डॉक्यूमेंट्री फिल्म क्रिमसन क्रेसेंट – द लास्ट क्वार्टर का प्रीमियर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित किया गया। यह फिल्म एक बड़ा सवाल उठाती है कि क्या सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान (MBS) इस्लामी दुनिया में वही बदलाव ला रहे हैं, जो गोर्बाचेव ने सोवियत संघ में या कमाल पाशा अतातुर्क ने तुर्की में लाया था? फिल्म 1989 की उस रात की याद दिलाती है, जब बर्लिन की दीवार गिरी थी और एक विचारधारा खत्म हो गई थी। सवाल यह है कि क्या सऊदी अरब का 1.5 ट्रिलियन डॉलर का स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट NEOM भी ऐसा ही पल बन सकता है? क्या यह वहाबी सोच को बदलकर तर्क, नई सोच और शांति को बढ़ावा दे सकता है?
पिछले 40 सालों में सऊदी अरब ने वहाबी सोच को फैलाने के लिए 100 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च किए, अफ्रीका से दक्षिण एशिया तक मस्जिदों और मदरसों को पैसा दिया। क्रिमसन क्रेसेंट – द लास्ट क्वार्टर इस पैसे के सफर को दिखाती है और बताती है कि इसने समाज को कैसे प्रभावित किया, कट्टरता को बढ़ाया और लोगों की सोच को बदला। अब MBS के नेतृत्व में सऊदी अरब AI, बायोटेक और आधुनिक शहरों में पैसा लगा रहा है। NEOM पर 1.5 ट्रिलियन डॉलर का भारी खर्च सऊदी खजाने को लगभग खाली कर चुका है, जिससे वहाबी फंडिंग के लिए अब पैसे नहीं बचे। यह फिल्म NEOM को सिर्फ एक शहर नहीं, बल्कि शांति और तकनीक को जोड़ने वाला एक क्रांतिकारी कदम मानती है। यह सवाल उठाती है कि क्या यह सिर्फ बाहरी चमक है, या ऐसी दीवार में पहली दरार है जिसे पहले अटल माना जाता था?
यह फिल्म बदलाव की कहानी दिखाती है, जिसमें एक खास पल है अबू धाबी में भव्य हिंदू मंदिर का उद्घाटन, जहां अमीरात के शेख और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक साथ खड़े थे। उस इलाके में, जहां सदियों तक मूर्तियों को गलत और मजहबी तौर पर गुनाह माना गया, वहां आज एक मंदिर खड़ा है—सुरक्षित, सम्मानित और दिल से अपनाया गया। फिल्म इसे सिर्फ दिखावा नहीं, बल्कि सोच में बड़े बदलाव का प्रतीक मानती है।
फिल्म का सबसे गंभीर हिस्सा कुछ अध्ययनों को उजागर करता है, जो दिखाते हैं कि कुछ मदरसों में पढ़े बच्चे मजहबी आधार पर हिंसा को सही मानते हैं। Combating Terrorism Center और International Crisis Group के अध्ययन बताते हैं कि इंडोनेशिया के कुछ मदरसों में 91% छात्र गैर-मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को जायज मानते हैं। “उदार” कहे जाने वाले मदरसों में भी 35% छात्र ऐसा ही सोचते हैं। भारत में, जहां 5 लाख से ज्यादा मदरसे हैं, यह आंकड़े चिंता बढ़ाते हैं। फिल्म 2024 के गणेश विसर्जन पर हुए 17 सुनियोजित हमलों में इस सोच की झलक दिखाती है, जहां युवाओं ने शहरों में हिंसा की।
एक गलत धारणा है कि इस्लामी आतंकवाद का शिकार सिर्फ दूसरे धर्मों के लोग होते हैं। फिल्म Fondapol के अध्ययन के आधार पर बताती है कि 91.2% पीड़ित मुसलमान ही हैं—चाहे पाकिस्तान में शिया मस्जिदों पर हमले हों चाहे अफगानिस्तान में बाजार या स्कूल हों, या अमेरिकी हमलों में मारे गए निर्दोष लोग। यह विचारधारा, जो इस्लाम की रक्षा का दावा करती है, उसी समुदाय को राजनीतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक नुकसान पहुंचा रही है।
यह फिल्म धर्मों की तुलना या मजहबी विवादों की बात नहीं करती है। यह तर्क, वैज्ञानिक सोच और आपसी सम्मान की बात करती है। फिल्म चीन में उइगर मुसलमानों के दमन पर ध्यान देती है। 1 करोड़ से ज्यादा उइगर झिंजियांग में हिरासत शिविरों, जबरन नसबंदी और विचार थोपे जाने का शिकार हैं। फिर भी, तुर्की जैसे ज्यादातर मुस्लिम देश चुप हैं, जबकि उइगरों का तुर्की से सांस्कृतिक और भाषाई रिश्ता है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि अगर अपने ही धर्म और नस्ल के लोग नजरअंदाज किए जाएं, तो “इस्लामी एकता” का क्या मतलब रह जाता है? यह चीन पर उंगली नहीं उठाती, बल्कि इस्लामी दुनिया की चुप्पी पर सवाल उठाती है।
