पिछले 70 वर्षों में जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ी है, वैसे-वैसे कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या भी बढ़ी है। आज 140 करोड़ की कुल आबादी का कम से कम 50 प्रतिशत यानि लगभग 70 करोड़ लोग कृषि पर निर्भर हैं। यही 70 करोड़ लोग खेती के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं। इन्हें इससे बाहर निकालना वास्तव में देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, जिसके लिए इस क्षेत्र में कृषि उत्पादों की मूल्य श्रृंखला बनाना ही एकमात्र विकल्प है।
इस गंभीर स्थिति में केवल एक मजबूत मूल्य श्रृंखला ही हमें बचाएगी। प्रति माह 100 करोड़ रुपये के कारोबार के साथ ‘अमूल’ एक सफल वैल्यू चेन मॉडल माना जाता है। यदि हर राज्य में ऐसे मॉडल स्थापित किए जाएं और अलग-अलग कृषि वस्तुओं का प्रसंस्करण किया जाए, तो कृषि की वर्तमान तस्वीर निश्चित रूप से बदल जाएगी। जैसे कोंकण, बिहार में आम और लीची के गूदे की पैकिंग, केरल और अन्य तटीय क्षेत्रों में नारियल पर आधारित उद्योग, जहां नारियल का उत्पादन बड़ा है, तेलंगाना और अन्य राज्यों में धान आधारित उद्योग जहां चावल मुख्य फसल है, नाशिक इलाके में अंगूर और टमाटर पर आधारित वाइनरीज व लुगदी उद्योग, पश्चिम महाराष्ट्र में गन्ना आधारित इथेनॉल उद्योग, विदर्भ में कपास, अरहर, ज्वार, बाजरा आधारित उद्योग जैसे कुछ उदाहरण हैं। इस प्रकार केवल उत्पादन ही नहीं, बल्कि मूल्य संवर्धन के अलावा कोई विकल्प नहीं
आइए कठिनाई को समझें
कृषि हमेशा संकट में क्यों रहती है, जबकि बोए गए एक बीज में सैकड़ों, हजारों बीज पैदा करने की क्षमता होती है? ऐसा करने वाला किसान हमेशा गरीबी में क्यों रहता है? वह चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की तरह सिस्टम से लड़ रहा है। मैंने अब तक कई लेखों में इस चक्रव्यूह को समझाने की कोशिश की है। जो किसान 1970 तक बैंक में अपनी रकम जमा रखता था, लेकिन उसके बाद वही किसान बैंक से कर्ज लेने लगा। आखिर क्यों? यह चक्रव्यूह क्या है? इसके कारण क्या हैं? इसकी वैश्विक पृष्ठभूमि क्या है? कार्ल मार्क्स से लेकर महात्मा फुले, गांधी, आंबेडकर, शरद जोशी तक कई विचारकों ने इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने के अलग-अलग रास्ते बताए हैं और मैं भी पिछले 30 वर्षों से प्रयास कर रहा हूं।
किसानों के शोषण और शोषण के लिए जितनी राजनीतिक और बाह्य व्यवस्था जिम्मेदार है, आंतरिक कारण भी उतने ही बड़े हैं, अर्थात् किसानों की अपनी मानसिकता, अज्ञानता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण की कमी और सबसे महत्वपूर्ण, आस्तिकता. इस शोषण को समझना और फिर समाधान की योजना बनाना अधिक स्वाभाविक है। अगर सही तकनीक उपलब्ध हो और कृषि उपज को सही कीमत मिले, तो किसान खुद को और देश को भुखमरी के संकट से बाहर निकाल सकता है।
अभी तक हमने केवल उत्पादन पर ही ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन ऐसा करते समय यह समझना जरूरी है कि हम कैसे पोषण मूल्य बर्बाद कर रहे हैं और खुद को और अपने देशवासियों को बीमार कर रहे हैं! बाज़ार में जाने के बाद उत्पाद का क्या होता है? इससे किसान को कितनी आय होती है? चूंकि इन पहलुओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया, इसलिए सिस्टम किसान से कटा हुआ रहा। व्यवस्था बिचौलियों के हाथों में चली गई, जिनका वास्तविक कृषि से कोई सीधा संबंध नहीं रहा। जैसे पेड़ छोटा रहे और कोपलें बढ़ती रहें, वैसे ही कृषि नाम का पेड़ बना रहा। इससे किसानों और उपभोक्ताओं दोनों का शोषण जारी है। इससे भारत और इंडिया के बीच दूरियां बढ़ गईं।
चक्रव्यूह को तोड़ने की चुनौती
1950 के दशक में देश की जनसंख्या 42 करोड़ थी। फिर 1965-70 के दशक में हमने संकर किस्मों और रासायनिक खेती को अपनाकर लोगों के पेट की समस्या तो हल कर दी, लेकिन स्वास्थ्य को दांव पर लगा दिया। उस समय 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी। यानी करीब 30 करोड़ आबादी खेती पर निर्भर थी। बाद में जनसंख्या बढ़ती गई। इसी प्रकार कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या में भी वृद्धि हुई। वर्तमान में 140 करोड़ आबादी में से आधी यानी 70 करोड़ लोग आज भी कृषि पर निर्भर हैं। इसका मतलब यह है कि कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ी है। 1950 के दशक में यह 30 करोड़ लोगों की समस्या थी। अब यह 70 करोड़ लोग हो गए हैं। इस आंकड़े को 80 करोड़ तक जाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
इस दौरान कृषि और स्वास्थ्य क्षेत्र में बने भंवर में फंसे लोगों की संख्या घटने के बजाय बढ़ी है। उन्हें इस चक्रव्यूह से बाहर निकालना हमारी सबसे बड़ी चुनौती होगी।
लीकेज पाइपलाइन..
