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Turkiye में Erdogan की जीत के पीछे कट्टर इस्लाम की ताकत
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जानिए दुनिया पर तुर्किये के चुनावी नतीजों का क्या पड़ेगा असर
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बड़ी आबादी ने एर्दोगान के शासन के विरोध में किया मतदान
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तुर्किये के चुनावी नतीजों पर पश्चिमी देशों की थी पैनी नज़र
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कश्मीर पर क्या रहेगा एर्दोगान का स्टैंड?
विकास कुमार
रेसेप तैयप एर्दोगन तुर्किये के राष्ट्रपति का चुनाव जीत गए हैं। बताया जा रहा है कि उन्हें 53 फीसदी वोट मिले हैं। तुर्किये के गांधी कहे जाने वाले कमाल केलिचडारोहलू को 47 फीसदी मत ही मिल सके हैं। इसी के साथ तुर्की की सत्ता में एक बार फिर एर्दोगन की वापसी हो चुकी है। इससे पहले हुए चुनाव में एर्दोगन और केलिचडारोहलू में से किसी को बहुमत नहीं मिल सका था।तुर्किये में राष्ट्रपति बनने के लिए चुनाव में कम से कम 50 फीसदी वोट पाना जरूरी होता है।
कमाल अतातुर्क के बाद एर्दोगन को ही तुर्किये का सबसे कद्दावर और प्रभावशाली नेता के तौर पर माना जाता है। कमाल अतातुर्क ने देश को एक सेकुलर जमीन दी थी जबकि एर्दोगन को इस्लामीकरण का जिम्मेदार माना जाता है। बताया जा रहा है कि कट्टर इस्लामिक वोटरों की वजह से ही एर्दोगान को जीत मिली है।
भौगोलिक लिहाज से तुर्किये की लोकेशन बहुत अहम है। जमीनी लिहाज से वह एशिया और यूरोप को जोड़ता है। इसका पूर्वी सिरा सीरिया और इराक के इलाकों से जुड़ा है और पश्चिमी सिरा यूरोप में ग्रीस और बुल्गारिया से जुड़ा है। तुर्किये के नीचे वह मिस्र की स्वेज नहर के जरिए हिंद महासागर से भी जुड़ता है। यानी रणनीतिक लिहाज से काले सागर के देशों को हिन्द और अटलांटिक महासागर से जोड़ने वाला रास्ता तुर्किये नियंत्रित करता है। इस भौगोलिक दृष्टि से रूस-यूक्रेन युद्ध में तुर्किये और एर्दोगन की भूमिका भी कम नहीं रही है।
तुर्किये में एर्दोगान की जीत को कट्टर इस्लाम की जीत बताया जा रहा है। इस लिहाज से तुर्किये कश्मीर के मुद्दे पर खुलकर एक बार फिर पाकिस्तान का साथ दे सकता है। भारत सरकार को इस समस्या से निपटने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है।
चुनाव में जीत हासिल करने के बाद तुर्किये एक बार फिर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मजबूत रिश्ते बनाएगा। इससे अमेरिका और यूरोप को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। तुर्किये की पीड़ाएं और भी हैं। वह कहने को एशियाई देश है लेकिन उसकी चाहत हमेशा से यूरोपीय यूनियन से जुड़ने की रही है। लेकिन तुर्किये से आशंकित रहने वाले यूरोप के देश इसका विरोध करते रहे हैं। इसलिए तमाम कोशिशों के बावजूद तुर्किये की यूरोपीय यूनियन का सदस्य बनने की इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई। एर्दोगान की यह तकलीफ इस बात से और बढ़ जाती है कि लेबनान के बहुत निकट समुद्र में बैठा साइप्रस जैसा देश यूरोपीय संघ का सदस्य है, लेकिन तुर्किये नहीं।
रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के दौर में नाटो की नीतियों के सिलसिले में भी एर्दोगन काफी मुखर रहे हैं। फिनलैंड और स्वीडन को नाटो की सदस्यता देने के मुद्दे पर भी तुर्किये लगातार विरोध करता रहा है। नाटो में सारे फैसले आम सहमति से लिए जाने की परंपरा है। चूंकि कुर्द बागियों को यूरोप के देशों से मिल रहे समर्थन से तुर्किये हमेशा से खफ़ा रहा है। इसलिए वह रूसी हमले के मद्देनजर फिनलैंड और स्वीडन की नाटो की सदस्यता के आवेदन में अड़ंगा लगाता रहा। बातचीत और सौदेबाजी के बाद आखिरकार तुर्किये ने इसके लिए रजामंदी दे दी। हालांकि रूस से अपनी नजदीकी और यूक्रेन-रूस युद्ध को लेकर अपना तटस्थ रवैया तुर्किये ने अभी छोड़ा नहीं है।