Homeदेशढहता लोकतंत्र :संवैधानिक संस्थाओं के पतन का अमृतकाल -पार्ट 8 

ढहता लोकतंत्र :संवैधानिक संस्थाओं के पतन का अमृतकाल -पार्ट 8 

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अखिलेश अखिल 

कहा गया था कि जैसे -जैसे समय बीतेगा भारत का लोकतंत्र मजबूत होगा ,संस्थाएं मजबूत होगी और जनता को न्याय मिलेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आज आजादी के 75 साल हो गए ,हम अमृतकाल भी मना रहे हैं लेकिन सच तो यही है कि इन 75 सालों में लोकतंत्र मजबूत होने के बजाय संस्थाओं की गिरती साख की वजह से हांफता नजर आ रहा है। सरकार जो चाहती है ये संस्थाए वही करती है और इस सबके पीछे बस एक ही मतलब होता है कैसे अपने विरोधियों को पस्त किया जाए और कैसे अपने वोट बैंक को दुरुस्त किया जाए। लोकतंत्र का यह खेल काफी मनोरंजक है।  सवाल करे ,जो सरकार से पूछे और जो सरकार के कामकाज पर जनता को जगाये वह सरकार के लिए देशद्रोही बनता है। पिछले कुछ सालों की घटनाओ पर ही नजर डाले तो कारोब सौ से ज्यादा पत्रकार, नेता, समाजकर्मी और प्रवुद्ध वर्ग देशद्रोह के शिकार होकर जेल में बंद है। लोकतंत्र का यह खेल लुभाता भी है और भरमाता भी है।
          संविधानिक संस्थाओं में इधर सबसे ज्यादा किसी संस्थान पर दाग लगे हैं तो वह है चुनाव आयोग। इसमें कोई दो राय नहीं है कि चुनाव आयोग मौजूदा सरकार की कठपुतली बन चुका है। आज यदि देखा जाय तो चुनाव आयोग पर इतने दाग लग चुके हैं जिसे साफ करने में लंबा वक्त गुजर जायेगा। कभी यही आयोग बेदाग था, मगर आज जिधर देखो उधर केवल दाग ही दाग नजर आते हैं। चुनाव के हर चरण में बड़े पैमाने पर में ईवीएम घोटाला, ईवीएम में खराबी, चुनाव आयोग की मनमानी और सरकार के दबाव में काम करने का आरोप चुनाव आयोग पर लगते रहे। लेकिन, कुल मिलाकर चुनाव आयोग मस्तमौला बैरागी की तरह बगैर किसी रुकावट के चलता रहा। उसे कोई शर्म नहीं। उसे अपने अतीत का कोई  नहीं। उसे तीन शेषन भी याद नहीं और न हीं उसे शेषन पर शायद अब गर्व ही है। सरकार जो कहती है मौजूदा चुनाव आयोग वही करता है। चुनाव आयोग सरकार के इशारे पर दौड़ता है और सिर्फ मकसद यही होता है कि कैसे सरकार के लोगों की जीत संभव हो सके और कैसे विपक्ष को कमजोर किया जा सके।
 चुनाव आयोग लोकतांत्रिक रास्तों से हटकर अनैतिकता और असंवैधानिक रास्तों पर चल पड पड़ा है। इसको सही रास्ते पर लाना अब इतना आसान नहीं है।
           सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि देश का मतदाता भी अब यह  यकीन करने लगा है कि यह आयोग सत्ताधारी दल को मदद पहुँचा रहा है।इंदिरा गाँधी के समय भी आयोग पर इस तरह के आरोप लगते थे लेकिन तब  कुछ नियंत्रण में था। अहम बात तो यह है कि आयोग का काम  निष्पक्ष चुनाव कराना है और नागरिको को वोट डालने के लिए प्रेरित भी करना है। उसकी नजर में सत्ता पक्ष और विपक्ष में कोई अंतर नहीं। कोई भी नेता अगर आयोग के नियमो का उल्लंघन करता है तो उस पर कार्रवाई जरुरी है चाहे वह देश का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो। लेकिन 