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जनता की जीवन पर मुट्ठी भर लोगों की चांदी!

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प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’
प्रकाश पोहरे, प्रधान संपादक, दैनिक ‘देशोन्नती’, हिंदी दैनिक ‘राष्ट्र प्रकाश’, साप्ताहिक ‘कृष्णकोणती’

जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता की सरकार के रूप में स्थापित लोकतंत्र की परिभाषा अब बदल गयी लगती है। आजकल लोकतंत्र का मतलब ठेकेदारों के लिए, ठेकेदारों द्वारा चलाई जाने वाली सरकार ही हो गया है। अर्थात सरकार नामक व्यवस्था को आज नए सिरे से परिभाषित किया गया है।

वह एक मुट्ठी भर लोगों की व्यवस्था बन जाने को आतुर है। इस बदलाव से देश को कैसे बचाया जा सकता है? इस पर शिद्दत से चिंतन करने की जरूरत है। एक पल के लिए कोरोना के नौटंकी-काल को याद करके देखिए। ऐसे माहौल में आर्थिक मोर्चे पर वास्तव में क्या हो रहा था? उद्योग-धंधे बंद हो रहे थे। कई लोगों की नौकरी जा रही थी। मजदूर सचमुच खून से लथपथ पांवों के साथ शहरों को छोड़ रहे थे। वे सारे परेशान चेहरे आपके और हमारे बीच के आम लोग थे।

दूसरी ओर, 2020 में यह बात सामने आई कि दुनिया के 60 फीसदी से ज्यादा अरबपतियों की संपत्ति में काफी इजाफा हुआ। यह उस समय हो रहा था, जब दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं दिवालिया हो रही थीं। भारत में भी इससे कुछ अलग नहीं हो रहा था। अंबानी-अडानी जैसे बड़े उद्योगपति जहां मालामाल हो रहे थे, वहीं आंकड़े यह भी आ रहे थे कि आम भारतीयों की आय घट रही थी। इस आर्थिक विषमता की हकीकत पेश करने वाली ऑक्सफैम की रिपोर्ट कहती है कि 2020 में भारत में अरबपतियों की संख्या 102 थी। 2022 में यह संख्या 166 पर पहुंच गई। 2020 में देश के टॉप 100 सबसे अमीर लोगों की संपत्ति 313 अरब डॉलर थी। 2021 में यह 775 अरब डॉलर पर पहुंच गयी और आज यह आंकड़ा और बढ़ गया है। दूसरी ओर, भारत में 50 प्रतिशत सामान्य लोगों के पास आज केवल 3 प्रतिशत संपत्ति है। भारत के 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की 40 प्रतिशत संपत्ति है। अमीरों की शान-ओ-शौकत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है और गरीबों का अँधेरा गहराता जा रहा है!

हमें बताया जाता है कि आर्थिक विकास का अर्थ प्राथमिक उत्पादक क्षेत्र की नौकरियों से बड़े विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में रोजगार की ओर बढ़ना है। मगर इसी वजह से भारत की दो तिहाई आबादी, यानी 700 से 800 मिलियन (यानी 70 से 80 करोड़) लोग हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं। परिणाम? … पिछले एक दशक में हजारों मूल मालिक किसानों की भयावह आत्महत्याएं या तथाकथित विकास परियोजनाओं द्वारा अपने ही खेतों, जंगलों और तटों से साठ मिलियन (यानी छह करोड़) लोगों का विस्थापन!

उद्योग, बुनियादी ढाँचे और शहरों के लिए भूमि और पानी के परिवर्तन ने मूल निवासियों को उन प्राकृतिक संसाधनों से वंचित कर दिया, जिन पर उनकी आजीविका निर्भर थी। इसका ज्वलंत उदाहरण महाराष्ट्र में समृद्धि महामार्ग परियोजना है, जिसे मैं ‘दुर्बुद्धि महामार्ग’ कहता हूं!

