देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए बहुसंख्यक भारतीयों की क्रय शक्ति बढ़ानी चाहिए। वास्तव में भारतीयों की क्रय शक्ति घट रही है। पिछले नौ वर्षों में करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई, आज करोड़ों सुशिक्षित युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। इसलिए इस सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए शासक चुनाव के दौरान मतदाताओं को मुफ्त उपहार देने की घोषणा करते हैं।
भूखी जनता बहाने नहीं सुनती, प्रार्थना नहीं सुनती और कानून की परवाह नहीं करती। ऐसी चेतावनी पहली सदी में रोमन दार्शनिक सेनेका ने दी थी। दूसरी ओर, सत्ताधीश अधिक से अधिक धन, अचल संपत्ति के पीछे पागल होते हैं। इस अधिकता से अराजकता का जन्म होता है। आजकल हम यही अनुभव कर रहे हैं। असहनीय महंगाई, उसके पीछे बढ़ती और चकाचौंध भरी असमानता और निर्दयी शासकों द्वारा की जा रही लूट से जनता का मोहभंग हो गया है। खाद्यान्न की उपलब्धता होने के बावजूद आम लोग बाजार से अनाज नहीं खरीद पा रहे हैं। लोगों के पास खाना नहीं पहुंच पा रहा है। भारतीय राजनीति ने खुद को गरीबों और भूख की समस्या से दूर कर लिया है। मीडिया आदिवासियों और गरीबों की सुध तक नहीं लेता। इस ‘डिस्कनेक्ट’ तक भारत में शांति या स्वस्थ वातावरण नहीं हो सकता। शासक इस ‘डिस्कनेक्ट’ को कायम रखकर जनता को निष्क्रिय रखना चाहते हैं और मुफ्त की रेवड़ियों का लालच देकर राजनीति करना चाहते हैं।
इस समय देश में ‘रेवड़ी संस्कृति’ की खूब चर्चा है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान मतदाताओं को रिश्वत देने के लिए आम आदमी पार्टी ने बेशर्मी से इसे स्वीकार कर लिया। तभी से वास्तव में इसे गति मिल चुकी है। इससे अच्छा-खासा पक्षपातपूर्ण प्रभाव भी नजर आता है। मामला कोर्ट में है, लेकिन इसके सुलझने की संभावना कम है, क्योंकि ये ‘बदमाश’ संसद के दायरे में आते हैं और चुनाव आयोग भी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ चुका है। दिलचस्प बात यह है कि सरकार ने भी इस मामले को खुद हैंडल किए बिना ही गेंद वापस चुनाव आयोग के पाले में डाल दी है। मुफ्त में कुछ प्राप्त करना केवल रिश्वतखोरी, या इसकी वित्तीय या बजटीय स्थिरता के बारे में नहीं है, तो यह भारतीय राजनीति के केंद्र में एक मुद्दे को स्पष्ट करता है।
केंद्र सरकार ने दिसंबर के महीने में देश के 81.35 करोड़ गरीबों को हर महीने 5 किलो अनाज मुफ्त में देने का ऐलान किया था। प्रधानमंत्री गरीब खाद्य कल्याण योजना के तहत कोरोना काल में गरीबों को 28 माह तक प्रति माह 5 किलो अधिक खाद्यान्न दिया गया। खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत तीन रुपये किलो चावल, दो रुपये किलो गेहूं और एक रुपये किलो की दर से खाद्यान्न दिया जाता है। लेकिन यह अनाज अब गरीबों को मुफ्त में दिया जाता है। केंद्र सरकार इस सब्सिडी का दो लाख करोड़ रुपए का बोझ वहन कर रही है। यहां सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार इतना बड़ा खर्च वहनीय है? इसके लिए पैसे कहां से आएंगे? एक ओर केंद्र की सरकार दिल्ली की ‘आप’ की केजरीवाल सरकार के साथ-साथ अन्य राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों की ‘रेवड़ी संस्कृति’ लागू करने के लिए लगातार आलोचना कर रही है, लेकिन वास्तव में केंद्र की भाजपा सरकार भी इसी तरह रेवड़ियां बांट रही है, इसे हम क्या कह सकते हैं?
