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विदर्भ, अभी नहीं तो कभी नहीं..!

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प्रकाश पोहरे, (संपादक- दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

भाऊ जाम्बुवंतराव धोटे, श्रीहरि अणे, ब्रजलालजी बियानी और कई विदर्भवादी नेताओं द्वारा खड़े किए गए स्वतंत्र विदर्भ के आंदोलन में अब विदर्भ राज्य आंदोलन समिति के नेतृत्व में स्वतंत्र विदर्भ राज्य के लिए विदर्भवादी जनता ने आंदोलन शुरू कर दिया है। ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ के दृढ़ संकल्प के साथ विदर्भ का आंदोलन एक नये रूप में, सामूहिक नेतृत्व में हो रहा है। हालांकि यह इस आंदोलन का अच्छा पक्ष है, फिर भी अलग विदर्भ का मुद्दा, खासकर विदर्भ के जनप्रतिनिधि, युवा और सामान्य तौर पर विदर्भ के लोगों के गले से नीचे अभी भी पूरी तरह से उतरा नहीं हैं। कुछ लोगों के लिए, खासकर राजनेताओं के लिए यह ‘गले की हड्डी’ बन गया है।

इस संबंध में लगातार सामने आ रहे आंकड़े चौंकाने वाले और चिंताजनक हैं। विदर्भ में कृषि की स्थिति अलग से बताने की जरूरत ही नहीं है। यहां किसानों की आत्महत्या का सवाल अब राजनीतिक दलों की नजर में ‘रोज मरे, उसके लिए कौन रोये’ जैसा बन गया है। विदर्भ में प्रतिदिन 14-15 किसान आत्महत्या करते हैं। क्या विदर्भ में किसानों की मौत इतनी सस्ती हो गई है? सिंचाई, कृषि, बिजली, औद्योगीकरण, शिक्षा, रोजगार जैसे कई क्षेत्रों में पिछड़ापन जारी है। यहां रोजगार के अभाव है, इसीलिए यहां के बेरोजगार रोजगार की तलाश में विदेश, हैदराबाद, बेंगलुरु, पुणे-मुंबई की ओर पलायन कर रहे हैं। ऐसी तस्वीरें बन गयी है। बच्चों के चले जाने के बाद कुछ दिनों बाद माता-पिता भी चले जाते हैं। इस प्रकार विदर्भ में हर 20 घरों के पीछे एक घर पर ताला लगा हुआ दिखता है। 1960 में जनता को भ्रमित करके विदर्भ को महाराष्ट्र में मिला लिया गया और दुर्भाग्य से वह भ्रम आज तक बना हुआ है। जहां देश और दुनिया की आबादी बढ़ रही है, वहीं विदर्भ की आबादी कम हो रही है, इसलिए 1960 में 68 विधायकों की संख्या वाले विदर्भ में आज 62 विधायक ही चुने जाते हैं और 12 में से एक सांसद घटकर 11 हो गया है। फिर भी हम न अपना मुंह खोलते हैं, न आँखें। अत: विदर्भ को कब तक इन सवालों का बोझ ढोते रहना चाहिए या फिर रास्ता बदल लेना चाहिए? अब समय आ गया है कि निर्वाचित प्रतिनिधि इस पर निर्णय लें।

अनुभव ने यह साबित कर दिया है कि विदर्भ के प्राकृतिक संसाधनों और यहां के लोगों की रचनात्मक संस्कृति के साथ न्याय करने वाली प्रणाली मुंबई से स्थापित नहीं की जा सकती। नागपुर-मुंबई की दूरी 950 किमी है, जबकि गढ़चिरौली से मुंबई 1350 किमी दूर है। हाँ, हम कहते हैं कि दिल्ली दूर है, लेकिन नागपुर-दिल्ली की दूरी सिर्फ 900 किमी है। देश के किसी भी राज्य की राजधानी इतनी दूर नहीं है। यदि विदर्भ के हितों का पोषण करना है, तो विदर्भ की परंपरा के अनुरूप स्थानीय व्यवस्था स्थापित करना ही समय की मांग है।

