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‘विकास’…या नागरिकों का जीवन ‘बर्बाद’?

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

सकल राष्ट्रीय उत्पाद’ या ‘जीडीपी’ के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है। सरकार इसका जिक्र करते नहीं थकती। यहां तक ​​कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी इसकी बढ़ती आर्थिक दर की तारीफ कर रहा है। यह अच्छी बात है कि हम तेज गति से विकास कर रहे हैं। लेकिन यह देखना भी उतना ही जरूरी है कि इस विकास का फायदा आम लोगों को मिल रहा है या नहीं!

वास्तव में देश के विकास का मतलब देश के सभी नागरिकों का विकास है। क्योंकि देश का मतलब मुख्य रूप से देश के सभी नागरिक होते हैं। यह देखने के लिए कि देश वास्तव में विकास कर रहा है या नहीं, अर्थव्यवस्था के समग्र आकार को देखने के बजाय प्रति व्यक्ति वार्षिक आय अनुपात को देखना अधिक उपयोगी होगा।

इसी उद्देश्य से केन्द्र सरकार के सांख्यिकी विभाग ने चालू वित्तीय वर्ष की समाप्ति के अवसर पर मार्च माह में जारी ‘प्रेस नोट’ के आँकड़ों के आधार पर निम्नलिखित व्याख्या की है। उसमें वर्ष 2023-24 में अनुमानित आय के तौर पर 203.27 लाख करोड़ रुपये देखी जा रही है। लेकिन हमारी प्रति व्यक्ति वार्षिक आय केवल 1 लाख 48 हजार 524 रु. है। हालाँकि हम सकल राष्ट्रीय उत्पाद के मामले में दुनिया में पांचवें स्थान पर हैं, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम 190 देशों में से 140वें स्थान पर हैं। इससे स्पष्ट है कि विश्व के 139 देश प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में हमसे आगे हैं। शर्मनाक बात यह है कि श्रीलंका और बांग्लादेश भी हमसे आगे हैं। लेकिन पाकिस्तान की आय हमसे कम है। यह तथाकथित अति-राष्ट्रवादियों को संतुष्ट करने वाली बात है। इससे एक बात तो पता चलती है कि हमारी अर्थव्यवस्था चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो, एक आम आदमी का जीवन गरीबी में ही बीतता है। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जहां हम सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर को गति दे रहे हैं, वहीं प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के मामले में हम 187 देशों की सूची में 145वें स्थान पर हैं।

सकल राष्ट्रीय उत्पाद पूरे देश के सभी लोगों का योग है। इस प्रकार उत्पादन या आय को कुल जनसंख्या से विभाजित करने पर प्रति व्यक्ति उत्पादन या आय प्राप्त होती है। इसमें अति-अमीर और अति-गरीबों के उत्पादन/आय को भी एक साथ मापा जाता है और यही वास्तविक भ्रामक है। हालाँकि इन आंकड़ों से देश के सभी लोगों के औसत उत्पादन/आय को तो समझा जा सकता है, लेकिन देश में गरीबों की वास्तविक प्रति व्यक्ति आय को नहीं समझा जा सकता है। इसलिए गरीबों की प्रति व्यक्ति आय का पता लगाने के लिए ‘विश्व असमानता रिपोर्ट 2022-23’ का अध्ययन करना चाहिए। इस रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष 1 फीसदी आबादी के पास राष्ट्रीय आय में 21.7 फीसदी का बड़ा हिस्सा है। वहीं टॉप 10 फीसदी की हिस्सेदारी 57.1 फीसदी है। वहीं, निचले 50 फीसदी की हिस्सेदारी सिर्फ 13.1 फीसदी है।

शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की कुल आय 115.86 लाख करोड़ रुपए होती है। यदि भारत की वर्तमान कुल जनसंख्या 136.90 करोड़ मानी जाए, तो इनमें से शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 8,47,845 रुपए होती है। यहां तक ​​कि शीर्षस्थ 1 प्रतिशत यानी कुल 1.37 करोड़ लोगों की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 32,22,033 रुपए होती है। इस आधार पर नीचे के 50 फीसदी लोगों की आय देखें तो कुल राष्ट्रीय आय में उनकी हिस्सेदारी महज 26.425 लाख करोड़ रुपये है। कुल जनसंख्या में से इन 68.45 करोड़ गरीबों की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय मात्र 38,902 रुपये है। 2021-22 में भारतीयों की औसत प्रति व्यक्ति आय 1,48,524 रु. है, लेकिन निचले स्तर के लोगों की प्रति व्यक्ति आय बमुश्किल 38,902 रुपए ही होती हैं, यह इससे स्पष्ट है।