केंद्र की यह योजना 2024 के लोकसभा चुनाव तक जारी रहने की संभावना है। क्या ये केंद्र सरकार की ‘रेवड़ी’ योजना नहीं, तो और क्या है? राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत गरीबों को साल भर मुफ्त अनाज देने के सरकार के फैसले से बेशक गरीबों को राहत मिली है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि सरकार ने मुफ्त अनाज की वजह से बेस प्राइस में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं की है। लेकिन दूसरी ओर कृषि के लिए आवश्यक अन्य चीजों जैसे खाद, बीज, कीटनाशक, डीजल, मजदूरी की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है, जिससे कृषि की अर्थव्यवस्था बहुत खराब हो गई है। इसी वजह से जहां किसान आत्महत्याओं में वृद्धि हुई है, वहीं कई किसानों ने खेती करना ही छोड़ दिया है। जैसे-जैसे खेती महंगी होती जा रही है और मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध हो रहा है, सरकार की ये योजनाएं किसानों को और अधिक गरीब बना रही हैं और दूसरों को निष्क्रिय बना रही हैं। बेशक, इससे पता चलता है कि ‘रेवड़ी संस्कृति’ कितनी खतरनाक है।
श्रीलंका और वेनेजुएला जैसे देशों का उदाहरण देखिए। वास्तव में, आज श्रीलंका एक केस स्टडी बन गया है। वहां भी चुनाव के दौरान अनुचित लोकलुभावन घोषणाएं हुईं। उन्हीं को पूरा करने के चक्कर में आज श्रीलंका ऐसा राज्य बन गया है। इसमें कोरोना काल में श्रीलंका जाने वाले पर्यटकों की संख्या घटी, जिससे अर्थव्यवस्था बिगड़ गई। जनता से टैक्स छूट का वादा किया गया था, जो पूरा नहीं किया जा सका। भारी भरकम अनुदान, कर्जमाफी, बिलों के सपने दिखाए गए। यह सब समानता के नाम पर किया गया। इसके विपरीत ऐसी बातें सामाजिक न्याय के आदर्श को हानि पहुंचाती हैं। कल्याणकारी कार्यक्रमों के नाम पर धन की बर्बादी के कारण विशाल तेल संसाधनों वाला वेनेजुएला जैसा देश दिवालियापन के कगार पर है। महिलाओं और बच्चों के सशक्तिकरण, स्वास्थ्य सुरक्षा, रोजगार वृद्धि, वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण के लिए लागू किए गए कार्यक्रम प्रशंसनीय हैं, लेकिन शासकों को यह नहीं पता कि वे मुफ्त देने का वादा करके एक ओर लोगों को निष्क्रिय कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उन पर भीख मांगने की नौबत ला रहे हैं।
जब किसी चीज को मुफ्त में देने की बात कही जाती है, तो उसके पीछे भागने की प्रवृत्ति को हवा देने में हमारे सभी राजनीतिक दल ही आगे हैं। फर्क सिर्फ मात्रा का है। पिछले साल ही प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी द्वारा मुफ्त योजनाओं की घोषणा की आलोचना की थी। ‘रेवड़ी संस्कृति’ के तेजी से प्रसार पर टिप्पणी की थी, यानी मुफ्त में वादा करने वाली चीजों की संस्कृति पर प्रहार किया था। लेकिन साथ ही केंद्र सरकार और अन्य भाजपा शासित राज्यों– विशेषकर उत्तर प्रदेश का मुफ्त योजना बजट नियमित बजट से अधिक था। यह सरकार की ‘कथनी’ और ‘करनी’ पर सवाल खड़ा करता है।
सामान्य तौर पर कई राज्यों में मुफ्त की रेवड़ियां, फ्री सोशल वर्क का मुद्दा बढ़ रहा है। इसने पंजाब, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश राज्यों में दिवालियापन का खतरा पैदा कर दिया है। साथ ही अन्य राज्यों को भी गंभीर बजट संकट का सामना करना पड़ सकता है। पंजाब में, बिजली सब्सिडी, सरकारी खजाने पर उसके कुल राजस्व के 16 प्रतिशत से अधिक का बोझ डालती है। इस तरह की लागत लंबी अवधि के विकास के लिए आवश्यक पूंजी आवंटन को कम करती है और उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। पंजाब में औद्योगिक उपयोगकर्ताओं के लिए प्रति यूनिट बिजली की दरें तमिलनाडु के समान हैं। यह गुजरात की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक है, फिर भी पंजाब इस समय ऐसी स्थिति का सामना कर रहा है। पंजाब और तमिलनाडु दोनों राज्यों में घरेलू उपभोक्ताओं को बिजली सब्सिडी प्रदान की गई है। इसलिए इन राज्यों पर भारी कर्ज है।