विदर्भ भारत का एकमात्र ऐसा प्रांत है, जिसके पास 1960 तक अपनी राजधानी थी और फिर उसने इसे खो दिया। संयुक्त महाराष्ट्र के गठन के बाद विदर्भ को महाराष्ट्र में शामिल किया गया। इसके बाद यह निर्णय लिया गया कि लगातार छह सप्ताह का शीतकालीन सत्र राज्य की उपराजधानी नागपुर में आयोजित किया जाएगा, जहां विदर्भ के प्रमुख मुद्दे और उनका समाधान होगा। आशा थी कि इससे विदर्भ के लोगों को न्याय और सम्मान मिलेगा, लेकिन 1960 के बाद इन सत्रों की अवधि लगातार छोटी होती गयी। 2 साल 2020 और 2021 में कोरोना का बहाना बनाकर नागपुर के शीतसत्र को टाल दिया गया। 2022 में केवल दस दिवसीय अधिवेशन नाममात्र का हुआ। अब 2023 का विधानमंडल अधिवेशन (शीतसत्र) होने वाला है और इसमें काफी खर्च हो रहा है। 7 दिसम्बर 2023 से 20 दिसम्बर 2023 तक होनेवाले अधिवेशन के कुल दिनों की संख्या भले ही 14 दिन (अवकाश सहित) हो, लेकिन वास्तविक कार्य दिवस 10 दिन ही हैं। क्योंकि 4 दिन- शनिवार एवं रविवार अवकाश के होंगे। अब कहां 10 दिन का अधिवेशन और कहां छह सप्ताह (छुट्टियों को छोड़कर) का अधिवेशन, जैसा कि नागपुर समझौते में सहमति थी। इतना अंतर??? अर्थात शुरू से ही महाराष्ट्र की सरकार और विदर्भ के जनप्रतिनिधियों ने इस समझौते को गंभीरता से नहीं लिया।

नागपुर के शीतकालीन अधिवेशन में भ्रम पैदा करना, विदर्भ के मुद्दों और समस्याओं को न उठाना और विदर्भ के साथ हो रहे अन्याय के बारे में सदन के बाहर चिल्लाना…. विदर्भ के विधायकों की इस नीति से विदर्भ की जनता कई वर्षों से परिचित है। इस वर्ष के शीतकालीन सत्र में स्वतंत्र विदर्भ राज्य की मांग को लेकर विदर्भ राज्य आंदोलन समिति का आंदोलन पिछले दो वर्षों से जोरदार तरीके से जारी है, यह विदर्भ के जनप्रतिनिधियों के लिए एक बड़ा हथियार है। लेकिन विडंबना यह है कि इस अधिवेशन से ठीक पहले, विदर्भ के बाहर के जनप्रतिनिधि मराठा आरक्षण के लिए ताल ठोक रहे हैं। कुछ धनगर आरक्षण का राग अलाप रहे हैं, जबकि छगन भुजबल जैसे कुछ नेता मराठा विरुद्ध ओबीसी का तर्क दे रहे हैं। ऐसे विषयों पर नागपुर में होने वाले इस शीतकालीन सत्र में नाटकीय चर्चा कर बाहर के जनप्रतिनिधि, विदर्भ के जनप्रतिनिधियों की हवा निकालने की तैयारी में दिख रहे हैं। नागपुर के हर अधिवेशन में विदर्भ के जनप्रतिनिधि विदर्भ के बाहर के नेताओं के इस तरह के खेल के साथ कदमताल करते नजर आते हैं। ऐसा लगता है, मानो पार्टी की नीति से खिलवाड़ कर सत्र का समय बर्बाद करना ही उनका एजेंडा है। विदर्भ के अलावा अन्य क्षेत्रों के तारांकित प्रश्न, लक्षवेधी और अन्य हथियारों पर अधिक प्रभुत्व है। यदि विदर्भ के इस शीतसत्र में मुंबई और पश्चिम महाराष्ट्र के जनप्रतिनिधि अपने मुद्दे उठाते हैं, तो उनकी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन विदर्भ के विधायक मुंबई के सत्र में क्यों नहीं बोलते हैं? यही पैटर्न नागपुर के शीतकालीन सत्र में भी देखा जा सकता है। अगर विधायक नहीं बोलेंगे, तो विदर्भ की समस्याएं कैसे हल होंगी? इसका मतलब है कि विदर्भ के विधायक निश्चित रूप से जिम्मेदार हैं। कहा जाता है कि कई विधायकों के पास उनकी पार्टी का आदेश होता है। संभवतः विदर्भ के विधायकों को लगता होगा कि जब पार्टी के वरिष्ठ विधायक बोल रहे हैं, तो उनके सामने हम कैसे बोल सकते हैं! ये सवाल उठता होगा। महाराष्ट्र का पहला सत्र 27 नवंबर 1961 को आयोजित किया गया था। हालाँकि, यह एक त्रासदी है कि जिस नागपुर समझौते ने विदर्भ को शामिल करके संयुक्त महाराष्ट्र का निर्माण किया, वह आज विदर्भ के लिए अप्रभावी हो गया है। इसका कारण विदर्भ के जन-प्रतिनिधियों की अज्ञानता होनी चाहिए, या शेष महाराष्ट्र के जन-प्रतिनिधियों के सामने दुम दबाने का ढंग? इसे समझने का कोई तरीका नहीं है।

