Homeदेशढहता लोकतंत्र : संस्कृति और संस्थाओं का अवसान -पार्ट 7 

ढहता लोकतंत्र : संस्कृति और संस्थाओं का अवसान -पार्ट 7 

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अखिलेश अखिल 

यह दिल्ली कभी इंद्रप्रस्थ थी, जहां कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का धर्मयुद्घ लड़ा गया था। यही दिल्ली कभी सूफी-संतों की दुनिया थी, जहां एक से बढ़कर एक सूफी-संत डेरा जमाए रहते थे। यहीं थे बहादुरशाह जफर और स्थापित थी उनकी मुगलिया सल्तनत। इसी दिल्ली में गालिब और मीर की महफिलें सजती थीं और गूंजती थीं गांधी की प्रार्थनाएं ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम!’ इसी दिल्ली में लाल किले की प्राचीर से ‘आधुनिक भारत के जनक’ पंडित जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के सपने देखते थे। यहीं के कॉफी हाउस, मंडी हाउस और जेएनयू से लेकर संसद तक सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर गंभीर बहसें हुआ करती थीं। यह वही दिल्ली है, जहां महिलाओं को मां-बहन के रूप में देखा जाता था और इसी दिल्ली में ‘अंग’ से ‘अंग’ सट जाने पर तलवारें खिंच जाती थीं, लेकिन अब यहां ये सब नहीं होता! लोकतंत्र के सारे स्तम्भ  यह सब देखते जरूर हैं लेकिन करते कुछ भी नहीं। लोकतंत्र के पतन का इससे उदाहरण और क्या दिया जा सकता है।
               21वीं सदी में दिल्ली भी बदल गई है। दिल्ली में गर्मी है, तपिश है और खुलापन के साथ लूट, दुष्कर्म, हत्या, दलाली, सेक्स बाजार और झटपट धनी बन जाने की ऐसी होड़ लगी है, मानो हम कुएं में गिरने को आतुर हैं। और इस खेल में लोकतंत्र के पिलरों की बड़ी भूमिका है।  दिल्ली का वर्तमान वह नहीं है, जो उसका अतीत था! अब यहां नए जमाने के ‘रईस’ रहते हैं। उनके पास पैसा है, सत्ता है और पुलिस की फौज है। कहते हैं कि गर्मी से गर्मी कटती है। इस शहर में गर्मी निकालने के कई ‘खेल’ हैं।  और इस खेल में पूरा लोकतंत्र शामिल है। क्या नेता ,क्या न्यायधीश ,क्या ब्यूरोक्रैट और क्या मीडिया से जुड़े लोग। लोकतंत्र के अवसान के साथ ही  लगता है भारत की संस्कृति भी बेहाया और नंगी  हो चली है।
            किसी भी शताब्दी का कोई वर्ग इतना बेहया नहीं होगा, जितना हमारा उच्च और मध्यम वर्ग है। यही वह वर्ग है, जो बाजार के निशाने पर है और बाजार के लिए एक कमोडिटी है। अजीब से अर्द्धनग्न कपड़े पहनकर इठलाती औरत में जितना औरताना सौंदर्य या अस्मिता है, उतनी ही मर्दानगी उस पुरुष में भी है, जो सूट, ब्लेजर पहने ब्रीफकेस लेकर चमचमाते जूते पहने, कार में जाता दिखता है। दिल्ली में बैग उठाए व्यस्त सफल दिखता पुरुष अपने बुद्घिबल और बाहुबल के दम पर कुछ नहीं रचता! दरअसल, वह दलाल है, लाइजनर है, उसकी समृद्धि और सफलता उतनी ही व्यक्तित्वहीन, सौंदर्यहीन है जितनी हमारे देश की तकनीकी और वैज्ञानिक तरक्की के किस्से। एक दलाल सभ्यता के ‘लार’ टपकाऊ  विज्ञापनों की दुनिया के आधार पर इतिहास नहीं रचा जाएगा, लेकिन यह शायद हमारी सभ्यता के सबसे प्रामाणिक साक्ष्य हैं। खुशकिस्मती है कि इन्हें साक्ष्य की तरह देखा जाएगा, तब शर्म से डूब मरने के लिए हम नहीं होंगे। और यह सब भी लोकतंत्र के नाम पर ही हो रहा है और इसमें बड़ी भूमिका लोकतंत्र के चार स्तम्भों समेत उन संविधानिक और सरकारी संस्थाओं की भी है जिसला लगातार छरण होता जा रहा है।