एक पार्टी ने मुफ्तखोरी की ऐसी तकनीक अपना ली है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों को भी इसमें घसीट लिया जाता है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। जैसा कि आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को मुफ्त बिजली और 1,000 रुपये प्रति माह की पेशकश की, सत्तारूढ़ भाजपा को भी अपने घोषणापत्र में आधा किलो दूध, 3 गैस सिलेंडर मुफ्त देने का वादा करना पड़ा। वहीं, कांग्रेस ने मुफ्त बस यात्रा, 10 किलो चावल, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, बेरोजगार युवाओं को 1500 से 3000 रुपये, महिलाओं को 2000 रुपये प्रति माह और मुफ्त बस यात्रा आदि के वादों की सौगात दी है। अब वहां कांग्रेस की सरकार आ गई है और यह तय है कि मुफ्त अनाज बांटने के नाम पर अन्य उपभोक्ताओं पर दाम बढ़ा कर या कृषि उपज का दाम घटाकर सरकार लागत की भरपाई करेगी। भारत के दृष्टिकोण से हमें कुछ बातों पर विचार करने की आवश्यकता है। आम नागरिकों को 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देना नैतिक रूप से गलत या निंदनीय नहीं है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि आप सब्सिडी बिल बढ़ाकर भविष्य को नजरअंदाज कर दें। इस योजना का राज्य के खजाने पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है और राज्य को दिवालियापन का सामना करना पड़ सकता है।
यदि हम अकेले कर्नाटक राज्य के बारे में विचार करें, यदि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री शिवकुमार चुनाव के दौरान पार्टी द्वारा किए गए सभी पांच वादों को पूरा करने का निर्णय लेते हैं, तो सरकारी खजाने पर प्रति वर्ष 62 हजार करोड़ का बोझ पड़ सकता है। क्या राज्य की अर्थव्यवस्था यह वहन कर सकती है कि राज्य के कुल बजट का बीस प्रतिशत मुफ्त में बांटा जाएगा? यह भी तर्क दिया गया है कि मुफ्त सेवाएं देने के लिए राज्य को कुल बजट का 15 प्रतिशत से अधिक खर्च नहीं करना पड़ेगा।
एक वित्तीय पत्रिका द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, कर्नाटक सरकार पर केवल नकद और सब्सिडी वाली बिजली उपलब्ध कराने के लिए 62,000 करोड़ रुपये का बोझ पड़ सकता है। इतनी रकम कहां से लाएं, बजट का आकार कैसे बढ़ाया जाए, राजस्व कैसे बढ़ाया जाए जैसे कई सवालों का सिद्धारमैया और शिवकुमार को जवाब देना होगा। शिक्षित बेरोजगार युवाओं को भत्ता देने के लिए 4.5 हजार करोड़ लगेंगे। बीपीएल परिवार को 10 किलो चावल देने के लिए 5000 करोड़ और महिलाओं को 2000 रुपए प्रति माह देने के लिए 30,000 करोड़ रुपए लगेंगे। कर्नाटक राज्य में पहले से ही 60 हजार करोड़ का राजस्व घाटा है। अगर कांग्रेस द्वारा किए गए वादों को पूरा किया जाए, तो यह घाटा एक लाख करोड़ तक पहुंच जाएगा। राज्य की आय 2 लाख 26 हजार करोड़ है, जबकि खर्च 2 लाख 87 हजार करोड़ है। इसके अलावा, राज्य पर पहले से ही पांच लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। तो मतदाताओं को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के लिए सिद्धारमैया सरकार पैसा कहां से लाएगी?
