अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद अब तालिबान ही काबुल का भाग्य विधाता है। ऐसे में दुनियाभर के देश तालिबान से संपर्क कर संबंधों को बढ़ा रहे हैं। इस लाइन में दो ऐसे दुश्मन भी शामिल हैं, जो तालिबान पर ज्यादा से ज्यादा प्रभाव छोड़ना चाहते हैं। इन दोनों दुश्मनों के नाम भारत और पाकिस्तान हैं। हालांकि, चार साल पहले काबुल की सत्ता पर कब्जा करने के बाद भी भारत और पाकिस्तान में से किसी भी देश ने तालिबान के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार को औपचारिक मान्यता नहीं दी है। तालिबान को भी इन दोनों देशों की बहुत जरूरत है। लेकिन सवाल यह है कि तालिबान किसे अपनी पहली पसंद बनाएगा। इस्लाम के नाम पर बने पाकिस्तान को या फिर इस दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत को।
तालिबान ने 22 अप्रैल को जम्मू और कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले की खुलकर निंदा की थी। इसके बाद जब भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन सिंदूर शुरू किया, तब भी तालिबान खामोश रहा। इसे काबुल की भारत समर्थक नीति के तौर पर देखा गया। इसी कारण पाकिस्तान के साथ संघर्ष रुकने के कुछ दिनों बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी से बात की और हमले की निंदा करने के लिए उनका धन्यवाद दिया। यह 2021 में अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की वापसी के बाद पहला मौका था, जब भारतीय विदेश मंत्री ने तालिबान के किसी नेता से बात की थी।
भारत भी तालिबान से संबंध बढ़ा रहा
भारत पिछले दो वर्षों से काबुल के साथ सावधानीपूर्वक रिश्तों को बढ़ा रहा है। भारत लगातार अफगानिस्तान में भोजन, दवाइयां और टीके भेज रहा है। इसका अलग-थलग पड़े तालिबान ने स्वागत किया है। जनवरी में, विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने दुबई में तालिबानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी के साथ व्यापार और क्षेत्रीय सुरक्षा पर बातचीत की थी। इस कूटनीतिक प्रयास को दक्षिण एशिया की बदलती भू-राजनीतिक वास्तविकताओं को नई दिल्ली द्वारा मान्यता दिए जाने के रूप में देखा गया। शुरुआत में, तालिबान की वापसी दिल्ली के लिए एक कूटनीतिक झटका थी क्योंकि भारतीय अधिकारियों को डर था कि यह देश एक बार फिर पाकिस्तानी आतंकवादियों का अड्डा बन जाएगा। लेकिन अब हालात बदल गए हैं।