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बजट 2023-24, किसका ‘अमृतकाल’ और किसका ‘विषकाल?’

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प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’

संकट के समय को ‘अमृतकाल’ कहा जाए, तो कुछ करने की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि ‘अमृतकाल’ में सब ठीक चलता रहता है! उस दिन केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए गए बजट को भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है। कोई पार्टी, जनता के कितने पक्ष में है और कारपोरेट कंपनियों के कितने पक्ष में है, यह चुनावी मैदान में नहीं, बल्कि बजट में समझा जाता है। चुनावी मैदान में बड़े-बड़े भाषण दिए जा सकते हैं, वादों का ढेर लगाया जा सकता है, लेकिन बजट में ऐसा कुछ नहीं किया जा सकता। इसलिए सत्तारूढ़ राजनीतिक दल की नियति को समझने के लिए उसके द्वारा पेश किए गए बजट को देखना होगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बजट हमें बताता है कि विभिन्न करों के माध्यम से जनता द्वारा भुगतान किए गए धन के साथ सरकार क्या कर रही है!

बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने एक बार ‘अमृतकाल’ का जिक्र किया। दरअसल मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से 2014-15 से लेकर आज तक 2023-24 का बजट पेश करते समय सरकार की कथनी और करनी में अंतर साफ नजर आ रहा है। ‘जनभागीदारी’ की नई अवधारणा पेश करते हुए यह बजट ‘सबका साथ, सबका विकास’ से बदलकर ‘सबका साथ, सबका प्रयास’ कर दिया गया है। मोदी सरकार कितना भी ढोल पीट कर कहे कि हम एक ‘अमृतकाल’ में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि यह ‘संकटकाल’ है और धीरे-धीरे इसका एहसास होता रहेगा।

ऐसे संकटकाल में केंद्र सरकार ने 2023-24 का बजट पेश किया है। इस बजट में तीन बड़े संकटों से जूझना था और उनका समाधान खोजना था। वे तीन संकट हैं बेरोजगारी, कृषि और लघु उद्योग। यह बजट उक्त तीनों स्तरों पर पूरी तरह से निराशाजनक है। बेशक, 2015-16 के बजट के बाद से स्थिति ‘जैसी थी’ है! पहला मुद्दा किसानों का है। कपास उत्पादक किसानों को कपास की आर्थिक कीमत की मांग और आवश्यकता होने पर सरकार उत्पादन वृद्धि की खुराक खिला रही है। वास्तव में, ऑस्ट्रेलिया के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करके आयात शुल्क मुक्त कपास (3 लाख गांठ) ने कपास की कीमत गिरा दी है। 23 जुलाई 2021 को सरकार से एक सवाल पूछा गया था। उस समय केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि 2015-2016 में देश में एक किसान परिवार की औसत वार्षिक आय 96,703 रुपये है। यही गणित मासिक आय में जोड़ा जाए, तो किसानों की मासिक आय 8,058 होती है। इसी फॉर्मूले का इस्तेमाल करते हुए किसानों की आय दोगुनी करने के आंकड़ों की गणना की गई। अब इसी फॉर्मूले की माने तो 2022 में किसानों की मासिक आय 16,116 होनी चाहिए थी। लेकिन 16 दिसंबर 2022 को कृषि मंत्री ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि 2022 में किसानों की मासिक आय 10,218 थी। जबकि 2022 तक हर किसान परिवार की औसत आय को दोगुना करने का सरकार का ही लक्ष्य था, जिसमें वह विफल रही।

इस साल के बजट में सरकार ने जानबूझकर किसानों की उपेक्षा की है। पिछले साल के बजट में सरकार ने कुल बजट का 3.84 फीसदी हिस्सा कृषि और उससे जुड़ी योजनाओं के लिए आवंटित किया था। इस बजट में इसे घटाकर 3.20 फीसदी कर दिया गया। घोषणा की गई कि ‘किसान सम्मान निधि’ की राशि बढ़ाई जाएगी, लेकिन इसमें बढ़ोतरी तो दूर, उल्टे इस योजना के लिए आवंटित कुल प्रावधान 68 हजार करोड़ रुपये से घटाकर 60 हजार करोड़ रुपये कर दिया गया। ‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ के लिए प्रावधान को 15,500 करोड़ रुपये से घटाकर 13,625 करोड़ रुपये कर दिया गया है। फसल बीमा योजना से अब तक केवल 13 बीमा कंपनियों ने 72 हजार करोड़ का कारोबार किया है। 6 साल में इसमें से सिर्फ 25 हजार करोड़ का भुगतान किसानों को किया गया। बीमा कंपनियों के गले में 50 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम डालने वाली और किसानों को नगण्य लाभ पहुंचाने वाली योजना में अब तक बजट में कोई संशोधन नहीं किया गया है। बजट में 3 साल में 1 करोड़ लोगों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने की परिकल्पना है, लेकिन जैविक खेती के लिए सब्सिडी का बजट में क्या प्रावधान है? यह प्रश्न पिछले छह वर्षों से अनुत्तरित है। दूसरी ओर कृषि उत्पादों, उर्वरकों, कृषि यंत्रों, ट्रैक्टरों पर 12 से 18 प्रतिशत जीएसटी कर लगाकर और उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी को 25 हजार करोड़ की कटौती करके और डीजल के दामों में बेतहाशा वृद्धि के कारण उत्पादन लागत दोगुना कर दिया गया है।

