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ढहता लोकतंत्र : भारत में 25 लाख से ज्यादा आबादी पर एक सांसद ! पार्ट 5

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अखिलेश अखिल
पडोसी देश चीन में लगभग चार लाख से कुछ ज्यादा की आबादी पर एक सांसद है जबकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत में करीब 25 लाख से ज्यादा आबादी पर एक सांसद है। जाहिर है कि जनता का अधिक प्रतिनिधित्व देने वाला देश भारत नहीं चीन है। यही हाल भारत के विधान सभाओं की भी है। आजादी के बाद देश में कई राज्य बने। सरकार बनी लेकिन केंद्रीय राजनीति में उनकी भूमिका न के बराबर रखी गई। कई राज्य कहने के लिए अपनी सरकार बनाते हैं लेकिन उनके हिस्से एक या दो सांसदों को जिताने की ही जिम्मेदारी दी गई है। बानगी के तौर पर पूर्वोत्तर के राज्यों को ही ले सकते हैं।

भारत के भीतर राज्यों की हालत देखने से पता चलता है कि भारतीय लोकतंत्र कितना लचर और कमजोर है! राज्यों की हालत पर नजर डालें तो और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। झारखण्ड की आबादी कोई साढ़े तीन करोड़ है और विधान सभा में सीटों की संख्या कुल 81, हरियाणा की आबादी लगभग साढ़े तीन करोड़ और 90 सदस्यों की विधानसभा। छत्तीसगढ़ की आबादी भी लगभग 2 करोड़ 60 लाख की है और 90 सदस्यीय विधानसभा। इसी तरह नागालैंड की आबादी  20 लाख से ज्यादा और सांसद एक। मेघालय की आबादी 30 लाख से ज्यादा और सांसद दो। त्रिपुरा की आबादी 36 लाख से ज्यादा और सांसद दो। उत्तराखंड की आबादी सवा करोड़ से ज्यादा और सांसद 5. इनमें केंद्र शासित प्रदेशों का और भी बुरा हाल है। अंडमान निकोबार की आबादी 38 लाख से ज्यादा और सांसद एक। चंडीगढ़ की आबादी लगभग 12 लाख और सांसद एक। लक्ष्यदीप की आबादी 66 हजार और सांसद एक। दमन दीव की आबादी तीन लाख से ज्यादा और सांसद एक। और कुल मिलाकर 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल आबादी एक अरब 21 करोड़, जबकि 2022 के यूनाइटेड नेशन (UN) के डाटा के मुताबिक भारत की जनसंख्या एक अरब 38 करोड़ से ज़्यादा है और संसद में कुल सदस्यों की संख्या 543, यानी औसतन एक सांसद के अंदर 24 लाख 40 हजार की आबादी।

सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विश्लेषक ठाकुर प्रसाद कहते हैं कि‘आजादी के बाद से ही इस देश के साथ नेताओं ने छल किया है। हम लोकतंत्र की बात करते थकते नहीं। लेकिन असली लोकतंत्र तो तभी होगा जब अधिक से अधिक लोगों की सहभागिता शासन और सरकार में होगी। लेकिन यहां ऐसा नहीं है। लाखों की आबादी को एक सांसद देखता है। जो सांसद अपने लोगों की समस्याओं को ही नहीं सुलझा पाए और जनता अपने नेता से नहीं मिल पाए ऐसे में लोकतंत्र की सारी कहानी गलत साबित होने लगती है।’

बता दें कि दिसंबर 2003 में संसद में 91वां संविधान संशोधन विधेयक पास किया गया। इस विधेयक में कई तरह के सुधार की बातें कही गई। मंत्रिमंडल में मंत्रियों का प्रतिशत तय किया गया। लेकिन इस विधेयक में एक प्रस्ताव यह भी था कि 2026 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की सीटें नहीं बढ़ाई जाएंगी। उस समय केंद्र में एनडीए की सरकार थी, लेकिन 2004 में यूपीए की सरकार आने के बावजूद, इस खेल को कांग्रेस ने भी खत्म नहीं किया। यह जनप्रतिनिधित्व को सीमित बनाए रखने का मिला जुला कुचक्र था। लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों के परिसीमन के लिए 1952, 1962, 1972 और 2002 में परिसीमन आयोग का गठन हुआ था।

गौरतलब है कि लोकसभा और विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने के लिए न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में चौथा परिसीमन आयोग का गठन वर्ष 2002 में किया गया। आयोग ने अपना कार्य 2004 में प्रारंभ किया। प्रारंभ में परिसीमन का कार्य 1991 की जनगणना के आधार पर किया जाना था, परंतु 23 अप्रैल 2002 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने  इससे संबंधित एक संशोधन विधेयक को अनुमोदित करते हुए यह निर्धारित किया कि निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन अब 2001 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा। इसके लिए परिसीमन अधिनियम (87 वां संशोधन) अधिनियम 2003 को अधिनियंत्रित किया गया।

