पिछले नौ वर्षों में ‘सत्य’, ‘ज्ञान’, ‘जानकारी’, ‘वास्तविकता’ और ‘तथ्य’ शब्द धुंधले हो गए हैं! जैसे समुद्र में ज्वार उठता है, इस प्रकार झूठ, अर्धसत्य, विकृतियाँ हमारे कानों में जोर-जोर से बजने लगीं हैं। एक पुरानी कहावत है कि ‘उथला पानी बहुत शोर करता है’ अथवा ‘अधजल गगरी छलकत जाए’। जब कोई प्रचंड तांडव करना शुरू करता है, तो लोग सोचते हैं कि उसके पास कहने-बताने के लिए कुछ नहीं है, तभी तो वह इतना चिल्ला रहा है! और, वास्तव में यह सच था। देश के सभी इलेक्ट्रॉनिक चैनलों का सत्ता की ‘चाटुकारिता’ करने के अलावा और क्या उद्देश्य है..? ऐसी स्थिति में भी, स्वतंत्र समाचार संगठन बहादुरी से अपना काम कर रहे हैं। वे हर दिन ही शासकों के झूठ, अहंकार, विफलता, नफरत और अलोकतांत्रिक व्यवहार को उजागर कर रहे हैं। स्वतंत्र समाचार एजेंसी ‘न्यूज़क्लिक’ ने आज तक यही साबित किया है।
यदि आपने यूट्यूब पर रिपोर्टिंग देखी हो, तो आपने देखा होगा कि अभिसार शर्मा, जो एक बेहद ‘बेबाक’ पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं, के साथ ‘न्यूजक्लिक’ के संपादक प्रबीर पुरकायस्थ और पोर्टल के एचआर प्रमुख अमित चक्रवर्ती के यहां छापा मारा गया और उनके लैपटॉप, मोबाइल तथा इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जब्त कर लिया गया। वहीं, ‘न्यूज़क्लिक’ से जुड़े कुछ पत्रकारों और लेखकों के घरों पर भी छापेमारी की गई। नवंबर 2020 में आर्किटेक्ट अन्वय नाइक की आत्महत्या के मामले में ‘रिपब्लिक’ टीवी के एंकर अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी से पता चला कि भाजपा को लोकतांत्रिक खतरे का सामना करना पड़ रहा है। आत्महत्या से पहले अन्वय नाइक द्वारा लिखे गए नोट में अर्णब गोस्वामी और दो अन्य लोगों के नाम थे। बस हुआ, इस घटना का जिक्र ‘भारतीय पत्रकारिता पर लगाम’, ‘आपातकाल की स्थिति’, ‘राज्य सरकार का प्रतिशोध’, ‘मीडिया की आजादी पर अंकुश लगाने की कोशिश’ जैसे कई तरीकों से किया गया। औरों की तो बात ही छोड़िए, माननीय केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को भी पत्रकारिता खतरे में नजर आने लगी थीं। मोदी सरकार के हर मंत्री को इंदिरा गांधी की इमरजेंसी याद आने लगी थी। दरअसल, कल की घटना से पता चलता है कि इस सरकार को स्वतंत्र पत्रकारिता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मान्यता कितनी पसंद है!