‘रिमोट कंट्रोल’ शब्द हालिया है, लेकिन ये पुरानी राजनीतिक व्यवस्था है। विदर्भ ने लगातार 11 वर्षों तक महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद संभाला, फिर भी यदि विदर्भ का विकास नहीं हुआ है और बैकलॉग बढ़ता जा रहा है, तो विदर्भ के लोगों को गंभीर आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है। 2014 से 2019 तक और अब 2022 से भी हमने विदर्भ के मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री और मंत्रियों के कार्यकाल का अनुभव किया है, फिर भी विदर्भ को कुछ नहीं मिला। कारण यह है कि मुख्यमंत्री भले ही विदर्भ के बेटे हैं, लेकिन उनकी पार्टी की नीति विदर्भ के लिए अनुकूल नहीं साबित हुई है। इसलिए भले ही लोग बदलते हैं, रवैया वही रहता है और प्रवृत्ति व्यक्तिगत विकास हासिल करने की होती है। विदर्भ से जो भी महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनता है, उसका ‘रिमोट कंट्रोल’ ‘दिल्लीकर’, ‘मुंबईकर’, ‘बारामतीकर’ के हाथ में होता है! लोग इसे पहचान नहीं सके और इसलिए हम अपने नेताओं पर अंकुश लगाने में विफल रहे। यानी, अगर हमें नहीं पता कि 1960 के बाद से हमने क्या खोया है, तो इसका मतलब यह है कि हमारी असंवेदनशील बुद्धि की कमी के कारण भगवान भी विदर्भ के लोगों को नहीं बचा सकते!

भारत में हर दस में से कम से कम एक इमारत विदर्भ में पाए जाने वाले बॉक्साइट का उपयोग करके बनाई गई है। यहां की खदानों से निकलने वाले मैंगनीज, कोयला, लौह अयस्क आदि के आधार पर पूरे भारत को ऊर्जा आदि की आपूर्ति की जाती है। कच्चे माल की आपूर्ति की जाती है, लेकिन ऐसे सभी साधनों से संपन्न विदर्भ में भूमिपुत्र आए दिन आत्महत्या कर रहे हैं। दरअसल, अलग विदर्भ राज्य की मांग का मूल कारण यही है। विदर्भ का विकास पिछड़ रहा है, खासकर सिंचाई और नौकरियों में। राज्य में प्रमुख एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ 405 हैं। उनमें से पचास प्रतिशत यानी दस जिलों के पुणे और नासिक डिवीजन में 202 परियोजनाएं हैं, जबकि ग्यारह जिलों के विदर्भ में पच्चीस प्रतिशत यानी केवल 101 परियोजनाएं अप्रभावी हैं। क्योंकि इसका पानी किसानों के बांधों तक नहीं पहुंचता है। दिलचस्प बात यह है कि पुणे डिवीजन के सातारा जिले में केवल 45 परियोजनाएं हैं, जबकि पांच जिलों यानी पश्चिम विदर्भ के अमरावती डिवीजन में केवल 40 अधूरी परियोजनाएं हैं। यह बड़ा अंतर बताता है कि जानबूझकर विदर्भ की अनदेखी करने की नीति वर्षों से दोहराई जाती रही है।

विदर्भ के साथ पक्षपात बहुत पहले से हो रहा है। 63 साल पहले विकास की उम्मीद में विदर्भ महाराष्ट्र में शामिल हुआ था, लेकिन वह आशा विफल हो गई है। भाषा के नाम पर उजास की उम्मीद में संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल हुआ विदर्भ पिछले 63 वर्षों में उजाड़ हो गया है। 11 जिलों का विदर्भ बंजर गांवों का क्षेत्र बन गया है। महाराष्ट्र के 2,703 बंजर गांवों में से 85 प्रतिशत यानी 2,305 बंजर गांव अकेले विदर्भ में हैं। जबकि पश्चिम और उत्तर महाराष्ट्र के 10 जिलों में बंजर गांवों की संख्या सिर्फ 135 है। हम कब तक यह सत्यानाश सहते रहेंगे? महाराष्ट्र में विलय के समय विदर्भ में कपास मुख्य फसल थी। यहां 12 कपड़ा मिलें थीं, जो अब बंद हो गई हैं।

राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण 25 से अधिक सूत मिलें बंद हो गई हैं। केरल में हर 100 किमी पर उड़ानें उतर रही हैं और विदर्भ में नागपुर के अलावा कहीं भी उड़ानें नहीं उतर रही हैं। विदर्भवासियों को अपने क्षेत्र के जन प्रतिनिधियों से पूछने की आदत अभी तक विकसित नहीं हुई है। ऐसी स्थिति में किसे दोषी ठहराया जाना चाहिए? नज़रिया? ईसा पूर्व काल में कोई न कोई राजा इस क्षेत्र को अपनी ख़ुशी के लिए किसी न किसी को उपहार में देता रहा। बाद में राजनीतिक स्वार्थ की खातिर अन्याय के खिलाफ लड़ने की आदत छूट गई। यह सब विदर्भवासी जानते हैं, लेकिन एक तो इसके खिलाफ आवाज उठाने की धमक दिखानी चाहिए और दूसरा विदर्भ के जनप्रतिनिधियों को भी इस बारे में आवाज उठाने के लिए मजबूर करना चाहिए।

लगातार रोने-चिल्लाने और यह कहते रहने की भी कुछ सीमाएँ होती हैं कि अन्याय हुआ है। तिसपर भी वही-वही बेकार चर्चा! इसके आगे की कृति जनता कब करेगी? पहले के समय में मुगलों, पेशवाओं और जागीरदारों को किसी की जमींदारी के रूप में कार्य करने का आशीर्वाद प्राप्त था। बाद में अंग्रेजों ने सचमुच लूटपाट की, तो भी उनके मुँह से ‘ब्र’ नहीं निकला और अब वे अन्याय के बावजूद शांत रहते हैं। यह कब तक चलेगा? लोगों में प्रश्न करने की मनोवृत्ति कब घर करेगी? इसलिए विदर्भ की जनता को अपने प्रतिनिधियों से आग्रह करना चाहिए कि आगामी शीतकालीन सत्र में केवल विदर्भ के मुद्दों पर ही चर्चा होनी चाहिए। यदि इस सत्र में विदर्भ से इतर कोई अन्य प्रश्न उठाया जाता है, तो उसे उठाने वाले विधायक और उन प्रश्नों को उठाने की अनुमति देने वाले विदर्भ के विधायकों की ‘गांवबंदी’ यानी ‘नो एंट्री’ होनी चाहिए। विदर्भ के हर गांव के ग्रामीणों को गांवबंदी लिखी तख्तियां लेकर पालकमंत्री, विधायक, सांसद और सभी जन प्रतिनिधियों का विरोध करना चाहिए। मई महीने में नासिक के मुंजवाड गांव के प्याज उत्पादक किसानों और ग्रामीणों ने एक प्रयोग किया था जिसमें गांव, तालुका का कोई भी मंत्री, सांसद, विधायक जब गांव में आता था, तो वे उस पर प्याज फेंककर हंगामा और ‘ग्राम बंदी’ करते थे। तब शासन स्तर पर इस पर विचार किया गया। कहने का तात्पर्य यह कि जिससे कुछ भी हासिल नहीं होना है, उस मराठा आरक्षण के लिए अपनी ऊर्जा बर्बाद करना चाहिए या ‘जीना यहां मरना यहां, विदर्भ के सिवा जाना कहां’ कहना चाहिए! ऐसी स्थिति में जीवन और मृत्यु के सवाल को नजरअंदाज करना एक शुतुरमुर्ग रवैया है। कल ही छगन भुजबल ने अपने भाषण में कहा, ‘क्या बात है..क्या आपके सातबारा पर महाराष्ट्र लिखा गया है?’लेकिन विदर्भ के प्रतिनिधियों को ‘गांवबंदी’ करके विदर्भ के लोगों को बताना चाहिए कि ‘हां, विदर्भ है’ हमारे सातबारा पर!’

1960 तक स्वतंत्र रहने वाला और सोने की किनारपट्टी से लाभान्वित विदर्भ, आज खंडित और भग्न क्यों हो गया? ऐसे सवालों से अपने जनप्रतिनिधियों को घेरना चाहिए। क्या आप इसके लिए तैयार हैं? मैं तो तैयार हूं, मैं सवाल पूछने जा रहा हूं। बताइए कि कौन-कौन इसका समर्थन करेगा? जो लोग समर्थन करना चाहते हैं, वे नीचे दिए गए मेरे व्हाट्सएप नंबर पर अपना नाम एवं ग्राम भेजें, और नागपुर में हो रहे शीतसत्र के दौरान विदर्भ आंदोलन समिति कार्यालय में उपस्थित रहें, हम प्रतीक्षारत हैं।

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लेखक : प्रकाश पोहरे,
(संपादक- दैनिक देशोन्नति, दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com

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