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नई गुलामी की ओर बढ़ रही नई शिक्षा नीति!

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–प्रकाश पोहरे (संपादक, मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

‘शिक्षा’ को सामाजिक परिवर्तन का साधन कहा जाता है, लेकिन सामाजिक परिवर्तन किस दिशा में होता है, यह मुद्दा और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति से शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण-वैश्वीकरण-उदारीकरण का खतरा काफी हद तक बढ़ गया है। इसलिए जरूरी है कि इस नीति का जड़ से उपचार किया जाए।

आजादी के बाद हुए सत्ता परिवर्तन में आम लोगों का शैक्षिक और समग्र सामाजिक परिवर्तन एक बहुत ही महत्वपूर्ण कदम था। संविधान के अनुच्छेद 17 ने देश में असमानता या अस्पृश्यता के सभी स्तरों को समाप्त कर दिया। अनुच्छेद 46 के माध्यम से यह माना जाता था कि आम जनता या आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों यानी पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और घुमंतू जातियों और जनजातियों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने के साथ-साथ उन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से सरकार द्वारा संरक्षण दिया जाएगा। परिणामस्वरूप, आजादी के बाद शिक्षा और नौकरियों के मामले में अवसर के द्वार खुल गए। इसलिए स्वाभाविक था कि कमजोर वर्ग के लोगों की उम्मीदों और आकांक्षाओं पर पानी फिरना स्वाभाविक ही था।

इसका परिणाम यह हुआ कि स्थापित शिक्षित, धनिक वर्ग को आम जनता में एक आभासी भय का अनुभव होने लगा। यदि इन सामान्य घटकों की सामाजिक-आर्थिक दुर्बलता को बनाए रखना है तो उन्हें शिक्षा से वंचित करना आवश्यक है। लेकिन संविधान के अनुच्छेद 46 के कारण शिक्षा से वंचित रखना संभव नहीं था। ऐसे समय में जब भारत की आजादी पचहत्तर साल की हो चुकी है, केंद्र सरकार ने एक बड़ा हथियार ढूंढ निकाला है। इससे दोहरे प्रहार की योजना है– एक ओर किसी को भी शिक्षार्जन से इनकार नही करना और दूसरी ओर शिक्षा को इतना महंगा कर देना कि वे धारा में न आने पाएं। सरल शब्दों में कहा जाए तो शिक्षा को पहले के समय में ‘मनुवादी’ सामाजिक व्यवस्था ने नकार दिया था और अब ‘मनी’वाद द्वारा शिक्षा के नकारे जाने का डर है। इसलिए इस पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। उसके लिए जरूरी है कि नई शिक्षा नीति का बारीकी से अध्ययन किया जाए।

नई शिक्षा नीति में, केंद्र सरकार ने घटक संख्या 7 में उप-शीर्षक 1-12 के तहत स्कूल परिसरों/ समूहों के लिए एक योजना प्रस्तावित की है। यह योजना 2025 तक पूरी हो जाएगी। 5 से 10 किमी के किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में 1 स्कूल परिसर बनाने की योजना है। परिसर में एक माध्यमिक विद्यालय होगा यू-डीआईएसई (स्कूल शिक्षा निदेशालय) के अनुसार, देश में प्राथमिक स्तर के 30 छात्र-संख्या नीचे वाले 28 प्रतिशत विद्यालयों, उच्च प्राथमिक स्तर के 14 प्रतिशत विद्यालयों को बंद करने का वातावरण तैयार किया जाएगा और उस परिसर में एकही स्कूल कॉम्प्लेक्स शुरू किया जाएगा। फिर इसका प्रबंधन, स्थानीय स्तर पर निजीकरण कर प्रबंधन समिति को सौंप दिया जाएगा। ऐसे स्कूल परिसरों में विभिन्न भौतिक सुविधाएं प्रदान किये जाने का आश्वासन दिया गया है।

यह योजना, गलियों में राशन की छोटी-छोटी दुकानों को बंद करके शहरों में एक ही मेगा मॉल बनाने जैसी है। इसका प्रतिकूल प्रभाव गांवों की बस्तियों पर पड़ेगा। यह नीति छोटे स्कूलों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करती है। इससे स्कूली शिक्षा का पूर्ण रूप से निजीकरण होगा और गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इस योजना से शिक्षा नीति उलटी दिशा में चलकर विकेंद्रीकरण से केंद्रीकरण की ओर उन्मुख होगी। इसके कारण आंखों के सामने जो खतरे दिखाई दे रहे हैं, उन्हें देखते हुए सरकार के स्तर पर वर्तमान में क्या गतिविधियां चल रही हैं, उनमें से कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं।