असमानता के ऐसे और भी कई उदाहरण हमारी आंखों के सामने हैं। पिछले पंद्रह वर्षों में सवा से डेढ़ लाख किसानों ने खुद को कर्ज और उससे होने वाली बदनामी से मुक्ति पाने के लिए आत्महत्या की है। एक प्रारंभिक अनुमान के मुताबिक देश में कुल 12 करोड़ किसान खाताधारक हैं। यानी हर हजार खाताधारकों में से एक किसान ने आत्महत्या की है। इसके बावजूद आम जनता के जीवन पर पलने वाले देश के वीआईपी वर्ग में कोई संवेदनशीलता नहीं है। किसानों का चाहे कुछ भी हो जाए, इस वर्ग के पास करने के लिए कुछ भी नहीं बचा है, सिवाय इसके कि हम चाहते हैं कि आवश्यक कृषि उपज अच्छी गुणवत्ता की हो, निवास के पास उपलब्ध हो और अधिमानतः सस्ते में हो! सरकार भी जहां ऐसी सुविधाएं दे रही है, वहीं दूसरी ओर मूल उत्पादक वर्ग को गरीबी के गर्त में धकेल रही है।

हाल का दौर ऐसा चल रहा है, जिसमें सत्ताधीशों द्वारा ‘अमीरों की हर जगह पूजा होती है’ जबकि आम मेहनतकश लोगों की हमेशा उपेक्षा होती है। 13 विकसित अमीर देशों– ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, स्विट्जरलैंड, ब्रिटेन, चीन, रूस और अमेरिका के आंकड़ों पर आधारित एक अध्ययन के अनुसार, कुछ अन्य महत्वपूर्ण पहलू भी सामने आए हैं।

ब्रिटेन में वीआईपी की आधिकारिक संख्या 84 है। फ्रांस में 109 वीआईपी हैं। जापान में 125 वीआईपी हैं। जर्मनी में 142 वीआईपी हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका में वीआईपी की कुल संख्या 252 है। रूस में वीआईपी की कुल संख्या 312 और चीन में 435 है। जबकि भारत में कुल 5,79,092 वीआईपी हैं! अब जरा इनकी सुरक्षा, हवाई किराए, विदेश यात्रा, परिवहन, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, सब्सिडी वाली उच्च गुणवत्तापूर्ण भोजन-कैंटीन और अन्य भत्तों के बढ़ते बिलों की कल्पना करें। इससे पता चलेगा कि भारत में किस तरह गरीबों की जिंदगी पर मुट्ठी भर अमीरों की चांदी हो रही है!

जनप्रतिनिधि, न्यायपालिका, नौकरशाही और समाचार माध्यम लोकतंत्र के चार स्तंभ माने जाते हैं। यदि आप इन स्तम्भों की कल्पना करें, और सोचें कि इनका समर्थन कौन कर रहा है, तो ऐसा लगता है कि ये लोकतंत्र के स्तम्भ नहीं हैं, बल्कि इसके सिर पर बैठे तेजतर्रार कारपोरेट जगत के आधारस्तम्भ हैं! इन स्तंभों में शामिल लोगों को आज ‘वेरी स्पेशल’ (वीवीआईपी) के रूप में गिना जाता है और ये लोग भी ‘एक-दूसरे की सहायता से आगे बढ़ने और जनसामान्यों को कुचलने’ का ही दृष्टिकोण रखते हैं। इन सभी ‘प्रणालियों’ में गैर-वीआईपी आम जनता की स्थिति स्पष्ट रूप से दोयम दर्जे की…. यानी ‘प्रजा’ या ‘रैयत’ जैसी हो गईं है।

दूसरी ओर, आज भारत में 22.89 करोड़ लोग गरीब हैं। वे गरीबी रेखा से नीचे इतनी दयनीय स्थिति में जीवन यापन कर रहे हैं कि उनके पास न तो रहने के लिए आधिकारिक घर है और न ही उन्हें दो वक्त का भोजन मिलता है।

सरकार की अर्थव्यवस्था गरीबों के जीवन पर टिकी है। क्योंकि गरीब लोग, अमीरों के मुकाबले छह गुना ज्यादा टैक्स चुकाते हैं। अमीर लोगों का योगदान केवल 10 प्रतिशत है। जीएसटी के जरिए 64 फीसदी पैसा गरीबों से मिलता है, जबकि अमीरों से सिर्फ 4 फीसदी पैसा मिलता है। वहीं, जीएसटी का 33 फीसदी हिस्सा सरकार मध्यम वर्ग से वसूलती है। इसका मतलब यह है कि सरकार की आर्थिक गणना गरीब और मध्यम वर्ग के पैसे पर आधारित है। लेकिन इसका सारा फायदा चंद अमीर लोगों को मिल जाता है। साफ नजर आ रहा है कि इसके पीछे सरकार की अमीरों को पूरक करने की नीति है।

