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भारतीय राजनीति में पतन की सीमाएं

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

चुनाव ‘धन मुक्त‘ और ‘भय मुक्त’ होना चाहिए. साथ ही उन्हें धर्म, जाति, नस्ल और संप्रदाय के प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। लेकिन असल में दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माने जाने वाले हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के परिपक्व और आदर्श बनने से पहले ही इसका पतन शुरू हो गया था। उसके बाद चुनाव का स्वरूप बदलने लगा धन की शक्ति और दंड की शक्ति चुनावी प्रक्रिया में प्रवेश कर गई। ‘नोट लो, वोट दो’ का नारा बन गया. वोटों का बाज़ार भरने लगा। मतदाताओं को लालच दिया गया। इन चारे ने साड़ियों, वाशिंग मशीन से लेकर शराब तक की बढ़ती लहर को पकड़ लिया।

मतदाताओं को लुभाने के लिए धार्मिक उत्सवों का इस्तेमाल किया जाने लगा। वहीं कपड़े बदलते-बदलते नेता कितनी आसानी से दल और वैचारिक निष्ठाएं बदलने लगे! ‘आयाराम-गयाराम’ राजनीति का दूसरा मंत्र बन गया।

भले ही हम यह स्वीकार करें कि भारतीय राजनीति में इन सभी परिवर्तनों की शुरुआत करने वाले राजनीतिक नैतिक पतन की शुरुआत कांग्रेस के 60 वर्षों के दौरान हुई, लेकिन यह भी स्वीकार करना होगा कि भाजपा ने केवल एक दशक में ही इसकी परिणति कर दी। अगर आप भाजपा काल में हुए भ्रष्टाचार या घोटालों पर नजर डालें, तो पाएंगे कि कैसे यह केवल डकैती है! और कांग्रेस काल का भ्रष्टाचार साफ तौर पर जेबतराशी या चोरी के रूप में नजर आता है, और स्पष्ट करने के लिए, ऐसा लगता है कि अगर कांग्रेस ने बकरी की कमर खाई है, तो भाजपा ने हाथी की सूंड खाई है! भारतीय राजनीति में भाजपा द्वारा किये गये नैतिक पतन के पीछे ‘मनुवादी हिंदुत्व’ का निश्चित सूत्र है। मूलतः संघ की स्थापना उन ब्राह्मणवादियों ने की थी, जो सैकड़ों वर्षों से उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ‘हिन्दूराष्ट्र’ का सपना पाले हुए थे। इसमें ‘हिंदूराष्ट्र’ का बहाना था। ‘हिन्दूराष्ट्र’ का अर्थ है जाति व्यवस्था में सभी पांच वर्णों के लिए समान अधिकारों वाला राष्ट्र..! लेकिन असली उद्देश्य ब्राह्मण वर्चस्व यानी ‘मनुवादी हिंदूराष्ट्र’ की स्थापना था।

आडवाणी की ‘रथ यात्रा’ और ‘बाबरी मस्जिद’ घटनाओं ने चुनाव के एजेंडे को सांप्रदायिक तरीके से मोड़ दिया। गोधरा कांड तब हुआ, जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। इस घटना से उन्हें बहुत लाभ हुआ। वे देश में हिंदुओं के गले का हार बन गए। उनकी छवि को ‘विकास पुरुष’ के रूप में उभारना जरूरी था। साथ ही यह माहौल बनाना भी जरूरी था कि कांग्रेस निकम्मी और भ्रष्ट है। मोदी की मदद के लिए अडानी, अंबानी और कुछ उद्योगपतियों की फौज खड़ी हो गई। कांग्रेस सत्ता में थी फिर भी मीडिया पर कब्ज़ा इन लोगों ने कर लिया। संघ ने प्रशासन, पुलिस व्यवस्था, न्यायपालिका, शिक्षा व्यवस्था, मीडिया, व्यापारियों और उद्योगपतियों से मदद मांगी।

ग्लोबल मार्केटिंग कंपनियां मोदी की छवि बनाने के लिए काम करने लगीं। एक नकली ‘गुजरात मॉडल’ खड़ा किया गया। मोदी के बारे में सच्चाई का पता लगाने और उनकी आलोचना करने वालों को चुप कराने के लिए एक भाड़े के ‘भक्त गिरोह’ की स्थापना की गई थी। केजरीवाल, रामदेव बाबा और अन्ना हजारे अंतिम प्रहार करने के लिए दौड़ पड़े। आख़िरकार मोदी प्रधानमंत्री बने और देश की राजनीति का एक और नया अध्याय शुरू हुआ। सबसे बुरी बात यह है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद थोड़े ही समय में देश की राजनीति व्यक्ति-केंद्रित हो गयी। इसमें अमित शाह असली चाण्यक्य थे। उन्होंने मोदी के मुखौटे के पीछे अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया।

