महाराष्ट्र में कभी न देखी गई और अकल्पनीय राजनीति इस समय सभी देखने को मजबूर है। अब यह कहना सही होगा कि प्रगतिशील राज्य महाराष्ट्र की राजनीति की एक संस्कृति होती थी, क्योंकि अब राज्य की सभ्यता, संस्कृति और नैतिकता राजनीति के माध्यम से मलिन होने लगी है। प्रदेश की जनता आश्चर्यचकित होकर खुली आंखों से सब कुछ देख रही है। इसलिए, जो कोई भी यह सोचता है कि हम कुछ भी करेंगे और मतदाता चुनाव के दौरान यह सब भूल जाएंगे, हमें कहना होगा कि वे मूर्खों के स्वर्ग में घूम रहे हैं। जो लोग एक-दूसरे को ‘कलंक’ कहकर आलोचना करते रहे हैं, उन्हें अब इस बात का ध्यान रखने की जरूरत है कि महाराष्ट्र पर कोई ‘कलंक’ न लगने पाए! ऐसे में राजनीति में उन्हीं लोगों की भीड़ दिख रही है, जिनके ऊपर ‘कलंक’ लगा है। अब बचा-खुचा ‘कलंक’ नाक से प्याज छीलने वाले हकलाने वाले किरीट सोमैया सोमाया ने लगा लिया है।
प्रदेश की राजनीति में कुछ भी हो जाए, इससे भाजपा पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन किसी भी सूरत में उनका रुख साफ है कि केंद्र की सत्ता उनके हाथ से नहीं जानी चाहिए। केंद्र की सत्ता चली गयी तो वे ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स के जरिये विरोधियों पर हमला नहीं कर पाएंगे। ये एजेंसियां आज बीजेपी की प्रमुख हथियार बन गई हैं। इसलिए लगता है कि बीजेपी ने यह रणनीति बनाई है कि राज्य की अराजकता लोकसभा के लिए फायदेमंद होगी। आज पूरे देश में महाराष्ट्र की राजनीति को ‘हास्यास्पद’ राजनीति समझा जा रहा है। सरकार ने सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में पार्टियों को तोड़कर उन सभी लोगों को अपने साथ लेने की शुरुआत कर दी है, जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, लेकिन सरकार में कोई गंभीर नहीं है। पूरा देश देख रहा है कि कौन किससे क्या कहता है और क्या निर्णय लेता है! महाराष्ट्र के नेताओं में बोलने के मामले में मानो होड़-सी लग गई है। एक-दूसरे से बहुत निचले स्तर तक बात होने से सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्षी दलों की नैतिकता और ‘मूल्य’ भी कम हो गए हैं। आने वाले सभी चुनावों में किसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी, यह तो आने वाले एक साल में पता चल ही जाएगा। बीजेपी नेता कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं। इसलिए उन्होंने काम करना शुरू कर दिया है।
दरअसल, एकनाथ शिंदे को अपने साथ लेने से कोई फायदा नहीं होगा, यह समझते हुए आज बीजेपी को लगता है कि अजित पवार को साथ लेकर उसने संतुलन बना लिया है। भविष्य में दादा (अजित पवार) को मुख्यमंत्री पद देने से भी भाजपा नहीं हिचकेगी। नासिक में ‘शासन आपके द्वार’ कार्यक्रम के मौके पर दादा की जननेता और अच्छे प्रशासक की छवि का एहसास नासिक के लोगों को भी हुआ। अगर कोई कहे कि मैं ये फैसला लेता हूं, वो फैसला महाराष्ट्र की भलाई के लिए लेता हूं, तो अब कोई यकीन नहीं करेगा। भले ही शिवसेना को तोड़ने के बाद एक साल बीत गया हो, भले ही फड़णवीस ने एनसीपी को तोड़ दिया हो, लेकिन यह तय है कि आने वाले दिनों में इसके अलग-अलग नतीजे होंगे। यह बात अब छुपी हुई नहीं है कि इस सबके पीछे किसकी साजिश है! अब यह साफ हो गया है कि महाराष्ट्र में विपक्षी दलों को खत्म कर बीजेपी किस दिशा में जाना चाहती है! इस वक्त उनके निशाने पर विधानसभा नहीं, बल्कि लोकसभा है। तो महाराष्ट्र की राजनीति में एकनाथ शिंदे या अजित पवार में क्या अंतर है? यदि कोई तीसरा भी सामने आ जाए, तो शायद ज्यादा आश्चर्यचकित होने की कोई वजह नहीं है।
