अखिलेश अखिल
कहने को जीत के डंके तो सब बजा रहे हैं लेकिन भीतर से हालत पतली है। इंडिया के पास हालांकि खोने के लिए यूपी में बहुत कुछ नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि इस बार के चुनाव में भी बीजेपी जीत जाए और इंडिया गठबंधन को हार मिले। लेकिन अगर परिणाम पलट गए तब क्या होगा ? केवल इसकी कल्पना ही की जा सकती है। बीजेपी की हार होती है तो उसका क्या असर होगा इसके बारे में बीजेपी के लोग भी बात करने से घबराते हैं।
कई बीजेपी वाले कहते हैं कि यूपी में हार का मतलब है बीजेपी का खत्म होना। कुछ बचेगा नहीं। कई नेता की राजनीति ख़त्म होगी और अगर इंडिया की सरकार बन गई तो कई नेता जेल भी जा सकते हैं। इसलिए बीजेपी को हर हाल में चुनाव जीतने के लिए बाजी लगाने की जरूरत है। बीजेपी वाले यह भी मानते हैं कि जब सत्ता परिवर्तित होगी तो इसी प्रदेश में जो लोग कई सैलून से लाभ कमा रहे हैं और सत्ता की ताकत से सामने वालों को कमजोर रहे हैं वे भी जेल जाएंगे। कोई बचा नहीं पायेगा। इसलिए यूपी में बीजेपी को पूरी ताकत से लड़ाई लड़नी है और सत्ता में लौटना भी होगा।
लेकिन यह सब इतना आसान है ? क्या इतना आसान है बीजेपी के लिए कि वह फिर से 2014 और 2019 की तरह ही चुनाव में बेहतर परफॉर्मेंस कर जाए। याद रहे बीजेपी की जीत की उपलब्धि पिछले दो बार से सबसे ज्यादा ऊंचाई पर रही है। यह बीजेपी के लिए सबसे चरम काल रहा है। अब इससे आगे न सीट है और न ही जीत की उम्मीद। बीजेपी की मज़बूरी यही है कि उसे अब अपनी मौजूदा स्थिति को बनाये रखने की ही चुनौती है। हर राज्यों की अधिकतर सीटें बीजेपी ने जीती हैं और सत्ता तक पहुंची है। यूपी की भी अधिकतर सीटें बीजेपी को मिली है। अब इससे आगे की कल्पना नहीं की जा सकती है।
यूपी में इंडिया के घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे का फॉर्मूला जल्द तय होने की उम्मीद है। सपा, कांग्रेस, रालोद और अन्य घटक दलों के बीच अंदरखाने मंथन शुरू हो गया है। हालांकि, सीटवार इसे भाजपा के पत्ते सामने आने के बाद ही सार्वजनिक किया जाएगा।
लोकसभा सीटों के लिहाज से देखें तो यूपी में फिलहाल विपक्षी समावेशी गठबंधन इंडिया के घटक दलों की स्थिति अच्छी नहीं है। लोकसभा में भाजपा के बाद सबसे बड़े दल कांग्रेस के पास यूपी में मात्र एक सीट रायबरेली है। वर्ष 2019 के चुनाव में सपा को 5 सीटें मिली थीं और बाद में इनमें से दो सीटें आजमगढ़ और रामपुर उसने उपचुनाव में खो दीं।
इस तरह से वर्तमान में सपा के पास मैनपुरी, मुरादाबाद और संभल लोकसभा तीन सीटें ही हैं। रालोद और अन्य सहयोगी दल यहां शून्य पर हैं। विधानसभा चुनाव के लिहाज से देखें तो सपा यहां भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी ताकत है, जिसके नाते उसके नेता चाहते हैं कि लोकसभा चुनाव में उनके पक्ष को तरजीह मिले। वहीं राजनीतिक सूत्रों के अनुसार, सीटों के मुद्दे पर मंथन चक्र में कांग्रेस के नेताओं का तर्क है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव की प्रकृति अलग-अलग है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि वर्ष 2014 में जब यूपी में सपा सरकार थी, तब लोकसभा में उसे मात्र पांच सीटें ही मिली थीं।
दूसरा, लोकसभा के मद्देनजर यूपी में कांग्रेस और सपा की ताकत में कोई खास फर्क नहीं है। इसलिए विधानसभा की सीटों के आधार पर लोकसभा चुनाव के लिए फार्मूला तय करने की समझ को जायज नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए बड़े परिप्रेक्ष्य में खुले मन से सीटों के मुद्दे पर बात होनी चाहिए, ताकि मिलकर भाजपा के अभेद्य माने जा रहे राजनीतिक किले को ढहाया जा सके।
खबरों के मुताबिक, कांग्रेस यूपी में 25-30 सीटें मांग रही है, पर बात 15-20 सीटों पर बन सकती है। आरएलडी को विधानसभा चुनाव में सपा से साझेदारी के तहत 33 सीटें दी गई थीं और इसी आधार पर लोकसभा चुनाव में 4-5 सीटें दी जा सकती हैं। करीब 50 सीटों पर सपा लड़ेगी और 5-10 सीटें अन्य सहयोगी दलों को छोड़ी जा सकती हैं। अन्य सहयोगी दलों के लिए इंडिया की विशेष रणनीति के तहत पश्चिम में चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी के भी एक-दो नेताओं को चुनाव लड़ाया जा सकता है।
कुर्मी मतदाताओं को लुभाने के लिए नीतीश कुमार को भी पूर्वांचल से लड़ाने के लिए गंभीरता से विचार चल रहा है। तृणमूल कांग्रेस को भी एक सीट दिए जाने की चर्चा जोरों पर है। सूत्रों के मुताबिक, सीटों पर प्रत्याशी की आधिकारिक घोषणा करने से पूर्व भाजपा के टिकट देने के समीकरणों को भी ध्यान में रखा जाएगा। इसलिए सीटवार चेहरे घोषित करने में कोई जल्दबाजी नहीं की जाएगी।
ऐसे में अब सगुनौटी बीजेपी की है। बीजेपी को अपनी स्थिति को कायम रखने की चुनौती है जबकि इंडिया गठबंधन को आगे बढ़ने की चुनौती है।