1) सभी छोटे एक शिक्षकीय, दो शिक्षकीय विद्यालयों को बंद किया जा रहा है। नई शिक्षा नीति के लागू होने से पहले भारत में 1 लाख 8 हजार 17 एक शिक्षकीय विद्यालय थे। इनमें 85 हजार 743 प्राथमिक विद्यालय थे। साथ ही भारत में कुल 15 लाख स्कूल थे। इनमें से 5 लाख स्कूलों में 50 से कम छात्र और 2 से कम शिक्षक हैं। ऐसी स्कूलों को धीरे-धीरे बंद किया रहा है। सुविधा देकर गांव-गांव जाने की बजाय सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए बच्चों को एक जगह बुलाने का उलटा चक्र शुरू कर दिया है।

2) अब से धीरे-धीरे जो तस्वीर बदलेगी वह इस तरह होगी– स्कूल परिसर की कमान डीएसई (स्कूल शिक्षा निदेशालय) संभालेगा। यह खतरनाक रूप से अर्ध-स्वायत्त होगा। उसके द्वारा सभी स्कूल परिसरों को पर्याप्त स्वायत्तता (निजीकरण) दी जाएगी।

3) स्थानीय स्तर पर सरकारी स्कूल और निजी स्कूल आपस में सहयोग करने के लिए नियमों में बदलाव करने या नए नियम बनाने लगे हैं। यह एक दूसरे की सामग्रियों को अनुमति देगा और बाध्य भी करेगा। संक्षेप में, बकरियों (सरकारी स्कूलों) को भेड़ियों के पास भेजा जाएगा।

4) कोठारी आयोग (1966) ने शैक्षिक समानता पैदा करने की अवधारणा अर्थात लगभग मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने और बहुत महंगे निजी स्कूलों को भी समाप्त करने की, सरकारी सामान्य स्कूलों की अवधारणा को तोड़ दिया और झूठा प्रचार किया कि स्कूल परिसर की अवधारणा फायदेमंद है।

5) इसके परिणाम स्वरूप विगत 15 वर्षों के दौरान समस्त शिक्षा अभियान के तहत गांव के कई दुर्गम क्षेत्रों में बने पक्के स्कूल भवन बर्बाद हो जायेंगे। जबकि ये भवन, लोगों के आयकर और अन्य करों पर सरचार्ज लगाकर एकत्र किए गए धन से बनाए गए हैं। दूसरे शब्दों में इसे जनता के साथ धोखा ही कहा जाना चाहिए।

6) स्कूल परिसर प्रबंधन समिति की स्थापना करके उसे सर्वाधिकार दिए जाएंगे। इसका मतलब यह है कि इस समिति के अलावा किसी अन्य सरकारी प्राधिकरण के पास कोई अधिकार नहीं होगा।

7) इस नई नीति में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ऑनलाइन, डिजिटल और दूरस्थ शिक्षा को प्राथमिकता दी जाएगी। आने वाले समय में डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर शिक्षकों/प्राध्यापकों का उन्मुखीकरण किया जायेगा। रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि छात्रों की परीक्षा ऑनलाइन लेने से मूल्यांकन भी ऑनलाइन होगा। यानी जिस तरह से कोविड काल में ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था लागू की गई, जिससे बच्चों के दिमाग घूम गए थे, यह वैसा ही प्रकार है।

इसका मतलब यह है कि सरकार धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है और शिक्षा क्षेत्र को निजी लॉबी के हवाले कर रही है। यह प्रक्रिया बहुत ही व्यवस्थित तरीके से और बहुत ही शांति से की जा रही है।

नतीजतन, मोदी सरकार के कार्यकाल में अब तक देश की लगभग 60,000 सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया गया है। मोदी सरकार ने पिछले नौ साल में एक भी यूनिवर्सिटी, एक भी स्कूल-कॉलेज नहीं बनाया है। बल्कि सरकार ‘नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ लागू कर रही है। जिसका अर्थ है कि सरकार धीरे-धीरे शिक्षा पर सरकारी खर्च को शून्य करने की कोशिश कर रही है। जनता को मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पाए, इसके लिए सरकार ने शिक्षा का पूरी तरह से निजीकरण करने का निर्णय ले लिया है। वास्तव में जहां अन्य देश अपनी कुल आय का 7 से 8 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं, वहीं भारत पिछले कई दशकों से शिक्षा पर केवल 2 से 3 प्रतिशत ही खर्च करता है।

