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ढहता लोकतंत्र : और संसद की गरिमा गिरती चली गई —- पार्ट -3 

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अखिलेश अखिल
1967 वह काल था जबसे संसदीय प्रणाली में गिरावट दर्ज होने लगी। भारत की राजनीति में 67 एक ऐसा मोड़ है जब लोहिया ने एक प्रयोग किया और उनके समर्थकों ने उसे सिद्धांत बना दिया। गैर कांग्रेसवाद के पीछे सीधा सा एक तर्क था जनता जनतंत्र को जड़ न मान ले। उसके मन से यह निकल जाना चाहिए कि कांग्रेस को सत्ता से बाहर नहीं किया जा सकता। एक स्थाई भाव को प्रवाह देने का यह गैर कांग्रेसवाद प्रयोग विपक्षी दलों के लिए सत्ता सुख का औजार बन गया।

एकता के लिए साझा कार्यक्रम सामने आया। यहीं से विपक्ष में एक अवसरवादी प्रवृति का जन्म हुआ जो साझी राजनीति के लिए जरुरी तत्व बन गया। इसका नतीजा ये हुआ कि राजनीति पतित, बदचलन, लम्पट, ठगी पर आधारित और इस कदर घिनौनी लगने लगी कि इससे जनता में चिढ़ की भावना पनपी। और यही भावना कुछ दलों और लोगों के लिए सत्ता पाने का अस्त्र हो गया।

67 में शुरू हुआ यह प्रयोग 77 आते-आते चरम पर पहुँच गया और इसका श्रेय जेपी को जाता है। यह जानते हुए भी कि लोहिया का वह प्रयोग उनके जीवन काल में ही असफल रहा है और गैर कांग्रेसवाद के नारे के तले इकठ्ठा तमाम कुनबों से दुखी होकर लोहिया ने खुद संविद सरकार गिराया था। वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद मिली जुली सरकार बनी और दो साल के भीतर गिर गई। बता दें कि साझा सरकार की एक बीमारी है- साझा तत्वों द्वारा लूट पर लगाम न लगने की बेबसी, नेतृत्व कितना भी ईमानदार क्यों न हो साझा दबाव के सामने घुटने टेकने ही होंगे। इस बीमारी की मार जनता पर पड़ती है और जनता इसे झेलती भी रही है। देश के भीतर कई साझा सरकार बनीं और उसका अंजाम क्या हुआ सबके सामने है। लेकिन राजनीति इसमें कितनी गन्दी हुई, नेता कितने चरित्रहीन हुए और संसद कितनी शर्म की शिकार हुई, कौन नहीं जनता।

80 के चुनाव के बाद संसद दागदार चेहरों की गवाह बन गई। हालाँकि इससे पहले 1962 के तीसरे आम सभा चुनाव में ही बिहार, असम, हरियाणा, आंध्रा, मध्यप्रदेश और बंगाल के चुनाव में कई अपराधी क़िस्म के लोग चुनाव में खड़े हुए और जीते भी। 71 में यह संख्या और बढ़ गई और फिर गुंडा गिरोह का हस्तक्षेप चुनाव में बढ़ता ही गया। कई  राज्यों में दागदार चेहरे सदन तक पहुँच गए थे। लेकिन 80 के चुनाव में अपराध का राजनीतिकरण सबसे ज्यादा शुरू हुआ। संसदीय परम्परा के पतन का दौर लगातार चलता रहा और 2014 के बाद यह खेल ज्यादा ही प्रबल हो गया।

आज न संसदीय संस्कृति की गरिमा बची है और न पहले जैसे नेता संसद में मौजूद हैं। आज के सत्ता पक्ष में न वाजपयी, आडवाणी, सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा, यशवंत सिंह जैसे प्रखर वक्ता हैं और न ही जनता के नुमाइंदे। मौजूदा सरकार में जो वक्ता दिखते हैं उनमें पीएम मोदी के अलावा कोई दिखता तक नहीं। उधर विपक्षी कांग्रेस से लेकर अन्य दलों में भी वक्ताओं की भारी कमी है। इसके साथ ही आज के दौर में नेताओं की जो कार्यशैली है, जो बोलचाल के तरीके हैं उसमें  जनता की नुमाईंदिगी कम कॉर्पोरट कल्चर ज़्यादा है। सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष तक के नेताओं की गिनती करें तो दर्जन भर नेता भी आपको नहीं मिलेंगे जिनकी अपनी कोई पहचान बची है। बाकी के नेता चुनाव जरूर जीतकर संसद में पहुँच जाते हैं लेकिन कोई पहचान नहीं बना पाते। पहचान का संकट सबसे ज्यादा बीजेपी नेताओं में है।

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