2014 से लेकर आजतक देश में  जितने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में पीएम मोदी और उनके लोग भाषण देते रहे और विपक्ष पर कई स्तरहीन हमले किये, उस पर आयोग ने आजतक कोई संज्ञान नहीं लिया। उन्हें हमेशा क्लीनचिट दे दी गई। आयोग का यह रवैया आम जनता को भरमा रहा है। आयोग के प्रति जनता का विश्वास ख़त्म हो  गया है। और डर तो यह है कि जनता का विश्वास ऐसे ही ख़त्म होता चला गया तो आयोग को कौन कहे इस लोकतंत्र के प्रति भी जनता  ख़त्म हो जाएगा और फिर क्या होगा उसकी कल्पना ही  की जा सकती है।
              गौरतलब है कि भारतीय लोकतंत्र को मजबूत रखने और उसे दीर्घजीवी बनाने के लिए मूलतः दो स्तम्भ की भूमिका काफी अहम है। लोकतंत्र को जीवंत  रखने के लिए सबसे जरुरी है राजनीतिक दलों की पारदर्शिता और उसके भीतर का लोकतंत्र। दूसरा अहम स्तम्भ है संविधानिक संस्थाए जैसे विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका। लेकिन राजनीतिक दलों की अंदरुनी स्थिति क्या है कौन नहीं जानता। कुछ वाम दलों को छोड़ दें तो लगभग अधिकतर पार्टियां पारिवारिक जेब पार्टियां हैं या फिर कुछ दलों में वन मैन शो की कहानी चरितार्थ होती दिखती है। मायावती जो चाहें, बहुजन समाज पार्टी वही फैसला करेगी। यही स्थिति लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, करुणानिधि, चंद्रबाबू नायडू, बालठाकरे वगैरह के दलों की है। क्या इन दलों में कोई अंदुरुनी लोकतंत्र है? कदापि नहीं। इन दलों  की हालत यही है कि जो निर्णय पार्टी सुप्रीमो का होता है  पार्टी के लोग भी उस निर्णय को स्वीकार करते हैं। लेकिन खेल देखिये इन दलों की स्थिति अपने -आपने इलाके में काफी मजबूत है। इनके वोट बैंक है। ये चुनाव जीते या हारे इनके अपने मत प्रतिशत है और जातियों के झुंड भी। जब झुंड में बिखराव होते हैं तो पार्टी चुनाव हारती है और जब झुंड एक जुट होकर सामने वाले को चुनौती देता है तो परिणाम कुछ और ही होते हैं।  
             इन पार्टियों में चुनाव न  बराबर होते हैं। इन पार्टियों में किसी राष्ट्रीय मुद्दों पर चिंतन और बहस नहीं होते। इन पार्टियों में चुनाव के जरिये संगठन तैयार नहीं होते। जब इन पार्टियों में ही लोकतंत्र नहीं है तब भला इन पार्टियों के लोग संसद और विधान सभाओं में पहुंचकर किस लोकतंत्र की बात करेंगे? कौन सी लोकतान्त्रिक संस्कृति के ये वाहक होंगे? जबतक इन पार्टियों के भीतर लोकतंत्र नहीं होगा तब तक लोकतंत्र मजबूत नहीं हो सकता। इनके नेता लोकतान्त्रिक नहीं हो सकते। आज राजनीतिक दलों में प्रतिभा, काम, सेवा, समर्पण की पूंजी से कार्यकर्ता आगे नहीं बढ़ते. पैसा, अपराध, चाटुकारिता से आगे बढ़ते हैं। क्योंकि इन पारिवारिक दलों में बड़े नेताओं की दादागीरी-तानाशाही है।  इस कारण ऐसे दलों में चमचागीरी,जी हजूरी और अहंकार की संस्कृति ही विकसित होती है। इस संस्कृति-पृष्ठभूमि से विधायिका में पहुंचे लोग सिर्फ लड़-झगड़ सकते हैं। अपना अहंकार-शारीरिक ताकत ही दिखा सकते हैं, अपनी सत्ता का धौंस बता सकते हैं, अपनी ताकत से दूसरों को चुप कराने की धमकी दे सकते हैं कि ‘ हम राजा हैं, राजा के लिए कोई कानून-नियम नहीं होता।