सऊदी अरब ने वहाबी सोच को बढ़ावा देने वाली फंडिंग को कुछ हद तक रोका है, लेकिन यह कितना सच्चा है, वक्त बताएगा। भारत को उन सालों का मुआवजा मांगना चाहिए, जब वह इस चरमपंथ से जख्मी हुआ। भारत ने भारी कीमत चुकाई है। एसोचैम, एशिया इकोनॉमिक्स इंस्टीट्यूट और इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस के आंकड़े बताते हैं:
26/11 मुंबई हमलों में 100 अरब डॉलर का नुकसान, जिसमें 20 अरब डॉलर का विदेशी निवेश शामिल।
2017 में आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा से 1 ट्रिलियन डॉलर (PPP में) का नुकसान
2020 तक यह नुकसान 646 अरब डॉलर
क्रिमसन क्रेसेंट – द लास्ट क्वार्टर आम लोगों से सीधी बातचीत दिखाती है। निर्देशक मयंक जैन मेवात, सुंदर नगरी, बंगाल और असम के इलाकों में घरों, मदरसों और गलियों में जाकर बात रिकॉर्ड करते हैं। कई साक्षात्कारों में मदरसे के छात्र गैर-मुसलमानों को ‘काफिर’ कहते हैं और दावत व जिहाद की बात करते हैं। दिल्ली के सुंदर नगरी में, जब जैन ने एक मदरसा शिक्षक और छात्रों से ‘काफिर’ के बारे में पूछा तो वहां भीड़ जमा हो गई। सवाल शांत थे, लेकिन लोगों का गुस्सा साफ दिखा। साक्षात्कार अचानक रोकना पड़ा। भीड़ का रवैया डरावना था, संदेश साफ था कि ऐसे सवाल बर्दाश्त नहीं। कोई हिंसा नहीं हुई, लेकिन डर का माहौल बन गया और फिल्म इसे वैसा ही दिखाती है।
क्रिमसन क्रेसेंट – द लास्ट क्वार्टर पत्रकार और फिल्मकार मयंक जैन की 20 साल पहले बनी फिल्म बंगला क्रेसेंट – ISI, मदरसे और घुसपैठ की अगली कड़ी है, जिसे KPS गिल, प्रकाश सिंह और RK ओहरी जैसे सम्मानित IPS अधिकारियों ने जारी किया था। उस फिल्म ने खतरे की चेतावनी दी थी। यह फिल्म दिखाती है कि वह खतरा अब भी सामने है लेकिन अब शायद बदलाव शुरू हो रहा है।
जैन ने दो दशकों में बेबाक पत्रकारिता और जमीन से जुड़ी खबरों के लिए नाम कमाया। उनकी 2007 की फिल्म इंडिया टुमॉरो: द गुजरात मिरेकल को राजनाथ सिंह और अरुण जेटली ने जारी किया था। 2017 में मेनका संजय गांधी ने उनकी फिल्म एविडेंस – मीट किल्स को जारी किया, जो मांस उद्योग और स्वास्थ्य पर खुलासा थी। छत्तीसगढ़ के जंगलों में नक्सलियों के गढ़ों से लेकर डेथ वारंट तक, जो तंबाकू, शराब, नकली दवाओं और मिलावटी खाने के खिलाफ अभियान थी, जैन का कैमरा हमेशा वहां गया, जहां ज्यादातर कैमरे नहीं जाते।
क्रिमसन क्रेसेंट – द लास्ट क्वार्टर एक साधारण ,लेकिन जरूरी बात के साथ खत्म होती है कि अब समय आ गया है कि एकमात्र सत्य पर दावा करने वाली सोच को अलविदा कहा जाए। पूरी कौमों को ‘काफिर’ कहने और जिहाद के नाम पर हिंसा को सही ठहराने की सोच ने आध्यात्मिक ताकत नहीं, बल्कि सामाजिक बर्बादी दी है। इसके नतीजे साफ हैं—राजनीतिक और मजहबी अलगाव, हिंसा और बदले की अंतहीन दौड़। फिल्म कहती है कि अब न दिखावटी अंतर-धर्म समारोह चाहिए, न भावनात्मक एकता की अपील, बल्कि तर्क की ओर लौटने की जरूरत है। तर्क कोई पश्चिमी विचार नहीं है। यह भारत की सभ्यता की जड़ है, धर्म का आधार है और अब विश्व शांति का एकमात्र रास्ता है। अपनी सोच को सबसे सही मानने और एकमात्र सत्य के पुराने दावों से छुटकारा पाना होगा। संदेह करने, सोचने और बात करने की ताकत कमजोरी नहीं, बल्कि असली शक्ति है। दूसरों के साथ शांति से जीने की मानवीय इच्छा को साफ सोच पर टिकना होगा, भ्रम पर नहीं। यह कोई ख्याली विचार नहीं है। यह वह विचार है, जिसका समय आ चुका है।
यह फिल्म किसी नतीजे पर नहीं पहुंचती, बल्कि एक सवाल के साथ खत्म होती है कि क्या NEOM सिर्फ एक और चमकता शहर बनकर रह जाएगा? या यह वह जगह होगी, जहां बदलाव की हवा सचमुच बहने लगी?या जैसे गोर्बाचेव अपने शुरू किए बदलावों के नतीजों को नियंत्रित नहीं कर सके, वैसे ही MBS भी शायद अपने कदमों के असर को पूरी तरह न संभाल सकें। लेकिन क्रिमसन क्रेसेंट – द लास्ट क्वार्टर दिखाती है कि एक खिड़की खुल चुकी है, और इतिहास फिर से इसके रास्ते आ सकता है।