानों के आंदोलन पर तमाचा मारा गया था। बाद में पता चला कि इसके पीछे की मास्टरमाइंड खुद बीजेपी ही थी। अब, ऐसे वीडियो प्रसारित किए जा रहे हैं, जिनमें अधिकारी हरियाणा पुलिस को प्रदर्शनकारियों पर जोरदार प्रहार करने का निर्देश दे रहे हैं, लेकिन चोटें नहीं दिखनी चाहिए, ऐसा भी कह रहे हैं।

किसानों का यह आंदोलन सिर्फ एक पक्ष रखने से नहीं रुक रहा है, बल्कि किसानों, मजदूरों और छात्रों के कल्याण के लिए नीतियां लागू करने की बात भी कह रहा है। साथ ही वह महंगाई, बेरोजगारी और मजदूरों के मुद्दे पर भी बात कर रहे हैं। इसे भारत में आंदोलनों के हालिया इतिहास में एक बड़ी क्रांति कहा जाना चाहिए। आंदोलनों के इतिहास पर नजर डालें तो हर समूह अपने-अपने मुद्दों पर बोलता है और अपने-अपने मुद्दों पर आंदोलन भी करता है। अमूमन छात्र-छात्राएं, शिक्षक, महिलाएं, मजदूर आदि सब अपने-अपने मुद्दों पर ही आंदोलन करते रहते हैं। ये दीवारें भी किसान आंदोलन ने तोड़ दी हैं। यह एक क्रांतिकारी कदम है। इसके बावजूद शिक्षित, शहरी-ग्रामीण भाषी मध्यम वर्ग में इस मुद्दे को लेकर कोई संवेदनशीलता नहीं दिख रही है। कृषि उपज या खाद्यान्न की बढ़ती महंगाई, आवश्यक वस्तुओं की कमी, शहरी जीवन में बढ़ती असुरक्षा, परिवहन और पानी की समस्या, बिजली आपूर्ति, स्थानीय पहचान का गला घोंटना, इन सभी मुद्दों पर कम से कम (सही मायने में) एक ही वर्ग गुस्से में बोलता है। यहां तक ​​कि जब दुर्घटनाओं, प्राकृतिक आपदाओं, आतंकवादी गतिविधियों के कारण निर्दोष नागरिक मारे जाते हैं, तो यही वर्ग गहरा शोक मनाता है, एक-दूसरे से चर्चा करता है, अखबारों में गैर-जिम्मेदार शासकों और सरकारी एजेंसियों से जवाब-तलब करता है, यहां तक ​​कि टीवी चैनलों पर भी इसी वर्ग की नाराजगी भरी प्रतिक्रियाएं आती हैं। इसका मतलब यह है कि यह वर्ग बहरा नहीं हुआ है, तो इसकी संवेदनशीलता अपवाद स्वरूप भी किसानों के हिस्से में क्यों नहीं आनी चाहिए? किसानों के लिए चाहे कुछ भी हो, हम चाहते हैं कि आवश्यक कृषि उपज अच्छी गुणवत्ता वाली हो, निवास के पास उपलब्ध हो और हो सके तो सस्ते में (पहले, मुफ्त – कम से कम ऊंची जातियों के लिए) भले ही उन्हें सातवीं कक्षा का भारी वेतन मिले। किसान जिंदा है या मर गया, इससे इस वर्ग को कोई लेना-देना नहीं है।

इस बीच किसान आंदोलन ने विपक्षी राजनीतिक दलों को एक साथ लाने में बड़ी भूमिका निभाई है। देश में लगभग सभी विपक्षी दल सत्तारूढ़ भाजपा की आर्थिक नीति की आलोचना करते हैं, जिस पर भाजपा उन्हें अपनी आर्थिक नीतियों की याद दिलाती है, उस समय इन राजनीतिक दलों के पास कोई जवाब नहीं होता। कोई विकल्प नही होता, क्योंकि उनके पास अभी भी कोई अलग आर्थिक नीति नहीं है। इसलिए बीजेपी के सामने कोई विकल्प नहीं है। किसान वही विकल्प उपलब्ध कराने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। अब बात यह है कि राजनीतिक दल इसे कितना स्वीकार करते हैं और अपनी आर्थिक नीतियों को कितनी स्पष्टता से जनता के सामने पेश करते हैं।

वर्तमान समय में यदि यह आन्दोलन तीव्र, गहन एवं विस्तृत होता जा रहा है, तो इसका एकमात्र एवं सर्वोत्तम विकल्प यही है कि यह न केवल चंद लोगों के लाभ, षड्यंत्रकारी, अन्याय एवं श्रम का शोषण, बल्कि सभी प्रकार के शोषण को अंजाम देने वली व्यवस्था के खिलाफ है। हमारे संघर्ष से इस स्थायी राजनीतिक और पूंजीवादी व्यवस्था का विनाश होना चाहिए। वर्तमान प्रणाली वह है जहां अनकहे नियम संचालित होते हैं। इस नियम के अनुसार, ‘हर बड़ी मछली, छोटी-छोटी मछली को खा जाती है’, जब तक यह नियम समाप्त नहीं होगा, तब तक किसानों की मुक्ति की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है, इसलिए इस व्यवस्था के शिकार किसानों, श्रमिकों, युवाओं और आम लोगों को धरना देना चाहिए. उनके अपने गाँव, जिले दिल्ली में आंदोलन का समर्थन करना चाहिए। इस तरह पूरे देश में एक आंदोलन शुरू किया जाएगा और निकट भविष्य में इस दमनकारी व्यवस्था को हटाने के लिए खुद को तैयार किया जाएगा। चुनाव नजदीक हैं, इसलिए वे इस बात को जितनी जल्दी समझ लें, किसानों, समाज और उनके लिए उतना ही अच्छा होगा।

लेखक- प्रकाश पोहरे
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