एक तरफ पूरा देश कर्ज में डूबा हुआ है। उत्तर प्रदेश पर 6 लाख करोड़ रुपये, महाराष्ट्र पर 6.5 लाख करोड़ रुपये, दिल्ली पर 55 हजार करोड़ रुपये, पंजाब पर 3 लाख करोड़ रुपये, बिहार पर 3 लाख करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल पर 3 लाख करोड़ रुपये, केरल पर 3 लाख करोड़ रुपए, उत्तराखंड पर 3 लाख करोड़ रुपये और राजस्थान पर 4 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। यानी देश के सभी राज्यों पर कुल 70 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। वहीं, केंद्र सरकार पर कुल 80 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। यानी केंद्र और राज्यों का कुल कर्ज 150 लाख करोड़ रुपए है। एक ओर जहां देश कर्ज में डूबा हुआ है, वहीं दूसरी ओर सरकारें, जनता को मुफ्त की रेवड़ियां बांटने के लिए राजनीतिक दल ‘आईजी के जीवन पर बायजी उदार’ की खतरनाक नीति लागू कर रही हैं। केंद्र सरकार की ऐसी नीति में भारतीय अर्थव्यवस्था में असमानता छिपी हुई है। इसी के चलते अमीर अब सुपर अमीर बन गए हैं, जबकि गरीब, गरीबी के समुद्र में डूब रहे हैं और सरकार से मुफ्त सहायता की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति गौरवशाली कैसे कही जाएगी?
मुफ्त के झांसे में आएंगे तो बाद में पछताएंगे, ऐसी नसीहत कई सावन देखने वाले घर के बढ़े-बूढ़े पहले नई पीढ़ी को देते थे। यानी ‘मुफ्त’ का सीधा-सा अर्थ है कि यह आपको डुबा देगी! हाल ही में हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दल लोकप्रिय योजनाएँ, रियायतें लेकर आए। साथ ही मुफ्त सामान देने की घोषणाएं की। इस प्रकार की मुफ्त देना अव्यावहारिक है, और यदि इसे समय रहते हल नहीं किया गया, तो श्रीलंका और ग्रीस जैसे कुछ राज्यों को दिवालिएपन के रास्ते पर जाने में देर नहीं लगेगी।
पंजाब, दिल्ली, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों का उल्लेख करने की आवश्यकता है। बेशक, जिस पार्टी के दम पर प्रधानमंत्री लोकसभा तक जाते हैं, उसी पार्टी ने यूपी, कर्नाटक और गोवा में मुफ्त गैस सिलेंडर सहित कई मुफ्त उपहारों की घोषणाएं की है।
यदि खर्च राजस्व से अधिक हो जाता है, तो अर्थव्यवस्था गोता लगा सकती है। यह सरल नियम जो एक घर पर लागू होता है, वही राज्य और देश पर भी लागू होता है। फिर भी भाजपा, कांग्रेस, आप जैसे तमाम राजनीतिक दलों ने बिजली, गैस सिलेंडर, स्कूटी, मुफ्त में लैपटॉप, सातबारा कोरा, बिजली बिल माफी, कर्जमाफी आदि कई प्रलोभन दिखाए हैं। दिल्ली और पंजाब की सत्ता में आने के बाद आप ने कुछ वादे फौरन पूरे भी किए। वोट पाने के शॉर्टकट के रूप में रियायतें देने का यह चलन दक्षिणी राज्यों में शुरू हुआ और पूरे देश में फैल गया। समय-समय पर जागरुकता और जनजागरूकता के बावजूद पार्टियों के व्यवहार में कोई सुधार नहीं हुआ और न ही मतदाताओं ने ऐसी बातों को स्वीकार किया। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश भी कि मतदाताओं से मुफ्त सामान या सेवाओं का वादा नहीं किया जाना चाहिए। इस संबंध में गाइडलाइंस बनाने के अलावा चुनाव आयोग भी पल्ला झाड़ रहा है। दरअसल जिस दिन देश की जनता मुफ्त की चीजों को नकारने का साहस दिखाएगी, उसी दिन मुफ्त की चीजों के खिलाफ पहला कदम उठाया जाएगा। अब सवाल बस इतना है कि क्या राजनीतिक दल इसके लिए पहल करेंगे?
मूल मुद्दा यह है कि लोग इस बारे में कितनी समझदारी लेंगे? कहते है कि–
‘अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फैसला,
जिस दीये में जान होगी वो दीया रह जाएगा.’
वर्तमान वैश्विक हवा के रुख को पहचानें और उसके लिए तैयार रहें। फैसला आपका है– मुफ्त की योजनाएं पाकर ओझल हो जाएं या मेहनत कर ‘जीवंत’ जीवन जीएं…!
–प्रकाश पोहरे
(संपादक, मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
(संपर्क : 98225 93921)
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