आयोग ने अपने कार्यकाल में लोकसभा के 543 एवं 24 विधानसभाओं के 4120 निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया। पांच राज्यों असम ,अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड और झारखंड में परिसीमन नहीं किया जा सका। बता दें कि देश में पहला परिसीमन आयोग 1952 में दूसरा,1962 में,तीसरा 1973 में गठित किया गया था।

फिर 2002 में संविधान में 84 वां संशोधन किया गया। इस संशोधन के तहत 2026 के पहले के चुनावों में लोकसभा या किसी भी राज्य में विधानसभा की सीटों में वृद्धि पर रोक लगा दी गई है। देश में आबादी को कम करने का माहौल बनाने के लिए केंद्र की ओर से यह कदम उठाया गया था। राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के तहत सिद्धांत रूप में इसे पहले ही स्वीकार कर लिया गया था।

दरअसल इसके पीछे कई तर्क रखे गए। सबसे बड़ी बात तो देश की जनसंख्या को लेकर थी। दक्षिण के राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी की वजह से शिशु जन्म दर में भारी गिरावट दर्ज हुई जबकि उत्तर के राज्यों में शिशु जन्मदर में बढ़ोतरी जारी रही। दक्षिण के राज्यों में चूंकि परिवार नियोजन कार्यक्रम को बड़े पैमाने पर अपनाया गया था। लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि परिसीमन के बाद दक्षिण के राज्यों को कम सीटें न मिले इसलिए 2001 तक वहां परिसीमन का काम रोक दिया गया। कहा गया कि 2026 तक देश भर में आबादी की एक सामान वृद्धि दर हासिल कर ली जाएगी।

गौरतलब है कि आज भी दक्षिण और उत्तर के राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर में अंतर है और दक्षिण के मुकाबले उत्तर भारत में जनसंख्या वृद्धि दर ज्यादा है लेकिन एक आशाजनक बात ये है कि दशकों की स्थिरता के बाद यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, ओडिशा और उत्तराखंड में जनसंख्या के दशकीय वृद्धि दर में गिरावट आयी है। इन राज्यों में 2001 में जहाँ जनसंख्या की दशकीय वृद्धि दर करीब 25 फीसदी थी वह 2011 में कम होकर करीब 21 फीसदी पर आ गई है। यानी करीब चार प्रतिशत की कमी दर्ज हो सकी है। जाहिर है इसका असर भी अगले परिसीमन पर पड़ना है।

बता दें कि संविधान के अनुच्छेद 81 के अनुसार लोकसभा व विधानसभाओं की सीमाओं को पुनर्सीमांकित करने को परिसीमन कहते हैं। परिसीमन कई वर्षों में बढ़ी आबादी का अच्छे से प्रतिनिधित्व व समुचित विकास के लिए किया जाता है। राज्य की आबादी के अनुपात में सीटों की संख्या तय की जाती है ताकि राज्यों को समान प्रतिनिधित्व मिल सके। 1971 की जनगणना के आधार पर 1973 में  पिछला परिसीमन किया गया था। यह संयोग ही था कि उस समय सीटों की संख्या पहले जैसी ही थी।

2026 में नया परिसीमन प्रस्तावित है और इसके लिए 2021 की जनगणना को आधार बनाया गया है। साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में करीब 88 करोड़ मतदाता थे। नियमानुसार हर 10 लाख मतदाताओं पर 1 सांसद होना चाहिए। नए परिसीमन के बाद सीटें 545 से बढ़कर 900 से अधिक हो सकती हैं। आबादी के आधार पर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार जैसे राज्यों का प्रतिनिधित्व और बढ़ेगा। जिसका सीधा असर इन राज्यों में प्रभाव रखने वाली राजनीतिक पार्टियों पर भी पड़ेगा।

संसद और विधानसभा के अगले परिसीमन में माना जा रहा है कि लोकसभा में अनुमानित सीटों की संख्या 888 तक हो सकती है। इसके पीछे का तर्क ये है भी है कि अभी जो सेंट्रल विस्टा तैयार हो रहा है उसमे करीब 900 से ज्यादा सांसदों से बैठने की व्यवस्था की जा रही है। इसमें सबसे ज्यादा सीटें यूपी में बढ़ने की सम्भावना है। माना जा रहा है कि यूपी में तब 80 की जगह 143 लोकसभा की सीटें हो जायेंगी। दूसरी ओर पूर्वोत्तर के राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के सांसदों की संख्या में बढ़ोत्तरी की उम्मीद कम है।

