डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ और अपमानजनक शब्दों ने भारत को अमेरिका से काफी दूर कर दिया है। रूस से तेल खरीदने को आधार बनाकर ट्रंप प्रशासन लगातार भारत को निशाना बना रहा है। लिहाजा सवाल ये उठ रहे हैं कि क्या भारत अब अमेरिका को साइड कर चंद्रमा पर न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने की रेस में चीन और रूस के साथ खड़ा होगा? ऐसा इसलिए क्योंकि चांद पर पहुंचना अब सिर्फ एक रेस नहीं रह गई है, बल्कि शक्ति प्रदर्शन और भविष्य में बादशाहत जमाने का नया रास्ता बन चुका है। भारत ने 2023 में मिशन चंद्रयान को कामयाबी से अंजाम दिया था और चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुप पर रोवर को लैंड करवाना वाला दुनिया का पहला देश बना था।
इसीलिए अब एक नया मुकाबला शुरू हो चुका है। नया रेस इस बात को लेकर है कि चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर कौन सा देश सबसे पहले इंसान को भेज पाता है और उसके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार कर पाता है। इस प्रोजेक्ट में सबसे ज्यादा न्यूक्लियर पावर रिएक्टर की जरूरत है, ताकि हर एक सेकंड निर्बाध ऊर्जा की सप्लाई हो सके। इसके अलावा भविष्य की प्लानिंग ये है कि किसी दूसरे ग्रह के लिए इंसानी मिशन शुरू करने के लिए चंद्रमा को बेस कैंप की तरह इस्तेमाल करना और इसके लिए भी न्यूक्लियर रिएक्टर बनाना अत्यंत जरूरी है। जो इस रेस में बाजी मारेगा वो मुकाबले को लीड करेगा।
अमेरिका ने साल 2030 तक चंद्रमा पर 100 किलोवाट का न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने का लक्ष्य रखा है, जबकि चीन-रूस ने मिलकर 2035 तक एक हाफ-मेगावॉट क्षमता वाला रिएक्टर बनाने की योजना का ऐलान किया है। इसीलिए सवाल है कि भारत किस खेमे में खड़ा होगा? अमेरिका के आर्टेमिस समझौते के साथ या रूस-चीन के इंटरनेशनल लूनर रिसर्च स्टेशन (ILRS) के साथ? भारत को हर हाल में एक गुट चुनना ही होगा, अन्यथा वो इस मुकाबले में आ ही नहीं पाएगा। दूसरी तरफ अमेरिकी वैज्ञानिक डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद माथा पीट रहे हैं। ट्रंप प्रशासन ने आने के बाद नासा का बजट 24 प्रतिशत कम करते हुए 25 अरब डॉलर से 19 अरब डॉलर कर दिया। इसके अलावा 20 प्रतिशत कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया। लेकिन ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिका हर हाल में 2030 तक चंद्रमा पर न्यूक्लियर रिएक्टर बनाए।