            भारतीय लोकतंत्र की ढहती संस्थाओं  की कहानी कोई  आज से  शुरू नहीं हुई है। विधायिका  में छरण तो 67 से ही शुरू हो गई थी। 80 के दशक में और भी बलवती  हुई। . नेताओं के चरित्र बदले। राजनीति बदली तो अपराध का राजनीतिकरण शुरू हुआ। बाहुबल के दम पर वोट लुटे जाने लगे। चुनावी हिंसा की एक नयी कहानी दिखने लगी। संसद और विधान सभाओं में एक से बढ़कर एक माफिया ,गिरोहबाज ,अपराधी सदन में पहुँचने लगे। इस खेल में कोई पीछे नहीं रहा। सभी दलों ने इस का लाभ उठाय जो आज भी  जारी है। राजनीति से शुचिता गायब हो गई और राजनीति कलंकित। मामला केवल अपराधियों के चुनाव जीतने तक का ही नहीं रहा। अपराधी मंत्री भी बनने लगे। अपराधियों की भिड़ंत फिर सदन में होने लगी। देश ने इस तरह  का तमाशा कई बार देखा। बेशर्म राजनीति इठलाती रही ,नेता तालियां बजाते रहे और सदन की दीवारे शर्मिंदगी झेलती रही। और फिर लोकतंत्र शर्मसार  होता रहा। सच तो यही है कि भारतीय लोकतंत्र हमेशा लूट का शिकार हुआ है। पहले वोट लूटकर लोकतंत्र को जमींदोज किया जाता था और अब आधुनिक तकनीक, झूठ फरेब और लोभ  के जरिए लोकतंत्र को भरमाया जाता है। यहाँ तक तो कुछ शर्म हया बची भी थी लेकिन अब जो धर्म ,पाखंड और जातीय संग्राम की बानगी देखने को मिलती है वह सब संविधान और लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती है।
      इस पूरे खेल में मीडिया और पत्रकारों की भूमिका कुछ ज्यादा ही है। लोकतंत्र की रखवाली का अपना दायित्व अगर मीडिया निभाता तो संभव था कि बहुत कुछ बहुत जल्दी यह सब घटित नहीं होता। लेकिन जैसे ही मीडिया ने अपने चरित्र को बदला ,सत्ता सरकार बेलगाम हो गई।
 विधायिका के चरित्र बदले तो कार्यपालिका भी निरंकुश हो गई। न्यायपालिका बाजार बन गई। अदालत परिसर में मोलभाव होने लगे। जजों की बोलियां लगने लगी। जज के आसान के नीचे बैठे कर्मचारी हार जीत के मन्त्र बांटने लगे। आखिर इन्हे रोकता कौन ? जिस सदन और लोकतंत्र के प्रहरी के चरित्र बदल गए हों भला वह दूसरों पर उंगली कैसे उठाये! क्या बायां हाथ दाया हाथ को दोषी ठहरा सकता है? खेल रोचक होने लगा।
 पहले न्याय के मंदिर में इक्का -दुक्का मामले उपहास के होते थे लेकिन अब तो सरकार के दबाब ने निर्णय ही बदलने लगे। सरकार के फेवर में सुनवाई होने लगी और फैसला भी। जो सरकार के साथ खड़े हुए उन्हें पुरस्कृत किया जाने लगा। अदालत की सारी सीमाएं लांघ दी गई। जिन्हे जेल में होना चाहिए वे जनता के लिए कानून बनाने लगे और जो जनता की आवाज बन सकते थे उन्हें  राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की  वजह से  सलाखों में  डाला जाने लगा। आज यही तो हो रहा है। अंधेर नगरी चौपट राजा वाली कहावत चरितार्थ होती नजर आ रही है। 
           2014 के बाद की कहानी तो और भी शर्मसार करती नजर आती है।अगर संवैधानिक संस्थाओं की कार्यक्षमता की ऑडिटिंग या समीक्षा की जाए तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि अधिकतर संवैधानिक संस्थाएं, धीरे धीरे या तो अपने उद्देश्य से विचलित हो रही हैं या उनकी स्वायत्तता पर ग्रहण लग रहा है या उन्हें सरकार या यूं कहें प्रधानमंत्री के परोक्ष नियंत्रण में खींच कर लाने की कोशिश की जा रही है। संविधान का चेक और बैलेंस तंत्र जो विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के बीच एक महीन सन्तुलन बनाये रखता है, को भी विचलित करने की कोशिश की जा रही है। हम  उन संस्थाओं की बात नहीं कर रहे हैं जो कार्यपालिका के सीधे नियंत्रण में थोड़ी बहुत फंक्शनल स्वायत्तता के साथ, गठित की गयी हैं, बल्कि उन संस्थाओं की बात कर कर रहे हैं जो सीधे तौर पर संविधान में अलग और विशिष्ट दर्जा प्राप्त हैं और जिनके अफसरों की नियुक्ति में सरकार यानी कार्यपालिका का दखल भी सीमित है। यानी सरकार उनकी नियुक्ति तो कर सकती है, पर बिना एक जटिल प्रक्रिया के उन्हें हटा नहीँ सकती है। उदाहरण के लिये, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, कम्पट्रोलर और ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया, चीफ इन्फॉर्मेशन कमिश्नर जैसे कुछ अन्य संस्थाएं हैं। आज ये सारी संस्थाए अपनी गरिमा से भटकती नजर आ रही है। मामला केवल इन संविधानिक संस्थाओं तक का ही नहीं है ,देश की  सरकारी संस्थाए जैसे सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स सीवीसी, यूनिवर्सिटी सबके सब सरकार के इशारे पर चलते नजर आते हैं।

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