            कांग्रेस और बीजेपी के भीतर भी कोई लोकतंत्र नहीं है। कहने के लिए वहाँ सांगठनिक  चुनाव जरूर होते हैं लेकिन अंतिम फैसला तो बॉस ही करते हैं। जो पार्टी के शीर्ष पर बैठा होता है उसके फैसले अंतिम होते हैं चाहे पार्टी के भीतर कलह ही क्यों हो। कांग्रेस संस्कृति जैसा ही भाजपा में भी पार्टी आलाकमान संगठन में अपनी मरजी के अनुसार नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों के तहत कार्यकर्ताओं के चयन से संगठन के महत्वपूर्ण पदों पर नेता बैठाये जायें, तो लोकतांत्रिक परंपरा विकसित होगी। इसलिए भारतीय लोकतंत्र में ‘ दलों के अंदर लोकतंत्र’ कायम हो, इसकी पहल सबसे जरूरी है। लेकिन अब तक तो ऐसा नहीं हुआ।
         खेल देखिये। आज मौजूदा सरकार विपक्ष को तबाह करने के लिए तमाम जांच एजेंसियों का सहारा लेती है। सरकार के इस खेल को जनता भी जानती है लेकिन यह भी उतरना ही सच है कि जब यही विपक्ष सत्ता में था  तो मौजूदा सत्ता पक्ष को तबाह करने में कोई कमी नहीं करती थी और वह भी इन्ही जांच एजेंसियों के जरिये अपना खेल करता था। इस पुरे खेल में देश की एजेंसियां कठपुतली की भाँती नाचती हैं और वह अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।
          धर्मवीर आयोग ने ’80 के आसपास अपनी रिपोर्ट में पुलिस व्यवस्था के संचालन में आमूलचूल परिवर्तन का प्रस्ताव दिया था. पर किसी दल ने उसे नहीं माना। राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतीकरण पर लगाम लगाने के लिए अदालतें कई तरह की सिफारिशें की ,चुनाव आयोग ने कई कानून बनाये ,जनप्रतिनिधि कानून लाये गए लेकिन आखिर हुआ क्या? इस देश में जीतने तरह के कानून बने हैं शायद ही किसी और देश में इतने कानून बने हों .लेकिन जितने कानून हैं उतनी तरह की समस्याएं भी खड़ी  हो गई है।
                मौजूदा प्रधानमंत्री बार -बार यह कहते रहे हैं कि राजनीति को साफ़ होनी चाहिए और अपराधी -आरोपी को राजनीति और चुनाव से दूर रखने की जरूरत  है। लेकिन बीजेपी से ही सबसे ज्यादा आरोपी दागी चुनाव जीतकर सदन तक पहुंचे हैं। राहुल गाँधी भी राजनीति में अपराध की जगह को गलत मानते हैं लेकिन उनकी पार्टी भी अपराधियों को टिकट देने से बाज कहा आती। बाकी के सभी दल भी इसी रस्ते पर चल रहे हैं। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि राजनीति गुंडों का खेल है। और जब राजनीति गुंडों, लम्पटों, आरोपियों और गाड़ियों के सहारे होती रहेगी तो लोकतंत्र का चेहरा तो बदलेगा ही। और आज अगर लोकतंत्र की संस्थाए अपना चरित्र बदल रही हैं तो फिर है तौबा मचाने की बात बेईमानी है। आजादी के 75 साल में ही देश की संस्थाए राजनीति का शिकार हो चुकी है ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि मौजूदा वक्त भारत की स्वतंत्रता का भले ही अमृतकाल हो लेकिन इसके साथ ही  यह संविधानिक संस्थाओं के पतन का भी अमृतकाल है।

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