रेलवे, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे कई सरकारी क्षेत्रों में इस समय लाखों पद खाली हैं। इनकी भरती के बारे में इस बजट में कुछ भी नहीं कहा गया है। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों लोगों को रोजगार देने वाली मनरेगा के लिए पिछले साल 89 हजार 400 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे, लेकिन इस साल इस योजना के लिए केवल 60 हजार करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए हैं। इस तरह 30 हजार करोड़ की कटौती के चलते कृषि क्षेत्र में रोजगार का बड़ा संकट निर्मित हो गया है। कृषि मंत्रालय का बजट भी नहीं बढ़ाया गया है।

यह सरकार सिर्फ किसान ड्रोन और स्टार्टअप पर फोकस कर रही है। किसान ड्रोन ने किसानों को प्रभावित नहीं किया है। इसके अलावा, ऐसा कोई अनुभव नहीं है कि कृषि क्षेत्र में स्टार्टअप्स की मौजूदा हवा किसानों की आय में वृद्धि कर रही है। कुल मिलाकर सरकार ने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की है और किसानों को पूरी तरह हवा में छोड़ दिया है। 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करनी थी, लेकिन उसका क्या हुआ, इसका जिक्र बजट में नहीं है।

देश में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) करीब 11 करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराते हैं। यह उद्योग सकल घरेलू उत्पाद का 28 प्रतिशत है। ये सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग नोटबंदी और कोरोना के दौरान लगभग तबाह हो गए थे। सेक्टर को बजट से काफी उम्मीदें थीं। वे विफल रहें। सरकार ने हाल ही में ‘कृषि त्वरक निधि योजना’ की घोषणा की। उसके जरिए किसान कर्ज के लिए डेढ़ लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त प्रावधान किया गया। कृषि क्रेडिट कार्ड में 20 लाख करोड़ रुपये की वृद्धि की घोषणा की, जो पिछले साल 18.5 लाख करोड़ रुपये थी। इसका मतलब है कि ऋण योजना की राशि में वृद्धि हुई है। इसके बजाय अगर सरकार सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम क्षेत्र को प्रोत्साहन देती तो बड़ी संख्या में रोजगार सृजित होते, लेकिन सरकार ने वह अवसर भी खो दिया है।

अब सवाल रोजगार का है, उसके लिए हमें 2022-23 के बजट को याद करना होगा। रोजगार बढ़ाने के लिए वित्त मंत्री सीतारमण ने ‘पीएलआई योजना’ (प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव स्कीम) का ऐलान किया था और कहा था कि इसके जरिए अगले 5 साल में 60 लाख नौकरियां सृजित की जाएंगी। पिछले साल के अंत में जारी ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट कहती है कि कोरोना काल से अब तक 84 फीसदी लोगों की आय घटी है, वहीं आयोग का आंकड़ा कहता है कि 40 फीसदी मध्यम वर्ग गरीबी की ओर धकेल दिया गया है। 12.5 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई है। आर्थिक असमानता बहुत बढ़ गई है। उस समय पूरे बजट में रोजगार को लेकर सिर्फ ‘पीएलआई’ की ही घोषणा थी, लेकिन निर्मला सीतारमण के पूरे भाषण में एक बार भी ‘रोजगार’ शब्द नहीं आया, जबकि पिछले तीन बार से बजट पेश करते समय ‘बेरोजगारी’ शब्द हटा दिया गया था। ‘अमृतकाल’ में बेरोजगारी कैसे हो सकती है? इसलिए शायद इसका उल्लेख नहीं किया गया होगा!

वित्तीय क्षेत्र में व्यापक सुधारों में हमारे आगे होने की सिर्फ बातें हैं। अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से जनता पर करों का बोझ बढ़ाया जाता है और दूसरी ओर उद्योगपतियों पर कर कम किया जाता है। 2010 में कंपनी टैक्स 39.11 फीसदी था, जो घटकर 15 फीसदी रह गया है, वहीं दूसरी तरफ पेट्रोल और डीजल पर करीब 300 फीसदी टैक्स बढ़ाया गया है। यह क्या दर्शाता है? सरकार, धनकुबेरों की तिजोरियां भर रही है। इसके चलते कोरोना के बाद तबाह हुई भारतीय अर्थव्यवस्था के दौरान भी इस कॉरपोरेट लॉबी की संपत्ति में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। मौजूदा वित्तीय संकट के दौरान कॉर्पोरेट लॉबी सरकार से भारी रियायतें ले रही है और उस पैसे को शेयर बाजार में निवेश कर रही है। इन्हीं वजहों से जब अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में थी, तब भी शेयर बाजार में तेजी थी।

हिंडनबर्ग रिपोर्ट द्वारा उजागर किए गए कॉर्पोरेट धोखाधड़ी के मद्देनजर सरकार द्वारा जांच शब्द का भी उच्चारण नहीं किया गया। नियामक प्रणाली को सशक्त बनाना और सेबी, बीमा नियामक और रिजर्व बैंक जैसे वित्तीय संस्थानों को अधिक शक्तिशाली और कुशल बनाना तो दूर की बात है। देश में पीएसीएल जैसी 169 कंपनियों के 10 करोड़ निवेशकों (ज्यादातर ग्रामीण) के करीब 3.5 लाख करोड़ रुपये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी अटके हुए हैं। सत्ताधारियों को इससे कोई सरोकार नहीं है। कुल मिलाकर, यह एक ऐसा बजट है, जो कंपनियों की जरूरतों को पूरा करता है और उनके घोटालों को कवर करता है। यह तय है कि मोदी के अंधभक्त इस बात से कोई सबक नहीं लेंगे कि सही मायने में कारपोरेट कंपनियां ‘अमृतकाल’ में प्रवेश कर चुकी हैं और आम लोगों के लिए ‘विषकाल’ हो गया है, लेकिन उम्मीद है कि अब तो भी आम आदमी की आँखें खुलेंगी और उसे अंतर्ज्ञान होगा।

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