विदर्भ के संतरा उत्पादकों के पास चूंकि 40,000 से 50,000 टन संतरे पड़े हैं और बाजार में संतरे की कोई मांग नहीं है, इसलिए संतरा उत्पादकों का भविष्य अधर में लटक गया है।
विदर्भ में संतरे का रस निकालने और प्रसंस्करण के लिए कोई कारखाना भी स्थापित नहीं किया गया है। वादे तो बहुत किए गए, संतरा उत्पादकों के कई सम्मेलन भी हुए, लेकिन संतरा उत्पादकों को इससे कुछ हासिल नहीं हुआ।
आजकल मोदीजी रामभक्ति में लीन हैं, ‘विश्वगुरु’ होने के कारण भी उनके पास इस चिल्लर काम के लिए समय नहीं है। तो विदर्भ में संतरे ऐसे ही पड़े हैं। चूंकि संतरे की कीमत भी गिर गई है, इसलिए बड़ा सवाल यह है कि इन संतरों का क्या किया जाए!
राज्य सरकार का रुख हठधर्मिता वाला है, इसलिए संतरा किसानों के जीवन और मृत्यु के संघर्ष से एक बार फिर साबित हो गया है कि वे समय-समय पर किए गए केवल वादों से संतुष्ट नहीं हैं। इसी कारण वरुड, मोर्शी तालुका के संतरा किसानों ने तहसील कार्यालय के सामने सड़क पर संतरे फेंककर अपना आक्रोश व्यक्त किया। लेकिन हाल ही में हुए नागपुर अधिवेशन में ही नहीं, किसी भी प्रतिनिधि द्वारा इस दुख या आक्रोश को राज्य या केंद्र सरकार तक नहीं पहुंचाया गया, इसलिए किसानों के बच्चों को यह समझ लेना चाहिए कि अब हमारे जनप्रतिनिधियों को केवल ‘गांवबंदी’ की भाषा ही समझती हैं।
एक दशक पहले देश में संतरे का सबसे बड़ा उत्पादक रहा वरहाड क्षेत्र, अब 10वें स्थान पर खिसक गया है। क्योंकि किसी ने भी संतरा उत्पादकों की समस्याओं को नहीं समझा और उन्हें हल करने का प्रयास नहीं किया। संतरे की मौजूदा व्यवस्था पैकिंग कर भेजने तक ही सीमित है। अगर मांग होगी तो संतरे भेजे जाएंगे, लेकिन अब तो मांग भी नहीं है। क्योंकि भारत सरकार के प्याज निर्यात पर प्रतिबंध के कारण बांग्लादेश ने पिछले साल आयात शुल्क 20 रुपये प्रति किलोग्राम से बढ़ाकर 88 रुपये प्रति किलोग्राम करके अप्रत्यक्ष रूप से अपने निर्यात को खत्म कर दिया है। इसने संतरा किसानों के लिए दुविधा पैदा कर दी है। जैसे-जैसे यह दुविधा जारी है, विदर्भ में संतरे की खेती का क्षेत्र तेजी से घट रहा है।
90 के दशक में विदर्भ में संतरे की खेती का क्षेत्रफल 3 लाख हेक्टेयर था। इस पर लगभग ढाई करोड़ संतरे के पेड़ थे। अब संतरे की खेती का रकबा घटकर आधा यानी सिर्फ डेढ़ लाख हेक्टेयर रह गया है। यह गिरावट दर्शाती है कि संतरे की खेती लाभदायक नहीं है। पिछले एक दशक से बदलती जलवायु का असर संतरे की खेती करने वाले किसानों पर लगातार पड़ रहा है। उन्हें सरकार से कोई सहायता भी नहीं मिलती। संतरा उत्पादकों को अपने संतरे के बगीचों में जीवन या मृत्यु के संकट का सामना करना पड़ता है, इसलिए निम्नलिखित कारणों से संतरा नकदी फसल के बजाय एक जुआ फसल बन गया है।
