न्यूज़ डेस्क
अयोध्या पर आयी एक नयी पुस्तक में दावा किया गया है कि करीब 31 वर्ष पहले छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर बने बाबरी ढांचे का हश्र दरअसल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा 1925 में सुझाये गये एक समाधान से प्रेरित था और राम मंदिर निर्माण का विरोध करने वाले लोग विदेशी औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेष मात्र हैं जिन्होंने साक्ष्यों एवं तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर एक विकृत नैरेटिव बनाया और मुसलमानों को उस ढांचे के लिए लड़ने के लिए उकसाया।
उक्त निष्कर्ष वरिष्ठ स्तंभकार, लेखक एवं पूर्व राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज की नयी पुस्तक ‘ट्राइस्ट विद अयोध्या: डीकोलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ में निकाला गया है। पुस्तक का विमोचन 13 जनवरी को यहां दिल्ली विश्वविद्यालय में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के हाथों किया जाएगा।
पुंज ने यहां एक संवाददाता सम्मेलन में पुस्तक के संदर्भ एवं विषयवस्तु की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में साक्ष्यों, ऐतिहासिक घटनाओं और संदर्भों के साथ यह स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि भारत और श्रीराम कैसे कई अलग-अलग रूपों में जुड़े हैं।
पुंज के अनुसार श्रीराम मंदिर पुनर्निर्माण के विरोध को औपनिवेशिक मानसिकता द्वारा शक्ति प्रदान की गई थी, जो स्पष्ट रूप से इस्लामी और ब्रिटिश आक्रांताओं के भारत छोड़ने के बाद देश में सक्रिय है। उनकी लड़ाई और अनेक दलों द्वारा निरंतर अभियानों का एकमात्र उद्देश्य यह था कि वह उस बाबरी ढांचे को बचाए, जो बहुत पहले मस्जिद नहीं रह गई थी और आयोध्या स्थित जन्मस्थली पर किसी भी तरह श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण को रोका जाए। लेकिन उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने 09 नवंबर 2019 को सर्वसम्मत फैसला देकर उसी गुलाम औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त ‘इतिहासकारों’, उनके सहयोगियों और तथाकथित ‘सेक्युलर’ राजनीतिज्ञों को आइना दिखा दिया। इस विचार समूह ने जानबूझकर श्रीराम जन्मभूमि के साक्ष्यों को निरस्त किया, तथ्यों को अपने एजेंडे के लिए तोड़ा-मरोड़ा और छिपाया, साथ ही एक विकृत नैरेटिव बनाकर मुसलमानों को उस ढांचे के लिए लड़ने हेतु उकसाया, जो बदलती परिस्थिति में कभी प्रासंगिक ही नहीं रहा।
लेखक का कहना है कि इन सभी ‘अपराधियों’ को समस्त भारतीयों, विशेषकर करोड़ों रामभक्तों से क्षमा मांगनी चाहिए, जिनके विषवमन ने अनगिनत निर्दोषों की जान ली और उनकी संपत्ति को क्षति पहुंची। इसी वैचारिक कुनबे ने सामाजिक और सांप्रदायिक सद्भाव को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया, साथ ही वैश्विक मंच पर भारत की बहुलतावादी, सहिष्णु और शांतिपूर्ण छवि को कलंकित किया।
उन्हाेंने पुस्तक में दावा किया है कि 06 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचे का ध्वंस एक गांधीवादी समाधान था। उन्होंने कहा कि एक समय गांधीजी से पूछा गया था कि जब किसी अन्य के ज़मीन पर जबरन मस्जिद बना दी जाए, तो उसका समाधान कैसे किया जाए? गांधीजी ने इसका उत्तर ‘यंग इंडिया’ में 5 फरवरी 1925 को दिया था, जिसके उद्धरण इस प्रकार है, “…दूसरे की जमीन पर बिना इजाजत के मस्जिद खड़ी करने का सवाल हलके लिहाज से निहायत ही आसान सवाल है। अगर ‘अ’ का कब्जा अपनी जमीन पर है और कोई शख्स उस पर कोई इमारत बनाता है, चाहे वह मसजिद ही हो, तो ‘अ’ को यह अख्तियार है कि वह उसे गिरा दे। मस्जिद की शक्ल में खड़ी की गई हर एक इमारत मस्जिद नहीं हो सकती। वह मस्जिद तभी कहीं जाएगी जब उसके मस्जिद होने का धर्म-संस्कार कर लिया जाए। बिना पूछे किसी की जमीन पर इमारत खड़ी करना सरासर डाकेजनी है। डाकेजनी पवित्र नहीं हो सकती। अगर उस इमारत को, जिसका नाम झूठ-मूठ मस्जिद रख दिया गया हो, उखाड़ डालने की इच्छा या ताकत ‘अ’ में न हो, तो उसे यह हक बराबर है कि वह अदालत में जाए और उसे अदालत द्वारा गिरवा दे, जब तक मेरी मिल्कियत है, तब तक मुझे उसकी हिफाजत जरूर करनी होगी, वह चाहे अदालत के द्वारा हो या अपने भुजबल द्वारा।”
उन्होंने लिख कि जन्मभूमि पर श्रीराम मंदिर का पुनर्निर्माण, स्वतंत्र भारत में औपनिवेशिक दृष्टिकोण से मुक्ति का सबसे मुखर प्रतीक है। इससे संबंधित कई पक्षों पर पिछले कुछ दशकों से चर्चा हो रही है, विशेषकर 1984 के बाद से। कई प्रश्न, जिनमें से कुछ बचकाने, तो कुछ मामले को और अधिक उलझाने के लिए उठाए गए। क्या श्रीराम वास्तव में थे? उनका जन्म अयोध्या में हुआ था, इसका प्रमाण क्या है? उनके जन्मस्थान का साक्ष्य क्या है? क्या रामायण काल्पनिक है? पूछा जाता है कि प्रभु श्रीराम सर्वव्यापी हैं, तो उनकी जन्मस्थली पर एक मंदिर क्यों बनाना चाहिए? क्यों न इसके स्थान पर एक अस्पताल या सार्वजनिक शौचालय बना दिया जाए, क्योंकि उनकी आवश्यकता एक श्रीराम मंदिर से कहीं अधिक है?
पुंज कहते हैं कि ये सभी प्रश्न न तो मासूम हैं और न ही जिज्ञासा की भावना से पूछे गए थे, बल्कि इनमें घृणा और शरारत की दुर्गंध आती है। श्रीराम की प्राचीनता इतिहास द्वारा सिद्ध हैं। रामायण, महाभारत और पुराणों के साथ, इतिहास का एक हिस्सा है। अयोध्या स्थित जन्मभूमि श्रीराम का जन्मस्थान है और वे भगवान विष्णु के सातवें अवतार हैं, यह कई सहस्राब्दियों से चली आ रही परंपराओं और कई ऐतिहासिक वृत्तांतों द्वारा समर्थित आस्था से जुड़ा हैं। दुनिया में सभी मजहब निश्चित रूप से विश्वास पर आधारित हैं। उनके अधिकांश तीर्थस्थल दृष्टांतों और दंतकथाओं से वैधता प्राप्त करते हैं, जिनपर उनके करोड़ों अनुयायी विश्वास करते हैं।
लेखक ने पुस्तक में दावा किया है कि अयोध्या में विवाद को सुलझाया जा सकता था और राम मंदिर स्वतंत्रता के बाद बिना किसी समस्या के जन्मभूमि स्थल पर बन जाता, परंतु यह पं.नेहरू की औपनिवेशिक मानसिकता और उनके रूपी अन्य मानसपुत्रों के कारण संभव नहीं पो पाया, जो भारतीय व्यवस्था में भीतर तक घुसे हुए थे। लेखक ने पं.नेहरू को हिंदू आस्था और संबंधित परंपराओं के प्रति हीन-भावना रखने का आरोपी बताया है। लेखक का मूल्यांकन है कि पं.नेहरू मार्क्सवाद से अधिक प्रभावित थे और उनके भारत एवं हिंदुओं के प्रति दृष्टिकोण को थॉमस बेबिंगटन मैकॉले द्वारा स्थापित विदेशी शिक्षा प्रणाली ने आकार दिया था।
पुस्तक में आरोप है कि पं.नेहरू द्वारा सोमनाथ मंदिर पर अचानक मोड़ लेना, योजनाबद्ध और अवसरवाद से प्रेरित था। सरदार पटेल के सुझाव के बाद दिसंबर 1947 में केंद्रीय मंत्रिपरिषद, जिसका नेतृत्व तब पं.नेहरू बतौर प्रधानमंत्री कर रहे थे, उसने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को हरी झंडी देकर इसके वित्तपोषण का निर्णय लिया था। यह बात अलग है कि गांधीजी के आग्रह पर, बाद में निर्णय लिया गया कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण सरकारी खजाने के बजाय जनता के दान से होगा। तब कालांतर में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री डॉ. के.एम. मुंशी की अध्यक्षता में एक ट्रस्ट का गठन किया गया जिसका कार्य मंदिर पुनर्निर्माण का पर्यवेक्षण करना था। इसी दौरान 30 जनवरी 1948 को गांधीजी की नृशंस हत्या हो गई और 15 दिसंबर 1950 को सरदार पटेल ने अंतिम सांस ली।
