बीरेंद्र कुमार झा
संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने के बाद से ही सियासी गलियारों में चर्चा का दौर शुरू हो गया है इसकी एक वजह संभावित वन नेशन वन इलेक्शन बिल को भी माना जा रहा है।अटकलें लगाई जा रही है कि सरकार पांच दिवसीय सत्र के दौरान इस बिल को पेश कर सकती है।अटकलें लगाई जा रही है कि सरकार पांच दिवसीय सत्र के दौरान इस बिल को पेश कर सकती है।अटकलें लगाई जा रही है कि सरकार पांच दिवसीय सत्र के दौरान इस बिल को पेश कर सकती है, हालांकि विशेष सत्र के एजेंडा को लेकर सरकार की तरफ से आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा गया है।अगर ऐसा हुआ तो लोकसभा विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होंगे।
एक देश एक चुनाव के फायदे
कम आयेगा खर्च
एक देश में एक चुनाव से सबसे बड़ा फायदा खर्च के मोर्चे पर होगा। कहा जाता है कि सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर ही 60 हजार करोड रुपए खर्च किए गए थे। इसमें राजनीतिक दलों की तरफ से किया गया खर्च और भारत निर्वाचन आयोग का खर्च भी शामिल है। ऐसे में अगर भारत में एक साथ दोनों तरह के चुनाव होंगे तो खर्चे में बड़े स्तर पर कटौती की जा सकती है।
प्रशासनिक स्तर पर सुधार
यह भी कहा जा रहा है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ होते हैं तो इसका सकारात्मक असर देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर भी पड़ सकता है। इसके चलते प्रशासनिक स्तर पर काम करने की क्षमता बढ़ेगी जो चुनाव के दौरान कुछ धीमी हो जाती है। दरअसल चुनाव के बीच कई अधिकारी चुनावी कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं।
नहीं रुकेंगे कार्यक्रम और नीतियां
एक साथ चुनाव का फायदा नीतियों और कार्यक्रमों को बगैर रुके चलाये जाने का भी मिल सकता है।वर्तमान प्रक्रिया के तहत जहां भी चुनाव होते हैं वहां आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती ह।इस दौरान वहां नई परियोजनाओं और जनकल्याण के कार्यों पर भी रोक लगा दिया जाता है।
बढ़ेंगे मतदाता
विधि आयोग का कहना है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ कराए जाते हैं तो इसका अच्छा असर मतदाताओं की संख्या पर भी पड़ सकता है। फिलहाल मतदाता को अपने राज्य और आम चुनाव के लिए अलग-अलग मतदान करना होता है। एक चुनाव होने पर वह एक साथ मताधिकार का प्रयोग कर सकेगा।
क्या है परेशानियां
संविधान में संशोधन
अगर लोकसभा और विधान सभा का एक साथ चुनाव कराए जाने हैं तो इसके लिए संवैधानिक संशोधन जरूरी होगा, क्योंकि लोकसभा और विधानसभा के कार्यकाल को एक साथ लाना होगा।साथ ही कई और संशोधनों की भी जरूरत होगी।
क्षेत्रीय मुद्दे
माना जाता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ होने को लेकर क्षेत्रीय दलों में भी डर बना रहता है। उन्हें ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय मुद्दों के बढ़ते चलन के कारण उनके क्षेत्रीय मुद्दों को दरजीह नहीं मिल सकेगी ,साथ ही वे खर्च और रणनीति के मामले में राष्ट्रीय दलों जितनी तैयारी नहीं कर सकेंगे।यह भी कहा जाता है कि चुनाव साथ होने की स्थिति में देश के संघवाद को भी चुनौती मिल सकती है।
क्या है इतिहास ?
वर्ष 1951- 52, 1957, 1962 और 1967 में देश की विधानसभा और लोकसभा के चुनाव साथ ही हुए थे।हालांकि उसके बाद वर्ष 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं और 1970 में लोकसभा भंग होने से हालात बदले। वर्ष 1983 में भारत निर्वाचन आयोग (ECI ) ने एक साथ चुनाव कराए जाने का प्रस्ताव दिया था। इसके बाद विधि आयोग की तरफ से भी 1999 की रिपोर्ट में भी एक चुनाव की बात का जिक्र किया गया था।
वर्ष 2022 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने जानकारी दी थी कि चुनाव आयोग देशभर में एक साथ चुनाव कराने के लिए पूरी तरह से तैयार है।उन्होंने कहा था इस व्यवस्था को लागू करने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है।दिसंबर 2022 में विधि आयोग ने भी इस संबंध में राजनीतिक दलों,चुनाव आयोग ,नौकरशाहों समेत अन्य एक्सपर्ट्स की इस मामले में राय मांगी थी।