विदर्भ का कैलिफ़ोर्निया कहे जाने वाले मोर्शी-वरुड क्षेत्र में जल स्तर बहुत गहरा हो गया है, जिससे इसे पंप करने से बिजली की खपत बढ़ गई है, जो अविश्वसनीय और महंगी भी हो गई है। खाद, मजदूरी, डीजल और अन्य खर्च भी बढ़ गए हैं। इसका सामना करते हुए सभी किसानों पर मरने की नौबत आ गई है। इस तरह, देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करने वाला विदर्भ का नागपुरी संतरा भविष्य में किसी दिन विलुप्त हो जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
महाऑरेंज के कार्यकारी निदेशक श्रीधरराव ठाकरे कहते हैं कि विदर्भ में संतरे के लिए सरकार की कोई योजना नहीं है। हमने सुझाव दिया था कि जिस तरह वसंतदादा शुगर इंस्टीट्यूट गन्ने के लिए काम करता है, उसी तरह विदर्भ में संतरे के लिए काम किया जाना चाहिए। लेकिन कुछ नहीं हुआ। हमेशा की तरह, उन्होंने अफसोस जताया कि इस मामले में सरकारी एजेंसियों ने अलग-अलग खुराफातें कीं।
संतरे का उत्पादन महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, पश्चिम बंगाल आदि 15 राज्यों में होता है। पंजाब में लगभग 47 हजार 100 हेक्टेयर में संतरे का उत्पादन होता है। वहां संतरे की उत्पादकता 23.40 टन प्रति हेक्टेयर है। वहां के संतरे को किन्नों के नाम से जाना जाता है। लेकिन किन्नो, रंग और स्वाद के मामले में नागपुरी संतरे से पीछे ही है। इसलिए टेबल फ्रूट के रूप में असली मांग नागपुरी संतरे की ही है। मध्य प्रदेश में संतरा उत्पादन क्षमता 17.37 टन प्रति हेक्टेयर है। मध्य प्रदेश में 8 लाख 94 हजार टन संतरे का उत्पादन हुआ।
विदर्भ में संतरे का उत्पादन औसतन 8 लाख टन होता है। लेकिन वर्तमान में बाजार में संतरे का जूस ज्यादा नहीं बिकता है, क्योंकि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से मोसंबी के सैकड़ों ट्रक विदर्भ के विभिन्न हिस्सों में आते हैं और इस धंधे ने इन दोनों राज्यों के असंख्य बेरोजगारों को विदर्भ के हर तहसील और जिले के महत्वपूर्ण स्थानों पर बिठाया है। अब उनके लिए ‘हटाव लुंगी बजाओ पुंगी’ की तर्ज पर ‘मोसंबी हटाओ, संतरा पिलाओ’ कह कर मोसंबी के ट्रकों को रोकने का कार्यक्रम चलाना चाहिए।
संतरा उत्पादक किसानों, विदर्भ में आजकल पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ने के अनुपयोगी गंदे रस से बनी देसी दारू ‘संतरा व नारंगी’ के नाम से बेची जा रही है। इस खतरनाक देसी की जगह ‘वाइन’ बनाने के लिए अपने नागपुरी संतरे मंगवाएं। वाइन बनाने के लिए किसी मशीनरी की जरूरत नहीं पड़ती। संतरे से वाइन बनाने में आने वाली तमाम सरकारी बाधाओं को मैन हटा दिया है। मैंने दो साल पहले ही इसके लिए सरकारी नियम बदलवा दिए हैं।
तो अब संतरा उत्पादकों या उनकी नई पीढ़ी को आगे आना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो मैं इस संबंध में सभी मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए उपलब्ध हूं।
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लेखक : प्रकाश पोहरे
(संपादक- दैनिक देशोन्नती, दैनिक राष्ट्रप्रकाश)
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