जनता को इसमें कोई संदेह नहीं था कि भाजपा ने भ्रष्ट तरीकों से शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को तोड़ने का काम किया। और इसका फल उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ा। बीजेपी को उम्मीद थी कि इस तोड़फोड़ से बंटी दोनों पार्टियों को इससे भारी नुकसान और हमें फायदा होगा और इसीलिए भाजपा को ये सब अनैतिक उद्योग करने की जरूरत पड़ी। लेकिन इन पार्टियों को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ बीजेपी ने खुद को भी थोड़ा ज्यादा ही नुकसान पहुंचा दिया।
भाजपा की राजनीति सर्वविदित और समझने में आसान है। कट्टरपंथी धार्मिक चरमपंथी – चाहे उनका धर्म कुछ भी हो – ‘पीड़ित कार्ड’ खेलने में बहुत माहिर हैं। संघी-हिन्दुत्ववादी भी इसके अपवाद नहीं हैं। मूलतः यह तर्क प्रतिक्रियावादी है। वह ‘वे’ बनाम ‘हम’ के द्वंद्व पर खड़ा है और यह उनकी सामान्य प्रचार तकनीक रही है कि वे अपने लोगों को ‘उन्हें’ या काल्पनिक दुश्मन खड़ा करके भड़काएं, यह कहकर कि कैसे ‘हम’ गरीब, बेचारे, उत्पीड़ित हैं। इससे समाज का ‘बराकीकरण’ और मस्तिष्क का ‘सैन्यीकरण’ उनका नियमित एजेंडा रहा है। इसी तरह, भाजपा ने आम हिंदू मतदाताओं का ब्रेनवॉश किया और उन्हें अपने दिमाग का ‘सैन्यीकरण’ करने के लिए उकसाया।
लोकसभा 2024 के नतीजों से पहले बीजेपी ने फिर से ये ‘विक्टिम कार्ड’ फेंकना शुरू कर दिया था। नतीजतन, दो राज्यों- महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में हार की कीमत बीजेपी को चुकानी पड़ी। हालांकि ये दोनों राज्य बीजेपी कैसे हासिल करेगी, इसमें कोई शंका उन्हें नहीं थी क्योंकि उत्तर प्रदेश में राम मंदिर है, और महाराष्ट्र में कम से कम 40 सीटें आसानी से जीतने की उम्मीद उसे थी। तथापि वे सारे विचार मन के मन में ही रह गए।
राम मंदिर चुनावी मुद्दे के तौर पर काम नहीं आया। यहां ऐसे धार्मिक लोग हैं जो मानते हैं कि हजारों वर्षों तक मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा हिंदुओं पर अन्याय किया गया था और उनका बदला अब राम मंदिर के निर्माण के साथ पूरा हुआ है। लेकिन राम मंदिर निर्माण को किसी से बदले की भावना के तौर पर देखना यहां के आम हिंदुओं की मानसिकता में फिट नहीं बैठता। राम मंदिर का उद्घाटन एक बेहद आकर्षक ‘इवेंट’ था। यह तो मानना ही पड़ेगा कि इस देश में पिछले दस सालों में इवेंट प्लानिंग के कौशल विकास के अलावा और किसी चीज में सुधार नहीं हुआ है। लेकिन लोग अच्छी तरह समझ रहे थे कि ये सब क्या, क्यों और किसके लिए हो रहा है…!