मूलत: ‘ऑटिव जर्नलिज्म’ आज की वास्तविकता है, जो इस बात का ध्यान रखती है कि किसी भी प्रकार से सत्ता, शासक और व्यवस्था को ठेस न पहुंचे, विवेक और विचारों की बजाय भावनाओं की अपील की जाती है। पिछले छह वर्षों में भाजपा ने स्वतंत्र पत्रकारिता की हत्या कर दी है। आज स्थिति यह है कि देश का कोई भी बड़ा मीडिया समूह स्वतंत्र नहीं रह गया है। यदि वे सरकार के पक्ष में नहीं होते, तो उनके विज्ञापन बंद कर दिये जाते हैं। और विज्ञापन बंद का मतलब समाचार चैनलों या अखबारों का कारोबार बंद होना है। इसीलिए पत्रकारिता जगत में इस बात की लड़ाई चल रही है कि मोदी सरकार का अधिक गुणगान कौन करता है! (उर्दू शायरी में राजा-महाराजाओं की शान में जो कविताएं लिखी जाती थीं, उन्हें ‘कसीदा’ कहा जाता था।)
आप रात के नौ बजे कोई भी बड़ा न्यूज चैनल खोलिए, आपको एक बड़ा पत्रकार सरकार की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए मिल जाएगा। अगर आप गलती से रवीश कुमार, अभिसार या ‘न्यूज़क्लिक’ जैसे सरकार के आलोचक बन गए, तो आपका जीना हराम हो जाएगा।
भारत के संविधान में निहित मौलिक अधिकारों में, अनुच्छेद 19 (1-ए) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। जो अनैतिक है, उसके विरुद्ध बोलना और लिखना इसी स्वतंत्रता के अंतर्गत आता है। लेकिन जिस तरह से देश में दमनशाही चल रही है और सरकार उसे गुप्त समर्थन दे रही है, उससे साफ है कि अभिव्यक्ति की आजादी को कमजोर किया जा रहा है। रूस, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश की तरह भारत में भी सरकार के खिलाफ बोलने वालों की आवाज दबाने की साजिशें हो रही हैं।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों में से 161वें स्थान पर है। 2015 के बाद से यह गिरावट बहुत तेजी से हुई है। भारत ‘इंटरनेट शटडाउन’ की राजधानी बन गया है। दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों में इंटरनेट शटडाउन के मामले में भारत पहले स्थान पर है। धीरे-धीरे हममें प्रतिस्पर्धी विचारधाराओं को चुनौती देने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘लोकतंत्र की जननी’ (मदर ऑफ डेमोक्रेसी) शब्द का प्रयोग किस मुंह से करते हैं?
मौजूदा सरकार के दौरान स्वतंत्र रूप से काम करने वाले और केंद्र या राज्य की बीजेपी सरकार की आलोचना करने वाले कई पत्रकारों को फंसाने की कोशिश की गई है। कुछ को जेल भेज दिया गया है, कुछ पर अदालत में मामला दर्ज किया गया है। कुछ को घटनाओं की रिपोर्टिंग करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है। उनमें से सभी पत्रकार निष्पक्षता से पत्रकारिता कर रहे थे। फिर भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया या जेल की हवा खिलाई गयी। हालांकि इनमें से कुछ पत्रकारों ने भी गैरकानूनी-कृत्य भी किया था। फिर भी देखा जा रहा है कि केंद्र की भाजपा सरकार के दौरान मीडिया की स्वतंत्रता पर सबसे ज्यादा खतरा मंडराया हुआ है। अधिकांश मीडिया या तो ‘लड़ाकू’ हो गया है या अन्यथा समझौता कर लिया गया है। चूंकि केंद्र सरकार मीडिया के खिलाफ बेहद सख्त और असहिष्णु नीति लागू कर रही है, इसलिए कई मीडिया संगठनों ने केंद्र सरकार के सामने झुकना और उसकी विरुदावली गाना शुरू कर दिया है।
कल समाचार एजेंसी ‘न्यूज़क्लिक’ के साथ जो हुआ, उसके अनुसार पूरे मीडिया घरानों पर बिना उचित प्रक्रिया के छापेमारी करना और पत्रकारों के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जब्त करना लोकतंत्र की अखंडता के लिए एक बुरा संकेत है। कुल मिलाकर, स्वतंत्र पत्रकारिता के लिए वर्तमान माहौल बेहद जहरीला और दमघोंटू हो गया है। अगर ऐसा ही चलता रहा, तो मीडिया की आजादी की वैश्विक रैंकिंग में भारत और नीचे गिर सकता है। यदि हम नहीं चाहते कि ऐसा हो, तो लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को अपनी कमर कस लेनी चाहिए। डिजिटल दुनिया ने नए अवसर प्रदान किए हैं।
लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ जनता के सहयोग से ही दोबारा खड़ा हो सकता है। अगर यह सच भी है, तो आज वे लोग कहां हैं, जो प्रेस की आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी, आपातकाल जैसी स्थिति पर बात करते हैं और प्रतिक्रिया देते हैं? यदि आप अब भी इस खतरे की घंटी को नहीं सुन सकते, तो या तो आप बहरे हैं, या फिर ये कहना होगा कि आप बहरे होने का नाटक करके बैठ गए हो….!
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