प्रत्येक वर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान श्री हरि विष्णु शयनावस्था में चले जाते हैं। 4 महीने तक वे इसी अवस्था में रहते हैं और फिर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को देवोत्थान एकादशी के दिन वे वापस जागृत अवस्था में आते हैं। इस दौरान वे सृष्टि के पालन पोषण का भार भी नहीं उठाते हैं। 4 महीने का यह समय अंतराल चातुर्मास कहलाता है ।इस दौरान सृष्टि के पालन पोषण का भार भगवान शिव अपने कंधे पर उठा लेते हैं। वर्ष 2024 का चतुर्मास आज से प्रारंभ हो रहा है। आईए जानते हैं कि आखिर क्यों भगवान श्री हरि विष्णु सी शयनावस्था में चले जाते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव ने जब सृष्टि के विस्तार की योजना बनाई, तब सबसे पहले उन्होंने अपने शरीर से त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु और महेश की रचना की। ब्रह्मा को जगत की सृष्टि का कार्य दिया गया,विष्णु को जगत के पालन और पोषण का कार्य दिया गया और महेश को जगत के संहार का कार्य दिया गया। भगवान शिव की इच्छा के अनुसार सृष्टि का क्रम सुचारू रूप से आगे बढ़ता चला जा रहा था ,लेकिन इस बीच कई परिस्थितियों ऐसी आई जिसके लिए भगवान विष्णु को निर्दिष्ट जगत के पालन पोषण के अतिरिक्त कुछ विशेष परिस्थितियों में संहार का भी कार्य दिया गया।ये विशेष परिस्थितियों असुरों द्वारा अपनी ताकत और सामर्थ्य के अभिमान में आकर किए जाने वाले कुछ कार्य विषेश के बदौलत उत्पन्न हो रही थी।इन परिस्थितियों से सृष्टि के संतुलन बिगड़ने की संभावना प्रबल होने लगी थी,जिस कारण इनका संहार अनिवार्य हो गया।लेकिन कुछ विशेष वरदानों की वजह से महेश के लिए इनका संहार कर पाना संभव नहीं था।तब श्रृष्टि के सफलतापूर्वक संचालन के लिए ऐसे असुरों का संहार कार्य भगवान विष्णु को सौंपा गया, क्योंकि इनके पास ही वरदान प्राप्त होने के वावजूद भी असुरों के संहार करने की क्षमता है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार एक समय असुर राज हिरण्यकश्यप ने अपनी तपस्या से ब्रह्मदेव को प्रसन्न कर उनसे उनसे यह वरदान प्राप्त कर लिया कि उसकी मृत्यु ना तो अस्त्र से हो और ना ही शस्त्र से हो, वह ना तो दिन में मरे और न हीं रात में मरे,उसे ना तो धरती पर मारा जा सके और ना ही आकाश में मारा जा सके, उसे ना तो घर के अंदर मारा जा सके और न घर के बाहर मारा जा सके,उसे न तो मनुष्य मार सके और न ही जानवर या देवता मार सके।इन वरदानों के प्राप्त हो जाने के बाद हिरण्यकश्यप अजेय हो गया।इसके बाद उसने पृथ्वी, अंतरिक्ष और पाताल इन तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
त्रिलोक में अपना आधिपत्य जमाने के बाद हिरण्यकश्यप ने खुद को देवता बताते हुए अपने समस्त बंधु बांधव और प्रजाओं को अपनी पूजा करने और देवताओं का निरादर करने का आदेश दे दिया।प्राण भय से सारे लोग उसके आदेश का पालन करने लगे, लेकिन उसका अपना ही पुत्र प्रहलाद विष्णु भक्त निकला।