राम मंदिर अगला ‘पुलवामा’ और ‘बालाकोट’ होगा. यही सोचकर सभी कहने लगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 400 से ज्यादा का बहुमत मिलेगा। लेकिन, यहीं से इस प्रोपेगैंडा की हवा निकल गयी। प्रोपेगैंडा का एक महत्वपूर्ण नियम यह है कि किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि यह प्रोपेगैंडा है! लेकिन वह समझ में आ गया। नतीजा यह हुआ कि राम मंदिर का मुद्दा किसी भी अभियान में काम नहीं आया। भाजपा, फैजाबाद (निर्वाचन क्षेत्र जहां अयोध्या आती है) सहित चित्रकूट और नासिक में हार गई। इसने सभी भाजपाइयों को अस्वस्थ और परेशान कर दिया है।
परिणाम के दिन, अंत में 400 सीटों को पार करने का दावा करने वाली बीजेपी 240 सीटों पर पहुंच गई और कांग्रेस 100 सीटों तक अटक गई। लेकिन बीजेपी के सहयोगियों को मिली सीटों के कारण ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ (एनडीए) 294 सीटों तक पहुंच सका। दूसरी ओर, कांग्रेस जिस इंडिया अलायंस में शामिल थी, वह 234 तक पहुंचने में सफल रहा।
इस चुनाव में आरक्षण आंदोलन के कारण मराठा समाज, भाजपा की मुस्लिम विरोधी राजनीति के कारण मुस्लिम समुदाय, संवैधानिक बदलाव के संदेह में दलित समुदाय और किसान विरोधी फैसले के कारण किसान… बीजेपी के खिलाफ और कांग्रेस के पक्ष में हो गए। इसके अलावा तोड़फोड़ की राजनीति करने, जांच एजेंसियों के जरिए विरोधियों को आतंकित करने और काफी हद तक बदला लेने की बीजेपी की राजनीति भी लोगों को पसंद नहीं आई। जनता ने साफ देखा कि जब भ्रष्ट नेता भाजपा के पाले में चले जाते हैं, तो वे सुरक्षित और बेदाग हो जाते हैं। इसलिए जनता की नजर में बीजेपी सबसे बड़ी भ्रष्ट पार्टी बन गयी है।
इसी तरह बात करें तो 4 जून को मतदाताओं ने जो परिणाम दिया, वह ‘राजनीतिक सुधार’ था। यह चुनाव दरअसल मोदी और मतदाताओं के बीच मुकाबला था। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस समय मतदाताओं की भूमिका ‘सुविधाकर्ता’ के रूप में थी। इसका मतलब यह है कि भारतीय मतदाता ऐसे नेता और पार्टी को बर्दाश्त नहीं करते, जो अतिवादी रुख अपनाता है और तानाशाही तरीके से शासन करता है। उनकी मानसिकता मध्यम और उदारवादी है। 4 जून के नतीजों ने दिखा दिया कि अगर इसे अतिवादी और आक्रामक बनाने की कोशिश की गई, तो क्या हो सकता है! महाराष्ट्र में मोदी का तथाकथित प्रभाव कम ही नजर आया। इस नतीजे से साफ है कि बीजेपी का ‘अनैतिक उद्योग’ उस पार्टी के लिए ही ज्यादा नुकसानदेह हो गया है। अपने ही हाथ से खुद पर कुल्हाड़ी मारने की कहावत भाजपा पर पूरी तरह लागू होती है।
2014 और 19 में बीजेपी को इतना बहुमत मिला कि उसे सरकार बनाने के लिए घटक दलों पर निर्भर नहीं रहना पड़ा। इसके उलट बहुमत से ज्यादा सीटें आने के कारण एनडीए के घटक दलों को बीजेपी के पीछे घूमना पड़ा। 2024 में ये तस्वीर पूरी तरह उलट गई है। इस बार भारत की जनता ने सिर्फ 240 सीटों पर बीजेपी का रथ रोक दिया है। एनडीए के दो नेता नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू ‘किंगमेकर’ की भूमिका में आ गए हैं, इसलिए इस बार बीजेपी को घटक दलों के रहमोकरम और भरोसे पर और उन्हें उचित न्याय या आश्वासन देकर सरकार बनानी पड़ी।