हम कृषि का खर्च क्यों नहीं उठा सकते, क्योंकि कृषि की वर्तमान स्थिति एक लीकेज पाइपलाइन जैसी हो गई है। कृषि तभी सस्ती होगी, जब ये सारी लीकेज दूर हो जाएंगी। ये लीकेज यानि लाभ का रिसाव कहां-कहां होता है?
बीज, खाद और दवाइयों से लेकर फसल कटाई तक भारी रिसाव हो रहा है। सबसे बड़ा रिसाव कृषि उपज मंडी समिति से सीधे रसोई तक जाने वाली पाइप लाइन में है। कटाई से सीधे अंतिम उपयोगकर्ता या प्रोसेसर तक मूल्य श्रृंखला का स्वामित्व किसान के पास नहीं है। यहीं पर बड़ा रिसाव है। दरअसल ये कोई लीक नहीं बल्कि एक बड़ा घोटाला है। अब एक आदमी कितना लीकेज निकालेगा? इसलिए हमें एक साथ आना होगा।
फिलहाल पाइपलाइन का आधा हिस्सा हमारे कब्जे में है। इसलिए रोपण से लेकर कटाई तक, बड़े कॉरपोरेट्स के साथ अभी भी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। लेकिन यहां हम अकेले लड़ रहे हैं। यानी, व्यक्तिगत बीज उर्वरकों की खरीद. यहाँ पहला रिसाव होता है। नकदी में भी यह महँगा होता है। कई साहूकारों द्वारा भी हम डुबा दिए गए हैं। कई किसानों की कंपनियों के अनुभव से हम जानते हैं कि बीज, खाद और दवा की दुकानें सामूहिक रूप से किसानों के स्वामित्व में होने पर भी कितना पैसा बचाया जाता है! पैसे का यह रिसाव रुकना चाहिए। यह एक उदाहरण हुआ। ऐसी बहुत-सी बातें हैं। अर्थ यह कि जब किसी फसल में रोग लग जाता है, तो सौ दिमाग सौ तरह से सोचते हैं। फसल का पोषण और बीमारी से बचाव हर किसी का काम नहीं है। वह विज्ञान है। और ऐसा केवल कारखानों में ही नहीं, कृषि में भी किया जा सकता है, लेकिन हर किसान वैज्ञानिक नहीं हो सकता। अत: फसल का पोषण एवं संरक्षण जैविक ढंग से करना चाहिए। हमारे बीच एक वैज्ञानिक या गुरु को पदोन्नत किया जाना चाहिए। यह बहुत कठिन नहीं है। आपको बस इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
सामूहिक बीज-उर्वरकों, दवाइयों या खरीद से लेकर उत्पादन और प्रसंस्करण से लेकर उपभोक्ता को सीधे बिक्री तक की पूरी पाइपलाइन के जब आप ही मालिक होंगे, तभी दो पैसे बचेंगे।
पूरी ताकत से उतरो..
90 के दशक में भारत ने खुलेपन और उदारीकरण को अपनाया। कृषि क्षेत्र को छोड़कर अधिकांश क्षेत्रों पर सरकार का नियंत्रण कम कर दिया गया। लेकिन किसान की राह में बाधाएं अभी तक दूर नहीं हुई हैं, बल्कि और बढ़ गयी हैं। ऐसे में यह सोचने का समय आ गया है कि हम सामने आए अवसरों को तलाश कर, उनका पूरा उपयोग करके, खुद को और राजनीतिक व्यवस्था को उसके अनुसार बदलकर कैसे आगे बढ़ सकते हैं!
तेलंगाना राज्य में जो किया गया, उसे अन्य राज्यों में भी लागू करने के लिए हमारा दबाव बढ़ाना जरूरी हो गया है।
अब तक की प्रगति पर नजर डालें, तो हर युग में कृषि के सामने चुनौतियां रहीं हैं। आने वाले हर कालखंड में ये अलग-अलग रूप में आएंगी ही। सवाल यह है कि क्या हम इन चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त क्षमता, शक्ति और संगठन के साथ तैयार हैं? इस पर आत्ममंथन जरूरी है।
खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में उपभोक्ताओं में जागरूकता पैदा की जा रही है। उन्हें उचित मूल्य पर कृषि उपज मिलने की उम्मीद बनी रहेगी। क्या हम उनके साथ एक निर्माता के रूप में इसे वहन कर सकते हैं? कृषि सस्ती होगी, तभी हम ग्राहकों की अपेक्षाओं को पूरा कर पाएंगे। हमें दोनों को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा।
‘मूल्य श्रृंखला’ की अवधारणा दुनिया भर के अधिकांश विकसित देशों में लागू की जा रही है। अब हमें भी उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
–प्रकाश पोहरे
(सम्पादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
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