Homeदेशबिहार की राजनीति में क्या आनंद मोहन की जरूरत है ?

बिहार की राजनीति में क्या आनंद मोहन की जरूरत है ?

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अखिलेश अखिल
गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैया की हत्या के दोषी और उम्र कैद की सजा काट रहे आनंद मोहन इन दिनों दिल्ली से पटना तक सुर्खियों में हैं । ये सुर्खियां दक्षिण भारत में भी बन रही है । सवाल उठ रहे हैं कि आखर एक हत्या के दोषी को नीतीश सरकार क्यों जेल से बाहर का रही है ? कई और सवाल भी उठ रहे हैं । आनंद मोहन की रिहाई को लेकर दलित समाज की तरफ से भी प्रतिक्रिया आ रही है इसके साथ ही आईएएस संगठन ने भी इस पर प्रतिक्रिया दी है । कहानी यही है कि आनंद मोहन की रिहाई गलत है और नीतीश सरकार को ऐसा नही करना चाहिए । बीजेपी भी इस फैसले पर सवाल उठा रही है । ऐसे में सवाल है कि क्या आनद मोहन आज भी राजनीतिक दलों के लिए जरूरी है ?

2024 लोकसभा चुनाव पर सभी राजनीतिक दलों की नजर है। जिस तरह नीतीश कुमार राजद के साथ जाकर सरकार चला रहे हैं और जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद में जुटे हैं, इससे साफ है कि वे किसी मामले में भाजपा को बिहार में बढ़त देने के मूड में नहीं हैं। ऐसे में तय माना जा रहा है कि महागठबंधन की नजर सवर्ण वोटरों पर भी है। 90 के दशक में बिहार की राजनीति में सवर्ण नेता खासकर राजपूत नेता के तौर पर जिस तरह आनंद मोहन की छवि उभरी थी, उसके जरिए नीतीश सरकार सवर्ण मतादाताओं को साधने में लगी है। बिहार में नीतीश कुमार की सरकार भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी जी. कृष्णैया की हत्या के मामले में उम्र कैद की सजा काट रहे बिहार के पूर्व सांसद आनंद मोहन सहित राज्य की विभिन्न जेलों में 14 वर्ष से अधिक समय से बंद 27 अन्य कैदियों को रिहा करने वाली है। इस संबंध में सोमवार देर शाम एक अधिसूचना जारी की गई थी।

आनंद मोहन की रिहाई की लड़ाई एक लंबे अर्से से चल रही है। इनके समर्थकों का मानना रहा है कि इस केस में जान-बूझकर आनंद मोहन को फंसाया गया है। लंबे संघर्ष के बाद भी आनंद मोहन रिहा नहीं हो पा रहे थे। ऐसे में अब जब महागठबंधन की सरकार में इन्हें रिहा किया गया है तो लोगों की सहानुभूति भी महागठबंधन को मिलेगी। बिहार में महाराजगंज, औरंगाबाद सहित करीब आठ से 10 ऐसे लोकसभा क्षेत्र माने जाते हैं कि जहां राजपूत मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी मानी जाती है। सबसे गौर करने वाली बात है कि आनंद मोहन की राजनीति में पहचान लालू प्रसाद के विरोध के कारण ही बनी है।

90 के दशक में जब अगडे और पिछड़े खुलकर सामने आने लगे थे, तब अपनी अपनी जातियों के नेता भी खुलकर सामने आए। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि जिस गठबंधन में राजद होगा, उसमें क्या सवर्ण के नेता के रूप में पहचान बनाने वाले आनंद मोहन रहेंगे। वैसे, यह भी गौर करने वाली बात है कि भाजपा भी आनंद मोहन को लेकर ज्यादा मुखर नहीं दिख रही है। भाजपा के निशाने पर 26 अन्य रिहा होने वाले लोग हैं, जिसमें यादवों और मुस्लिमों की संख्या अधिक है।

राजनीति के जानकर भी कहते हैं कि सवर्णों का वोट कभी भी एक दल को नहीं जाता है। कोई भी दल इसका दावा नहीं कर सकते हैं कि उन्हें एकमुश्त सवर्ण मतदाताओं का वोट मिलता है। ऐसे में आनंद मोहन कोई बड़ा फैक्टर नहीं है। वैसे भी आनंद मोहन का दायरा सीमित रहा है। अगर ऐसा नहीं होता तो उनकी पत्नी लवली आनंद चुनाव नहीं हारती।

इधर, भाजपा के नेता और विधानसभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा कहते हैं कि सांसद आनंद मोहन की आड़ में सरकार ने आधा दर्जन से अधिक कुख्यात अपराधियों को जेल से छोड़ने का निर्णय लेकर राज्य में गुंडाराज स्थापित करना चाहती है। उन्होंने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि भाजपा और बिहार के लोग कतई यह नहीं होने देंगे। उन्होंने कहा कि भाजपा ने प्रदेश के लोगों को जंगलराज से मुक्ति दिलाई है और अब गुंडाराज से भी मुक्ति दिलाएगी।

इधर जब से आनंद मोहन की रिहाई के आदेश हुए हैं तब से राजनीति कुछ ज्यादा ही गर्म हैं ।आनंद मोहन के बेटे चेतन आनंद जो आरजेडी से विधायक हैं उन्होंने कहा है कि भले उनके पिता को सजा हुई थी लेकिन वी दोषी नहीं है ।इस कांड से सबसे ज्यादा प्रभावित हमारा और जी कृष्णैया का परिवार हुआ है ।हैं जल्द ही हैदराबाद जाकर उस परिवार से मिलने को तैयार हैं ।

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