प्रह्लाद अपने पिता की बातों की अवहेलना कर दिन- रात भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा अर्चना और स्मरण करता था।इससे क्रुद्ध होकर हिरण्यकश्यप ने उसे पहाड़ की चोटी से नीचे फिकवा दिया, किंतु वह नहीं मारा। इसके बाद हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को एक मदमस्त हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया,लेकिन प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ।तब उसने अपनी बहन होलिका को प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठने का आदेश दिया।दरअसल होलिका के पास एक ऐसा चादर था जिस पर आग का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। लेकिन जब इस एलकेचादर को ओढ़ कर होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर उसे जलाकर मारने के उद्देश्य से अग्नि में बैठी, थीं तो ऐसी हवा चली जिसके प्रभाव से वह चादर होलिका के शरीर से उतरकर प्रह्लाद के चारों तरफ लिपट गया जिससे होलिका तो उस अग्नि में जलकर मर गई,लेकिन प्रहलाद सुरक्षित बच गया। हिरण्यकश्यप प्रहलाद को मरवाने का हर उपाय कर थक गया, लेकिन प्रह्लाद हर बार भगवान विष्णु की कृपा से बचता रहा
अंत में हिरण्यकश्यप ने खुद अपने हाथों प्रहलाद की हत्या करने का दृढ़ संकल्प लेकर हाथों में खड्ग लिए प्रहलाद के सामने गया और उससे पूछा कि क्या यहां भी तेरा भगवान है ?क्या यहां तेरा भगवान इस खंभे से निकलेगा और तुझे बचा लेगा ? इस पर प्रह्लाद ने जब हां कहा तो हिरण्यकश्यप का क्रोध का पारावार न रहा और वह खड्ग लेकर प्रहलाद का वध करने दौड़ा, तभी भगवान विष्णु खंभा तोड़कर नरसिंह रूप में वहां अवतरित हुए और उन्होंने हिरण्यकश्यप को पड़कर महल के चौखट पर लाकर अपनी जंघा पर लिटाकर अपने तीखे नाखूनों से उसके पेट को विदीर्ण कर उसकी हत्या कर दी। यह समय न तो दिन का था और नहीं रात का था, बल्कि यह समय गोधूली बेला का था। भगवान श्री हरि विष्णु ने इसे ना तो अस्त्र से मारा और ना ही शस्त्र से मारा बल्कि अपने नाखूनों से उसका पेट विदीर्ण का दिया ।नरसिंह रूप में भगवान श्री हरि विष्णु न तो मनुष्य थे और न ही जानवर या देवता थे।इस तरह तमाम वरदान जो मृत्यु से हिरण्यकश्यप को बचाने वाला था,वे सभी वरदान धरे के धरे रह गए और भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए हिरण्यकश्यप का वध कर दिया।
अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए ,हिरण्यकश्यप के वध के दौरान श्री हरि विष्णु इतने अधिक क्रोधित हो गए कि उनका क्रोध का सहज शमन ही नहीं हो पा रहा था,जिस कारण एक बार फिर से सारी सृष्टि के ऊपर खतरा मंडराने लगा। सारी सृष्टि पर संहार की छाया पड़ता देख सप्त ऋषि वहां पहुंचे।सप्तर्षियों ने पहले भगवान नरसिंह रूप धारी भगवान विष्णु से क्रोध के परित्याग की प्रार्थना की, लेकिन बार – बार प्रार्थना करने पर भी जब नरसिंह रूप धारी भगवान विष्णु के क्रोध का शमन नहीं हुआ,तब सप्त ऋषियों ने उन्हें 4 महीने तक निद्रावस्था में चले जाने का श्राप दे दिया। सप्तर्षियों ने यह सोचकर कि भगवान श्री हरि विष्णु इस चातुर्मास के दौरान जब शापमुक्त होकर चातुर्मास के बाद जागृत होंगे तब तक उनका सारा क्रोध समाप्त हो जाएगा और वे पूरी तल्लीनता से सृष्टि के पालन पोषण में जुट जाएंगे। और ऐसा ही हुआ भी। हुआ चातुर्मास के बीतने पर जब देवोत्थान एकादशी के दिन भगवान श्री हरि विष्णु जागृत हुए ,तब उनके सारे क्रोध का शमन ही चुका था।अब वे पूरी तन्मयता से सृष्टि के पालन- पोषण में लग गए।इस चातुर्मास के दौरान भगवान श्री हरि विष्णु के निद्रा अवस्था में चले जाने पर भगवान शिव ने खुद सृष्टि के पालन पोषण का भार अपने ऊपर ले लिया था।