‘जिसकी जेब भरी हो, उसका प्रवेश निश्चित’ के सिद्धांत के बाद शिक्षा को एक बाजारू वस्तु बनते देर नहीं लगेगी। नई नीति का यह पहलू बेहद खतरनाक है। इसलिए संलग्नीकरण की प्रक्रिया का होना बहुत जरूरी है। इससे एक और गंभीर खतरे की संभावना बढ़ जाती है। खासकर महाराष्ट्र के मामले में इसके और भी दूरगामी और गंभीर निहितार्थ हैं। यदि हम संबद्धता की इस व्यवस्था को बंद कर देते हैं, तो स्थायी गैर-सहायता प्राप्त कॉलेज बिना किसी जवाबदेही के और अधिक ‘मुहंजोर’ हो जाएंगे और शिक्षा को अस्त-व्यस्त कर देंगे। कोठारी आयोग ने कहा था कि भारत का भविष्य कक्षाओं से ही तय होगा। लेकिन अब असली सवाल यह है कि क्या ये क्लासरूम भविष्य में आम जनता के लिए उपलब्ध होंगे?

आज भी हम सबसे अनपढ़ देश के रूप में जाने जाते हैं। जिस देश में कभी नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय हुआ करते थे, उसी देश में अब दुनिया के शीर्ष 100 विश्वविद्यालयों में हमारे देश के एक भी विश्वविद्यालय का शामिल नहीं होना और शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में केवल 6 विद्यापीठों का शामिल होना, यह निश्चित रूप से गौरव की बात नहीं है। इन्फोसिस के निदेशकों द्वारा दर्ज मत के अनुसार वैश्विक स्तर पर चार हजार वैज्ञानिकों में केवल दस भारतीय वैज्ञानिक होने चाहिए, इसका क्या संकेत है?
नई शिक्षा नीति में इन बातों पर विचार करना जरूरी था, लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है। अतः इस नीति का सर्वांगीण रूप से विरोध करने के लिए जन-एकता का निर्माण करना आवश्यक है। हम सभी को छात्र-अभिभावक-शिक्षक-प्राध्यापक के रूप में और एक विवेकशील समाज बनाने के लिए एक जिम्मेदारी के रूप में इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि शिक्षा आपके-हमारे अस्तित्व की लड़ाई है, इसे भुलाया नहीं जाना चाहिए।

सरकार का एजेंडा निश्चित है, यानी देश में सरकारी शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से दर्जाहीन कर देना और समाज को फिर से कॉरपोरेट लॉबी का पिछलग्गू बनाना। यह एक बड़ी त्रासदी है कि इन निजी शिक्षा की दुकानों का अनियंत्रित प्रसार हो रहा है, जबकि कोई भी शिक्षा व्यवस्था में एक भी मुद्दे को उठाना नहीं चाहता। पूरी शिक्षा व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास हर जगह इस विश्वास के कारण सफल होता दिख रहा है कि उनका बच्चा निजी शिक्षा से अंकों की दौड़ में अव्वल होगा!

संक्षेप में कहें तो यह भारत को फिर से सामाजिक और शैक्षणिक गुलामी की ओर धकेलने की बहुत बड़ी साजिश है। सरकारी अनुदानित संस्थानों के जाल को तोड़कर निजी दुकानदारी को बढ़ावा देने से कौनसा नया भारत बनने जा रहा है? अगर जनता ने इसे नहीं पहचाना और समय रहते इसका विरोध नहीं किया, तो हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियां इन पूंजीपतियों की गुलामी करने लगें। गरीबों को तो अपने बच्चों को पढ़ाने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए. इसलिए सरकारी संस्थानों, स्कूलों और कॉलेजों को बचाने के लिए देश के जागरूक नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि अब वे ही प्रयास करें और आने वाली गुलामी को रोकें!
-प्रकाश पोहरे
(संपादक, मराठी दैनिक देशोन्नति, हिन्दी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
संपर्क : 98225 93921
2prakashpohare@gmail.com

 

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