जीडीपी में बढ़ोतरी से आम लोगों को संतुष्टि मिलती है कि हमारे देश का आर्थिक विकास हो रहा है। इस आर्थिक विकास के कारण बढ़ी हुई आय का एक बहुत छोटा हिस्सा गरीबों तक पहुँचता है। लेकिन उच्च वर्गों की आय की तुलना में यह प्रवाह नगण्य है। अत: आर्थिक विषमता अत्यधिक बढ़ जाती है। इस असमानता के कारण उत्पीड़ितों के हिस्से में आने वाली अल्प आय में उत्पीड़ितों की बुनियादी जरूरतें भी ठीक से पूरी नहीं हो पातीं। इससे इन गरीबों में शुरुआती असंतोष और बाद में मध्यम वर्ग के प्रति नाराजगी पैदा हो सकती है। लेकिन यह भी देखना जरूरी है कि आर्थिक रूप से समृद्ध दिखने वाला मध्यम वर्ग क्या वाकई खुश है। क्योंकि उन्हें अब इस बात की जानकारी नहीं है कि उनकी सच्ची खुशी किसमें शामिल है! इससे देश के संवेदनशील नागरिकों को कम से कम यह तो सोचना ही चाहिए कि इस तथाकथित बढ़ती जीडीपी का लाभ नीचे के लोगों तक कितना पहुंच रहा है! राष्ट्रीय उत्पाद में गरीबों का योगदान अकुशल श्रम की आपूर्ति तक ही सीमित रहता है। यह देखा जा सकता है कि उनके पारिश्रमिक के रूप में उनकी रैंक के बारे में कुछ खास नहीं है।

यदि हम भारत के आर्थिक विकास के आँकड़ों के इतिहास पर नज़र डालें, तो निम्नलिखित महत्वपूर्ण बात ध्यान में आती है। जैसे-जैसे हमारा तथाकथित आर्थिक विकास बढ़ता है, वैसे-वैसे राष्ट्रीय आय में गरीबों की हिस्सेदारी घटती हुई दिखाई देती है। 1961 में, राष्ट्रीय आय में निचले 50 प्रतिशत गरीबों की हिस्सेदारी 21.2 प्रतिशत थी। 1981 में यह बढ़कर 23.5 प्रतिशत हो गया। लेकिन उसके बाद से 2019 से 2023 तक यह घटकर 14.7 फीसदी रह गई है।

‘वेल्थ इनइक्वलिटी डेटाबेस 2022’ के आंकड़ों के मुताबिक, भारत की बात करें, तो 1961 में गरीब लोगों की हिस्सेदारी राष्ट्रीय आय में 21.2 फीसदी थी और 2019 में घटकर 14.7 फीसदी हो गई है. 2023-24 में वह हिस्सेदारी घटकर 13.1 फीसदी रह गई है।

इसलिए, यह समझने में कोई दिक्कत नहीं है कि जीडीपी वृद्धि के लिए गरीबों की भागीदारी बहुत जरूरी नहीं है। जैसा कि शुरू में देखा गया है, आबादी के निचले 50 प्रतिशत की प्रति व्यक्ति आय आम तौर पर देश की औसत वार्षिक आय रुपये से कम है। और यह स्वाभाविक है कि इतनी कम आय गरीबों के लिए भी जीवन-यापन के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती। अभाव की ऐसी स्थिति में इन गरीबों द्वारा अपनी जीडीपी बढ़ाने के लिए उद्यमियों का माल खरीदने का सवाल ही नहीं उठता।

जाने-माने अर्थशास्त्री देवेन्द्र शर्मा का कहना है कि हमें इस बारे में सोचने की जरूरत है कि क्या हमारे देश को इस तरह की जीडीपी की उम्मीद थी। उनके अनुसार, इस जीडीपी वृद्धि से देश के सबसे निचले तबके की भलाई में मदद नहीं मिली है। दरअसल, देवेन्द्र शर्मा का कहना है कि यह निचला तबका जिसकी आय 6,200 रुपये सालाना है, मात्र 17 रुपये प्रतिदिन है, उसे इस जीडीपी में शामिल ही नहीं किया जाता है, जो बेहद गंभीर है।

अगर ऐसा है, तो सवाल उठता है कि खुद को कल्याणकारी राज्य कहने वाली सरकार क्या कर रही है? और निचले तबके के लोगों को सरकार से इसका जवाब मांगना जरूरी है।

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लेखक : प्रकाश पोहरे

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