अगले परिसीमन में अगर आबादी को ही बड़ा मुद्दा माना जाता है तो कम से कम दस राज्यों को इसका लाभ सबसे ज्यादा होगा। इन राज्यों में यूपी, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्य शामिल है। माना जा रहा है कि इन बड़े राज्यों में 80 फीसदी सीटें बढ़ सकती है। यानी देश की 80 फीसदी लोकसभा सीटें इन्ही दस राज्यों में होगी। जानकारी के मुताबिक़ यूपी में सीटें बढ़कर 143 होगी यानी वहां 63 सीटों की बढ़ोतरी हो जाएगी। इसी तरह महारष्ट्र की सीटें 48 से बढ़कर 84 हो जाएगी। पश्चिम बंगाल की सीटें 42 से 70 होगी और बिहार में सीटें बढ़कर 40 से 70 हो जाएगी। राजस्थान में अभी लोकसभा की 25 सीटें है जो बढ़कर 48 हो जाएंगी और मध्यप्रदेश की सीटें 29 से बढ़कर 51 तक पहुँच जाएगी। कर्नाटक में सीटें बढ़कर 28 से 49 तक होगी और तमिलनाडु की सीटें बढ़कर 58 हो जाएगी। अभी तमिलनाडु में लोकसभा की 39 सीटें है। गुजरात की सीटें भी बढ़ेगी। यहाँ अभी 26 सीटें है जो बढ़कर 44 हो जाएगी जबकि तेलंगाना की सीटें 17 से बढ़कर 28 हो जाएंगी।

इतना तो साफ़ है कि अगले परिसीमन के बाद नई लोकसभा में देश के पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, मध्य और पूर्वोत्तर लोकसभा में प्रतिनिधित्व का समीकरण बदल जाएगा। माना जा रहा है कि अगर जनसंख्या को ही आधार माना गया तो लोकसभा में दक्षिण भारत का -1.9 फीसदी व पूर्वोत्तर का -1.1 फीसदी  प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा जबकि उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व 1.6 फीसदी से बढ़कर 29.4 फिसदी हो जाएगा। पूर्वी व पश्चिमी राज्यों का 0.5 फीसदी प्रतिनिधित्व बढ़ेगा। इससे वहां मजबूत पैठ वाली पार्टियों को भी फायदा मिलेगा।

हालांकि राजनीतिक विश्लेषक नवेन्दु सिन्हा कहते हैं कि ‘लोकसभा की 543 सीटों को बढ़ाकर चाहे जितनी सीटें की जाए लेकिन एक बात तय है कि सीटों की बढ़ोतरी केवल जनसंख्या के मुताबिक नहीं की जानी चाहिए। इससे छोटे राज्यों को हानि होगी। फिर कोई ऐसा गणित निकलने की जरूत है जिससे पूरे देश में सीटों का संतुलन बना रहे और हर राज्य की पहचान और महत्ता भी बनी रहे।

बता दें कि मौजूदा समय में दक्षिण भारत के राज्यों को लोकसभा सीटों का लाभ है। दक्षिण के चार राज्यों, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल की संयुक्त आबादी देश की जनसंख्या का सिर्फ 21 फीसदी है और उन्हें 129 लोकसभा सीटें आवंटित की गई हैं। जबकि सबसे अधिक जनसंख्या वाले यूपी और बिहार जिनकी संयुक्त जनसंख्या देश की जनसंख्या का 25.1 फीसदी है, उनके खाते में सिर्फ 120 सीटें ही आती हैं। ऐसे में साफ़ है कि अगले परिसीमन में कई तरह के बदलाव होंगे और उत्तर भारत को बड़ा लाभ होगा।

लेकिन 2003 के विधेयक में जो बाते कही गई उसके मुताबिक परिसीमन तो 2026 में होने की बात कही गई है लेकिन उसमे यह भी कहा गया है कि अगले जनगणना के बाद यह सब किया जाएगा। ऐसे में अगली जनगणना 2031 में संपन्न होगा तब ही लोकसभा और विधानसभा सीटों को लेकर परिसीमन हो सकेगा। जाहिर है कि संसद और विधान सभाओं की सीटें अब 2031 के बाद ही बढ़ सकेंगी।

गांधी के नाम की राजनीति देश में खूब होती है लेकिन विकेंद्रीकरण की नीति को अब तक हम अपनाने से बचते रहे हैं। आज इसके दुष्परिणामों से जनता भुगत रही है। आज आप किसी भी पार्टी के नेता से बात कीजिए तो नेता कहते मिल जायेंगे कि ”समय बदल गया है और जब तक आबादी के अनुसार सीटों की संख्या नहीं बढ़ेगी, देश में राजनीतिक संकट बना रहेगा। जनता का शासन तभी संभव है जब अधिक से अधिक लोग संसद और विधान सभाओं में जीत कर आऐंगे और तभी सच्चा लोकतंत्र सामने आएगा।’

और सबसे बड़ी बात यह है कि मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी कई तरह के बदलाव करते नजर आते हैं और कई मसलों के निराकरण के लिए बिल-विधेयक भी लाने से बाज नहीं आते लेकिन इस मसले पर वे भी मौन हैं। शायद मौजूदा राजनीति में ही उनकी सरकार और पार्टी को अपना हित दिख रहा हो। मौजूदा सरकार के लोगों को 2026 तक की संसदीय सीटों की बढ़ोतरी पर लगी रोक को खत्म कर मजबूत लोकतंत्र के रूप में सामने लाने की पहल करनी चाहिए। और ऐसा होता है तो भारत का लोकतंत्र जनता के ज्यादा नजदीक होगा और शायद जवाबदेह भी।

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