अमित शाह ने अडानी और अंबानी के माध्यम से देश की सभी प्रशासनिक एजेंसियों, ईडी, सीबीआई, सेना, न्यायपालिका जैसी जांच एजेंसियों, मीडिया को मोदी की आड़ में बांध दिया। कैबिनेट और पार्टी की सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को ख़त्म कर दिया गया। चूंकि देश की अर्थव्यवस्था को विकास की ओर ले जाने और देश को आधुनिक बनाने की कोई ठोस योजना नहीं थी, इसलिए उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, कृषि कानून, एनआरसी, धारा 370 हटाना, आग से बचाव, लॉकडाउन, टीकाकरण जैसे फैसले लेना शुरू कर दिया। देश के सामने झूठे आंकड़े फेंके गए। कोविड-19 आम आदमी के लिए आपदा और मोदी-शाह के उद्योगपति मित्रों के लिए वरदान हो गया। इस दौरान भी जनता की दुर्दशा से ध्यान हटाने के लिए ताली, थाली और लाइट जैसी बचकानी सामूहिक कवायदें की गईं। थोड़े ही समय में अपनी पसंद के एक-दो उद्योगपतियों ने देश के सार्वजनिक उद्यमों पर कब्ज़ा करने की योजना बना ली। कृषि कानून देश के कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों के गले उतारने के लिए बनाए गए थे। कश्मीर, लद्दाख, मणिपुर जैसे राज्य, जो प्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत समृद्ध हैं, वहां मित्रों को मजबूर करने के लिए कानून बदल दिए गए। देश की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा लगभग सस्ते दाम पर दो-चार उद्योगपतियों के हाथों में चला गया। चंद उद्योगपतियों के लाखों करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिये गये। बैंकों को दिवालिया बनाने वाले कई उद्योगपतियों को दिनदहाड़े देश से बाहर निकाल दिया गया। देश पर कर्ज का पहाड़ कई गुना बढ़ गया। जीडीपी में गिरावट शुरू हो गई। रुपये की कीमत गिरने लगी। महंगाई बढ़ गयी और मंदी आ गई। बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई। दूसरी ओर, इन सबके समापन के लिए, पटेल की भव्य मूर्ति, राम मंदिर आदि का निर्माण किया गया। हम जो कार्य और गलतियाँ कर रहे हैं, उन पर पर्दा डालने के लिए, जनता के बुनियादी सवालों को दरकिनार करने के लिए लगातार तरह-तरह के विवाद खड़े किए जा रहे हैं। धार्मिक उन्माद भड़काया गया। पाखंडियों-बाबाओं और महाराजों की सेना को स्वतंत्र कर दिया गया। लोगों को आरक्षण के मुद्दे पर उलझाने के लिए मीडिया ने लोगों को 24 घंटे इसी प्रकार की बहसों में डुबाना शुरू कर दिया। यहीं से ‘गोदी मीडिया’ शब्द का जन्म हुआ। मोदी ने शुरू से ही तय कर लिया था कि उन्हें पत्रकारों का सामना नहीं करना है। उन्होंने जनता से एकतरफ़ा संवाद करना शुरू किया।

‘आज से 25 वर्ष बाद हम महाशक्ति बन जायेंगे’ के सपनों में लोग डूबते रहे। तो क्या मोदी के सत्ता में आने से पहले देश आदिम, अधनंगा, देहाती, असभ्य, भूखा, बेरोजगार, विज्ञान से अनभिज्ञ, दुनिया में बेकार था!? लेकिन साथ ही, जो कोई विरोध करता है, जो कोई आलोचक है, जिससे थोड़ा-सा भी खतरा है, उसे हर तरह से हटा दिया जाता है। मोदी और अमित शाह के कहने पर ही ईडी और सीबीआई ने विपक्ष पर हमला करना शुरू किया। सर्वोच्च न्यायालय और कुछ कनिष्ठ न्यायाधीशों को छोड़कर, न्यायपालिका भी इस मुकदमे में बंधी हुई थी। लोया नामक जज, जिन्होंने अमित शाह को मुसीबत में डाला था, उनकी संदिग्ध मौत के बाद से ‘सावधान रहें, नहीं तो आपका भी लोया हो जाएगा’ मुहावरा लोकप्रिय हो गया।

इन सबके कारण विपक्षी नेता बिना मुकदमा चलाए ही जेल में सड़ने लगे। बुद्धिजीवियों को ‘शहरी नक्सली’ करार देकर आतंकवादियों जैसा व्यवहार किया जाने लगा। इसके विरुद्ध पार्टी के अपराधियों, बलात्कारियों, भ्रष्ट नेताओं को ‘देशभक्त’ और ‘संस्कारी’ कहा जाने लगा। ‘चुपचाप हमारी पार्टी में आएं और मोदी के चरणों में झुकें, या फिर जेल जाएं’, यह राजनीतिक विकल्प बन गया। कई विपक्षी नेता जो मूलतः भ्रष्ट थे, विश्वासघात से ‘असहाय’ हो गये। जिन लोगों ने इस विकल्प को स्वीकार कर लिया, वे लाल बत्ती वाली गाड़ी से चलने लगे। उन पर लगे सभी आरोप हटा दिये गये और उन्हें ‘शुद्ध’ कर दिया गया।