कोरोना काल में केंद्र सरकार ने गरीबों को मुफ्त भोजन दिया। दरअसल यह सरकार की जिम्मेदारी है। सरकार इससे भाग नहीं सकती। लेकिन इस मुफ्त के अनाज को केंद्र सरकार ने चुनाव को ध्यान में रखते हुए जमकर हल्ला मचाया। लेकिन जिन किसानों के जीवन पर सरकार इस योजना को चलाती है, वे मरणासन्न जीवन जी रहे हैं!

दूसरी ओर 2019 में, केंद्र सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स की दर को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया और कुछ पसंदीदा कंपनियों के लिए धारा 115 बीएबी जोड़कर टैक्स को घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया। उस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर इस फैसले को ऐतिहासिक बताया था। लेकिन इस फैसले से सरकार के राजस्व को साढ़े 4 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। वर्ष 2020-2021 के दौरान, सरकार ने कॉर्पोरेट क्षेत्र की कंपनियों को कर रियायतें वितरित की हैं। इस कारण कई अर्थशास्त्रियों ने सरकार को निशाने पर भी लिया था। इस दौरान फूड और एनर्जी सेक्टर की करीब 95 कंपनियों का मुनाफा काफी बढ़ा है। वहीं, आम आदमी की जेब में एक तरफ सिर्फ 1 डॉलर यानी 80 रुपये जा रहे थे, वहीं अमीरों की जेब से 17 करोड़ डॉलर जुड़ रहे थे। चरमोत्कर्ष यह है कि मोदी सरकार ने बड़े कारोबारियों के लिए एक पूरक भूमिका निभाई और उनके 11 लाख करोड़ रुपये (11,00,00,0,000000) के ऋण माफ कर दिए….!

भारत में अब ग्रामीण-शहरी लोगों के बीच एक बड़ी खाई बन रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की दर में वृद्धि हुई है। 2018 से 2020 के बीच 10,000 लोगों ने बेरोजगारी के कारण आत्महत्या की और लगभग 16,000 लोगों ने गरीबी के कारण आत्महत्या की। विश्व भूख सूचकांक में भारत 121 देशों में से 107वें स्थान पर है। एक तरफ जहां यह हकीकत है, वहीं दूसरी तरफ हम 2026-27 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के सपने देख रहे हैं!

कड़वा सच यही कि सत्ता में आने के बाद से केंद्र की वर्तमान सरकार ने हमेशा बड़े उद्योगपतियों के हितों का ही पक्ष लिया है। फूली-फूली जीडीपी के आंकड़े विकास का पैमाना नहीं होते, लेकिन बजट का एक फीसदी लाकर लोकप्रिय योजनाओं पर खर्च किया जाए, तो जमीनी मतदाता खुश होते हैं। अर्थव्यवस्था में मुट्ठी भर अमीरों का योगदान करोड़ों गरीबों की तुलना में कुछ भी नहीं है। सरकार को इसका अभ्यास होना चाहिए। दरअसल, देश के कई अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि अगर देश के इन अरबपतियों पर टैक्स लगा दिया जाए, तो कई समस्याओं का समाधान हो जाएगा। यह बात डॉ. रघुराम राजन तब कह रहे थे, जब वे रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। अंतत: उन्हें पद छोड़ना पड़ा। लेकिन लगता है कि आज सरकार भी यह भूल गई है कि रघुराम राजन जैसा देश के बारे में सोचने वाला एक अर्थशास्त्री भी है!

आज मुझे एक और विषय पर बात करनी है?। वह है राष्ट्रवाद। आज राष्ट्रवाद को लेकर प्रचंड मतभेद हैं। उसके नाम पर अहम मुद्दे उठाने वाले कुछ को आरोपों के पिंजरे में डाला जा रहा है, तो कुछ की देशभक्ति पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। जबकि, आम जनों के जीवन पर मुट्ठी भर पाला-पोसा जा रहा है, वहीं आम आदमी मर रहा है! इस कड़वे सच को कैसे ढांक कर रखेंगे आप?
–प्रकाश पोहरे
(संपादक– मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com

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