आजकल जो पार्टी छोड़ता है, वह पार्टी क्यों छोड़ता है? ये पूछने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि सभी ने पार्टी छोड़ने के जो कारण बताए हैं, वे कभी भी ठोस नहीं होते। इसके मुख्य कारण दिल्ली में जांच एजेंसियों के पास सुरक्षित होते हैं। उन्हीं की बुनियाद पर महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में सरकारें चल रही हैं। इन सब समस्याओं से जनता या देश को क्या फायदा? इस बारे में कोई भी सोचने के लिए तैयार नहीं है।
छत्रपति शिवाजी महाराज, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, महात्मा फुले, सावित्रीबाई फुले पर तत्कालीन राज्यपाल ने अनर्गल भाषण दिया, तो पूरे राज्य में गुस्से की लहर दौड़ गई थी। उस समय आज जो लोग सत्ता में आये, वे सभी विपक्षी दल में थे। अब वे सभी लोग उक्त राज्यपाल को संरक्षण देने वालों की कतार में शामिल हो गये हैं। अब यहां किस विचारधारा को सही समझा जाए?
अब देश-प्रदेश की जनता पर, मतदाताओं पर और नेताओं पर कोई भरोसा करने को तैयार नहीं है। कोई विधायक, सांसद कहीं से और किसी भी पार्टी से चुना जाता है, तो उसे अपनी ओर आकर्षित करने के लिए एक नया तरीका लागू किया गया है। इसका सारा श्रेय निश्चित रूप से भाजपा को दिया जाना चाहिए। देश और प्रदेश में लगभग साठ-सत्तर साल तक सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस ने कभी जांच एजेंसियों का महत्व नहीं समझा। अब कांग्रेस सहित सभी दलों को एहसास हुआ कि वह तंत्र कितना महत्वपूर्ण था, और इसका उपयोग केवल और केवल विपक्षी दल के खिलाफ ही किया जाना था, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और इस बीच कई दलों ने सत्ता खो दी। तोड़फोड़ की राजनीति पर अधिक जोर देने के कारण अब सभी सिद्धांत, नीतियां, आचार-विचार, लोकतांत्रिक प्रथाएं, नैतिकताएं आदि सब नष्ट हो रही हैं। क्योंकि हर कोई सत्ता की कुर्सी पाना चाहता है। इसका आनंद लेकर ही राजनीति करना अब सबको पसंद है। इसके लिए देश और प्रदेश में एक नई राजनीतिक पद्धति स्थापित की गई है कि जो भी साथ आएगा उसे अपने साथ ले लिया जाएगा और अपना काम होने के बाद उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. महाराष्ट्र में विधायकों का भाग जाना, सत्ता के लिए खरीद-फरोख्त (हॉर्स ट्रेडिंग) करना, पार्टी और चुनाव चिह्न छीन लेना… राजनीतिक लूट नहीं तो और क्या कहा जाएगा? यह पहली बार है कि राज्य को दो-दो उपमुख्यमंत्री मिले हैं. देवेन्द्र फड़णवीस ने अपने ही मंत्रिमंडल में किसी उपमुख्यमंत्री को जगह नहीं दी, ये इतिहास सबके सामने है। लेकिन अगर किसी और के मंत्रिमंडल में जगह बनती है तो बीजेपी को इसकी चिंता करने की क्या जरूरत है? महाराष्ट्र में हर जगह एनसीपी कार्यकर्ता खुश हैं। बीजेपी यही तो चाहती थी। कार्यकर्ता जुलूस और गुलाल उड़ाकर मौज-मस्ती कर रहे हैं। राजनीति इतनी कठोर मानसिकता में चली गई है कि चुनाव के समय मतदाता क्या सोचते हैं, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन मतदाता यह सब भूल जाएंगे या लक्ष्य को ध्यान में रखकर समझदारी दिखाएंगे! ये आने वाला समय ही बताएगा। तब तक के लिए आगे-आगे देखिये होता है क्या?
-प्रकाश पोहरे
(सम्पादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
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