न्यूज़ डेस्क
इंडिया गठबंधन को अचानक छोड़कर बीजेपी में गए नीतीश कुमार को लेकर अब कई तरह की बातें की जा रही है। नीतीश के इस खेल से जदयू के भीतर भी हड़कंप है और बीजेपी का भी एक तपका यह सवाल पूछ रहा है कि क्या नीतीश अब राजनीति करने लायक बचे भी हैं ? उन्होंने अब तक जो साख कमाई थी,ख़त्म हो गया है ऐसे में अब उनके चेहरे को लेकर देश और प्रदेश की जनता में कोई मोह और लालच नहीं रह गया है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर नीतीश कुमार अब बीजेपी के लिए कितने भरोसेमंद रह गए हैं ?
बीजेपी के लोग भी अब कहने लगे हैं कि क्या नीतीश बीजेपी के साथ रह पाएंगे ?बिहार में 17 महीने बाद एक बार फिर एनडीए की नई सरकार तो बन गई, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही रहे. एक बार फिर से नीतीश दावा कर रहे हैं कि अब वे कहीं नहीं जाएंगे, वे बीजेपी के साथ बने रहेंगे। वैसे, यह साफ है कि इस बार नीतीश को पहले से ज्यादा आक्रामक बीजेपी के साथ काम करना पड़ेगा। शपथ ग्रहण के मौके पर जय श्री राम की गूंज भी यही इशारा कर रही थी। उनके धुर विरोधी रहे बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी और विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा जैसे कद्दावर नेता को उपमुख्यमंत्री बना कर यह संदेश दिया है कि मुख्यमंत्री भले ही नीतीश कुमार हैं, लेकिन सरकार बीजेपी की रहेगी।
ये वही सम्राट चौधरी हैं, जिन्होंने 27 मार्च, 2023 को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद अपने सिर पर भगवा पगड़ी बांध ली थी। 12 जुलाई को उन्होंने सदन में कहा था कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर ही पगड़ी खोलेंगे विजय कुमार सिन्हा भी जेडीयू के खिलाफ काफी आक्रामक रहे हैं। ये दोनों नीतीश के खिलाफ खुलकर बोलते रहे हैं और सरकार चलाने में भी उनके एक चुनौती ही रहेंगे। जाहिर है, बीजेपी नियंत्रण अपने हाथ रखना चाह रही।
वर्ष 1994 में जब नीतीश ने उस समय के जनता दल से नाता तोड़ा था तब उन्होंने लालू प्रसाद पर अपराधियों को संरक्षण देने तथा भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था। इसके बाद 2017 में केंद्रीय एजेंसियां उपमुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव से पूछताछ कर रही थी। नीतीश ने तेजस्वी से जांच के बारे में स्थिति स्पष्ट करने को कहा, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। आरोप भ्रष्टाचार का था. नीतीश ने इस्तीफा दे दिया और एनडीए में लौट गए।
इस बार भी स्थिति वही है। जमीन के बदले नौकरी मामले में सीबीआई की चार्जशीट में तेजस्वी यादव का नाम है, लेकिन इस बार अलगाव का कारण भ्रष्टाचार न होकर परिवारवाद बताया जाता है। यही वजह थी कि पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती समारोह पर बीते 24 जनवरी को नीतीश कुमार ने परिवारवाद पर जमकर प्रहार करते हुए कहा था कि कुछ लोग राजनीति में अपने परिवार को बढ़ाने में लगे रहते हैं। कर्पूरी ठाकुर और हमने कभी अपने परिवार को बढ़ावा नहीं दिया।
एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने कहा, ‘‘इस बार प्रदेश इकाई नीतीश कुमार के साथ नहीं जाना चाहती थी। लेकिन बिहार में अपनी जीत बरकरार रखने के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने यह निर्णय लिया। इससे इंडी गठबंधन का मनोबल तो टूटा ही, लालू भी बैकफुट पर आ गए। ” उनके अनुसार बीजेपी के एक इंटरनल सर्वे से यह साफ हो गया था कि अगर नीतीश अलग रहे तो बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 10 से 15 सीट का नुकसान हो सकता है, नीतीश कुमार के वोटर उनके साथ ही बने रहेंगे।
जातिवार गणना की रिपोर्ट के अनुसार राज्य की सर्वाधिक 36 प्रतिशत आबादी अति पिछड़ा वर्ग की है. इसमें कोई दो राय नहीं कि इस वोट बैंक पर नीतीश कुमार की अच्छी पकड़ है। 2019 में एनडीए को बिहार में 40 में से 39 सीट पर जीत मिली थी। इस परिणाम को अगले आम चुनाव में दोहराने के लिए दृढ़ संकल्पित बीजेपी के पास नीतीश के साथ जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा था। इसलिए थोड़ा झुककर ही सही बीजेपी ने फिर नीतीश से हाथ मिलाया।
कुर्मी-कोइरी व महादलित नीतीश कुमार की ताकत माने जाते हैं। इनके लिए वे ब्रांड बन चुके हैं।नीतीश कुमार के करीब 16.5 प्रतिशत कोर वोटर हैं। जिनके लिए वे ही सब कुछ हैं। वे जिधर रहेंगे, इनका वोट उधर ही जाएगा। बीजेपी की नजर नीतीश के साथ भी या उनके बाद भी इसी वोट बैंक पर है। कुर्मी जाति के सम्राट चौधरी को उपमुख्यमंत्री बनाना उनके वोट में सेंध की कोशिश ही है। बीजेपी ने अपनी ओर से शुरुआत भी कर दी है।