उनके पीछे मोदी और संघ परिवार का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है। वे गुणसूत्र का प्रयोग करके भारतीय समाज का स्वरूप बदलना चाहते हैं और भारत जैसे महाद्वीपीय देश के समाज को ‘हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान’ के सूत्र में खड़ा करना चाहते हैं। इसी दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो अगले वर्ष 100 वर्ष पूरे करेगा, ने पिछली शताब्दी में अथक परिश्रम किया है। रुक-रुक कर और 2014 के बाद सत्ता हासिल करने के बाद पार्टी और अधिक मजबूती के साथ इस लक्ष्य की ओर बढ़ी है। इससे निपटने के लिए जमीनी स्तर पर पार्टी निर्माण बहुत जरूरी है और यह काम सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं, बल्कि सभी क्षेत्रीय दलों को करना चाहिए। वह भी भारतीय संविधान के दायरे में, इसके लिए इन सभी दलों को शिक्षा और प्रशिक्षण के दोहरे रास्ते से गुजरना होगा और ऐसा करते समय उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि भारत 21वीं सदी के उत्तर-आधुनिक विश्व में तेजी से उभरता हुआ देश है। वहीं, यह याद रखना भी जरूरी है कि जहां पूरी दुनिया में आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है, वहीं भारत इससे अलग रहकर आगे नहीं बढ़ सकता।
मोदी ने इस फॉर्मूले को अपने सत्तावादी शासन के ढांचे में शामिल किया है, जिससे भारत में समृद्धि की इच्छा रखने वाले युवाओं को आकर्षित किया जा सके। हालाँकि, व्यक्तिवाद को तराशने और संघ द्वारा निर्मित सभी संस्थागत जीवन को नियंत्रित करने, समाज में नफरत का जहर बोने और उसके आधार पर हिंदू धर्म की सर्वोच्चता स्थापित करने की उनकी प्रवृत्ति ने शासन के कार्य को और अधिक गहराई से अपना लिया है। यही कारण है कि मोदी के सामने गठबंधन सरकार चलाने का समय आ गया है। 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से उन्हें कभी इसकी आदत नहीं रही। मोदी, जो हमेशा सुर्खियों में रहते हैं और खुद को ‘दिव्य अवतार’ मानते हैं, को अब हर फैसले के लिए सहयोगियों से परामर्श करना होगा। कभी-कभी उनकी मांगों को भी मानना होगा। इसलिए, सत्ता पर दावा करने का ‘इंडिया ब्लॉक’ का कोई भी प्रयास मोदी के हाथ में जलती हुई मशाल देने जैसा होगा और वह इसका पूरा-पूरा फायदा उठाएंगे। सत्ता का उपयोग करते हुए, संसद को चलाते हुए, अपने अधिनायकवाद को छुपाते हुए, मोदी को दुविधा में रखते हुए, ये रणनीतियाँ ‘इंडिया अलायंस’ के लिए फायदेमंद होने वाली हैं।
भाजपा के विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा चुनाव के नतीजे मतदाताओं द्वारा मोदी की अहंकारी-प्रवृत्ति से चलाये जा रहे शासन पर लगाया गया अंकुश है। इसलिए कुछ हद तक आजाद हो रहे राजनीतिक माहौल में ‘इंडिया अलायंस’ को संसद और संसद के बाहर जनहित की राजनीति करने का मौका मिलेगा। यदि सभी मोर्चों पर अच्छा समन्वय बनाए रखते हुए यह अवसर प्राप्त किया जाए, तो भारत जैसे महाद्वीपीय देश की विविधता को बनाए रखते हुए और संविधान के दायरे में सरकार चलाकर देश को विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण स्थान दिलाया जा सकता है। इसके लिए ‘विश्वगुरु’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं है, जैसा कि मोदी करते रहे हैं, इसे भी विकल्प के तौर पर दुनिया को दिखाया जा सकता है।
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लेखक: प्रकाश पोहरे,
(संपादक- देशोन्नती/ राष्ट्रप्रकाश)