एक पार्टी के रूप में भाजपा एक ‘वॉशिंग मशीन’ बन गई है, जो अनैतिक कार्य करने वाले सभी लोगों को धोकर शुद्ध कर देती है। जिन लोगों ने इस विकल्प को अस्वीकार कर दिया, उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेज दिया गया। साथ ही मोदी ने देश के सभी महत्वपूर्ण पदों पर वफादार ‘यस मैन’ को बिठाने की योजना बनाई है। किसी भी पद पर आने वाले व्यक्ति की पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि किसी महत्वपूर्ण पद पर कोई व्यक्ति मोदी के आदेशों का पालन करने में विफल रहा, तो उसे हटा दिया गया। इससे अधिकारियों और नेताओं की एक फौज ‘जो हुकुम महाराज’ कहती हुई उठ खड़ी होने लगी। आदेश का पालन करने वालों को पद दिये जाने लगे।

मोदी और अमित शाह की एक रणनीति विपक्ष के कांटे को हटाना है, या फिर विपक्षी दलों को तोड़ना और उनमें विद्रोह पैदा करना है। टूटे गुट को चुनाव आयोग असली पार्टी के रूप के मंजूरी देने लगा। विपक्षी दलों के नाम बदल दिये गये, चुनाव चिन्ह बदल दिये गये, खाते फ्रीज कर दिये गये। उन पर कर और जुर्माना लगाया गया। प्रतिद्वंद्वी को विरोध की स्थिति में नहीं रखना चाहिए, बल्कि उसे ख़त्म कर देना चाहिए। अगर ये काफी नहीं है, तो फिर ईवीएम तो है ही!

इन सब की परिणति है चुनावी बांड, चंदे के नाम पर उगाही की शाही मान्यता! फिर, जनता को पता नहीं चलेगा कि किसने किसको चंदा दिया, लेकिन सरकार को पता चल जाएगा। रंगदारी दो, नौकरी पाओ, ईडी पर हमला करो या रंगदारी दो! लोग बेकार के सवाल नहीं पूछना चाहते। जैसे कोई कंपनी अपने मुनाफे का कई गुना कैसे दान कर सकती है? घाटे में चल रही कंपनी हजारों करोड़ के बॉन्ड कैसे खरीद सकती है? लूट-खसोट की इस शृंखला में सरकार का भागीदार कौन है? जनता के पैसे से चलने वाला भारतीय स्टेट बैंक….!

‘चुनावी बॉन्ड’ भाजपा के राजनीतिक भ्रष्टाचार के हिमशिखर का सिरा है। साथ ही भारतीय राजनीति में पतन की सीमा भी है। यहां तक ​​कि यह टिप सामने आने पर बीजेपी नेताओं ने जो किया, वह राजनीतिक बेशर्मी की हद है। ‘यह काले धन को बाहर निकालने का एक ईमानदार प्रयास है’, ‘चुनावी बांड चेक द्वारा लिए जाते हैं, इसलिए यह सफेद धन है’, ‘तुलनात्मक रूप से कांग्रेस के पास अधिक पैसा है’, ‘यह एक ईमानदार प्रयोग था’, ऐसे सभी प्रयोग हो सकते हैं। गुमराह करने वाले ऐसे बयान भाजपा और संघ नेताओं ने दिए। पीएम केयर फंड को अभी भी पूरी तरह से वित्त पोषित नहीं किया गया है।

असली सवाल यह है कि भारतीय राजनीति का यह पतन हमें कहां ले जाएगा! बीजेपी का लक्ष्य साफ है, 400 पार। मोदी रूस के पुतिन की तरह सत्ता में ही मरना चाहते हैं। असली सवाल यह है कि क्या इससे संघ सहमत है? संघ ने अब ‘गुजरात मॉडल’ की तर्ज पर ‘यूपी मॉडल’ का प्रचार करना शुरू कर दिया है। सभी अंधभक्त अब यूपी की अपार प्रगति की बात कर रहे हैं (बिना यूपी को चलते हुए देखे)! क्या इससे यह नहीं पता चलता कि योगी आदित्यनाथ अगले नेता होंगे? इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय राजनीति की ‘मोदी से योगी’ तक की यात्रा राजनीति के पतन और ‘भारत’ नामक लोकतंत्र के अंत का एक नया अध्याय होगी! अगर देश को बचाना है, तो इस चुनाव के माध्यम से इस यात्रा को यहीं रोकना होगा और ये यात्रा रुकेगी तो ही देश जरूर बचेगा….

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-प्रकाश पोहरे
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