पुस्तक में दावा है कि इन दो महानायकों— गांधीजी और सरदार पटेल के निधन के बाद, अवसर की खोज प्रतीक्षारत पं.नेहरू का सोमनाथ मंदिर परियोजना के प्रति दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल गया। 1951 की मंत्रिमंडलीय बैठक में पं.नेहरू ने डॉ. मुंशी को बुलाया और उनसे कहा, ‘मुझे यह पसंद नहीं कि आप सोमनाथ पुनर्निर्माण की कोशिश कर रहे हैं। यह हिंदू पुनरुत्थान है।’ सोमनाथ मंदिर फिर बनने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को इसका उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित किया गया। जब राष्ट्रपति प्रसाद ने इसे सहमति दी, तब भी पं.नेहरू ने इसका विरोध किया। विरोधाभास देखिए कि तब राष्ट्रपति केवल उस निर्णय का आदर कर रहे थे, जिसे नेहरू कैबिनेट ने पारित किया था। संसदीय लोकतंत्र में, राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद निर्णय के अनुरूप कार्य करते हैं और राष्ट्रपति उसी अनुशासन का पालन कर रहे थे। सोमनाथ मामले में विवाद इसलिए उठा, क्योंकि तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने बड़ी सहजता से अपना मन बदल लिया था।
पुस्तक का दावा है कि पंडित नेहरू का विरोध केवल सोमनाथ या अयोध्या में श्रीराम मंदिर तक सीमित नहीं था, अपितु यह हिंदुओं के सभी मंदिरों के प्रति था। लेखक ने दिल्ली में मार्च 1959 के वास्तुकला संबंधित सम्मेलन में पंडित नेहरू भाषण के कुछ अंशों को उद्धत किया है, जिसमें नेहरू ने कहा था, “कुछ दक्षिण के मंदिरों से… मुझे उनकी सुंदरता के बावजूद घृणा होती है। मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्यों? मुझे नहीं पता। मैं इसे समझा नहीं सकता, लेकिन वे दमनकारी है, मेरी आत्मा का दमन करते हैं। वे मुझे उठने नहीं देते, मुझे नीचे रखते हैं… मुझे सूरज और हवा पसंद है, उनका (मंदिर) अंधेरायुक्त गलियारा पसंद नहीं।” मंदिरों के स्थान पर पं.नेहरू को ताजमहल अधिक सुंदर और भव्य लगा था।’
उन्होंने लिखा कि 22 जनवरी 2024 को पुनर्निर्मित श्रीराम मंदिर का लोकार्पण होगा। यह भारत और शेष विश्व में एक अरब से अधिक हिंदुओं के लिए सपना पूरा होने जैसा है। बहुत लोगों ने यह भी नहीं सोचा था कि जन्मभूमि पर श्रीराम मंदिर का पुनर्निर्माण, उनके जीवनकाल में पूर्ण होगा। यह विशाल मंदिर, राजस्थान से लाए गए गुलाबी पत्थरों से बना है, जो प्राचीन भारतीय निर्माण तकनीकों और आधुनिक प्रौद्योगिकी का मिश्रण है। अनगिनत विश्वासियों के लिए यह भव्य मंदिर, श्रीराम के दिव्य निवास को पुनर्जीवन देने जैसा होगा।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा बार-बार ब्राह्मण होने का राग अलापने, कुर्ते के ऊपर जनेऊ धारण करने और चुनाव से पहले चुनिंदा मंदिरों में घूमने के बारे में उन्होंने कहा कि यह सब उनकी और उनके दल के देश से असंतोष को छिपाने का हास्यास्पद प्रयास हैं। उनके लिए श्रीराम मंदिर के निर्माण पर रोक लगाना ‘पंथनिरपेक्षता’ और देश में मुसलमानों की ‘सुरक्षा’ का पर्याय था। सर्वोच्च अदालत के सर्वसम्मत फैसले ने स्पष्ट कर दिया कि यह उपक्रम पूरी तरह से झूठ पर आधारित था।