अखिलेश अखिल
राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं और जो असंभव है वह राजनीति के लिए संभव है। यहाँ न स्थाई दुश्मन है और न ही दोस्त। जरूरत पड़ते ही दशम भी दोस्त हो जाते हैं और जरूरत ख़त्म होते ही दोस्त भी दुश्मनी कर लेते हैं। राजनीति का यही चलन है। इस चलन से राजनीति आगे बढ़ती है और नेता लोग दसचार की बाते करते नहीं थकते। हाल में ही यूपी में सुभासपा अध्यक्ष राजभर ने बीजेपी के साथ गए। इससे पहले वे बीजेपी को गलियां देते थे ,पीएम मोदी और सीएम योगी के लिए क्या कुछ कहते थे उनके बयान आज भी मीडिया में दर्ज हैं। लेकिन जरूरत पड़ी तो बीजेपी ने फिर से उन्हें अपनाया और और फिर मतमस्तक होकर राजभर भी बीजेपी के साथ चले गए। ऐसे ढेरों उदहारण आप देख सकते हैं।
उधर ,महाराष्ट्र को ही लीजिये। शिंदे और बीजेपी वाले अजित पवार को क्या -क्या नहीं कहते थे। उनके ऊपर घपले का आरोप लगाकर प्रचार किये जाते थे। ईडी की जाँच भी कराई गई। कहा जाता था कि जल्द गिरफ्तारी भी होगी। लेकिन वही अजित पवार सत्ता के साथ चले गए। बीजेपी ने उन्हें स्वागत के साथ अपनाया और अब खेल यह भी है कि अजित पवार सीएम भी बनने वाले हैं। राजनीति का यही रंग भ्रमित करता है। चरित्रहीन राजनीति में भला नेता कैसे चरित्रवान हो सकता है ?
अब मायावती को ही लीजिये। वह यूपी में कई बार सीएम रह चुकी है। देश में डेल्टन की सबसे बड़ी नेता मानी जाती रही। लेकिन समय बदला और देश का मिजाज भी बदला तो आज मायावती पार्टी को सिर्फ ढो रही है। भविष्य क्या होगा कोई नहीं जानता। कहने को वह कह रही है कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। किसी गठबंधन में नहीं जाएगी लेकिन सच यह नहीं है। सच यही है कि अभी वह बीजेपी और जान एजेंसियों के दबाब में है और मौका मिलते ही वह दवाब से बहार आएगी और फिर किसी गठबंधन से जुड़ जाएगी।
सच तो यही है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती अगले लोकसभा चुनाव से पहले किसी तरह से तालमेल करने का रास्ता तलाश रही हैं। अभी तो उन्होंने ऐलान किया है कि वे राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अकेले लड़ेंगी। लेकिन उनको भी पता है कि उन राज्यों में उनका कुछ भी दांव पर नहीं है। लेकिन लोकसभा में उनकी 10 सीटें दांव पर हैं। पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल करके लड़ने से उनकी पार्टी के 10 सांसद जीते थे। उससे पहले 2014 में अकेले लड़ी थीं और 20 फीसदी वोट लाने के बावजूद उनका एक भी सांसद नहीं जीता था। तब उनके पास 20 फीसदी का निश्चित वोट था, जो अब घट कर 13 से 14 फीसदी के करीब पहुंच गया है। इसलिए अकेले लड़ कर वे एक भी सीट नहीं शायद ही जीत पाएं।
विधानसभा में उनकी स्थिति पहले से बहुत खराब है। पिछले चुनाव में उनकी पार्टी का सिर्फ एक विधायक जीता। सो, अगर लोकसभा में भी वे जीरो पर आती हैं तो उनकी राजनीति खत्म होगी। फिर उनके लिए पार्टी को संभाले रखना मुश्किल हो जाएगा। तभी वे तालमेल का रास्ता तलाश रही हैं। उन्होंने इसका संकेत देते हुए कहा है कि वे चुनाव के बाद तालमेल कर सकती हैं। यह कई पार्टियों के लिए संकेत है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी के साथ उनका संपर्क हुआ है। यह स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस की ओर एप्रोच किया गया है या उनकी तरफ से लेकिन दोनों के बीच संपर्क बना है। बताया जा रहा है कि कांग्रेस के साथ तालमेल में मायावती देश के कई राज्यों में सीट मांग सकती हैं। लेकिन अगर वे जोखिम लेकर विपक्षी गठबंधन में शामिल होती हैं तो ‘इंडिया’ को बड़ा फायदा हो सकता है। यह भी कहा जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को लेकर भी वे चिंता में हैं। उनको लग रहा है कि खड़गे की वजह से कई राज्यों में दलित वोट कांग्रेस की ओर जा सकता है। इसलिए वे कांग्रेस या पुरानी सहयोगी समाजवादी पार्टी की ओर देख रही हैं।