भारत को लेकर उदय भारतम् पार्टी का दृष्टिकोण, सिर्फ भारतीय संविधान में इंडिया दैट इज भारत की जगह पर सिर्फ भारत करने तक या भारत के नाम की राजनीति के सहारे विधानसभा और संसद में प्रवेश कर सत्ता सुख प्राप्त करना नहीं है,बल्कि उदय भारतम् पार्टी सही मायने में भारत के प्राचीन गौरवमयी सभ्यता के आदर्शों और ज्ञान की पुनर्स्थापना कर भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए एक संपूर्ण क्रांति लाने का पक्षधर है।
भारत एक नाम द्योतक नहीं,बल्कि यह यह ऋषि – मुनियों की तपस्याओं से उत्पन्न सर्वश्रेष्ठ ज्ञान , अदम्य साहस,और सर्वोच्च नैतिकता जनित गौरवशाली परंपरा है, जो सिर्फ आम लोगों के लिए ही,नहीं बल्कि पशु – पक्षियों और प्रकृति प्रेम को वरीयता देते हुए विश्व बंधुत्व की बढ़ावा देते हुए रोग – दोष मुक्त विश्व की कामना करता है।आइए जानते हैं उन महापुरुषों के बारे में जिनके नाम पर इस भू – भाग का नामकरण हुआ था।
इस भूभाग का नाम भारत,भरत के नाम पर पड़ा है। व्याकरण के दृष्टिकोण से देखें तो भारत शब्द भरत व्यक्तिवाचक संज्ञा का अपत्यवाचक रूप है।लेकिन यह शब्द व्याकरण के लिए नहीं,बल्कि मानव मूल्यों की स्थापना, धर्म आधारित राजनीति और उच्च नैतिकता के लिए जानी जाती है।यह भारत की स्वार्थपरक होती जा रही राजनीति में शामिल राजनेताओं के मुंह पर एक बड़ा तमाचा है।
भारत का नाम जिस भरत पर पड़ा है उनमें से एक प्रमुख नाम ऋषभ देव पुत्र भरत का है। इन्होंने अपने तीन जन्मों में धर्म और राजनीति के बड़े कीर्तिमान स्थापित किए हैं।इनके पहले जन्म को लेकर अग्नि पुराण में वर्णन मिलता है।
जरा-मृत्यु-भय ना हित धर्मो-धर्मो युगादिकम्।
ना धार्म महगमं तुल्या हिमादे तान्तु नाभितः।।
ऋशयो मरूदेव्यां च ऋशभाद् भरतो ऽमवतः।
ऋशभादडदात श्री पुत्रे भाल्य ग्रामे हरिंगतः
भरताद् भारतवर्श भरतपात सुमतिस्वभूत ।।
(अग्निपुराण )
अर्थात उस हिमवत प्रदेश (भारत को पहले हिमवत प्रदेश या आजनाभ प्रदेश कहते थे) में जरा, (बुढ़ापा) और मृत्यु का भय नहीं था,
धर्म और अधर्म भी नहीं थे, उनमें मध्यम समभाव था, वहां ‘नाभिराजा व मरूदेवी’ से ‘ऋषभ’ का जन्म हुआ।
ऋषभ से भरत हुए।
ऋषभ ने राज्य भरत को प्रदान कर सन्यास ले लिया। भरत से इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ हुआ। भरत के पुत्र का
नाम ‘सुमति’ था।
(अग्निपुराण )
ऋषभदेव पुत्र भरत प्रजा का पुत्रवत पालन करते हुए अपने जीवन के चौथेपन में अपने पुत्रों को बिना किसी भेदभाव के यथायोग्य राज्य की संपत्ति सौंप कर तपस्या के लिए वन में चले गए।
एक दिन वन में जहां भरत तपस्या कर रहे थे,वहीं निकटवर्ती नदी घाट में एक गर्भवती हिरणी नदी का जल पी रही थी। तभी एक सिंह की दहाड़ से उस गर्भवती हिरणी का प्रसव हो गया ,लेकिन सिंह के डर से वह हिरणी जान बचाने के लिए कहीं भाग गई।इधर हिरण का बच्चा जल में डूबने- उतराने लगा। तब भरत ने अपनी तपस्या बीच में ही छोड़ पहले उस हिरण के बच्चे को नदी से निकाल कर उसकी प्राण रक्षा की और इसके बाद भी तब तक उसकी देखभाल करते रहे,जब तक की हिरण का वह बच्चा बड़ा होकर हिरण के दूसरे समूह के साथ सुरक्षित वन मे चला न गया।
अगले जन्म में सिर्फ परमात्मा पर ध्यान रखने और लौकिक व्यवहार पर ध्यान न देने के कारण इन्हें जड़ भरत कहा गया। एक बार सिंधु प्रदेश के राजा रहुगण तत्वज्ञान की दीक्षा लेने के लिए कपिल मुनि के आश्रम जा रहे थे। जिस रथ पर सवार होकर वे जा रहे थे, उस पालकी को धोने वाले में से एक कहार रास्ते में कहीं भाग गया। तब कहारों की टोली ने परमात्मा के ध्यान में लीन जड़ भरत को पालकी ढोने के काम में लगा दिया।जड़ भरत इसे भी अपना प्रारब्ध मानते हुए राजा की पालकी ढोने में लग गए।उनका ध्यान परमात्मा में लगे होने के कारण बार-बार पालकी हिल- डुल जाता था जिससे राजा रहुगण को परेशानी हो रही थी। कुछ समय बाद रास्ते में चीटियों का एक समूह दिखा।इस पर पैर ना पड़े यह सोचकर जड़ भरत ने छलांग लगा दी जिससे राजा रहुगण का सिर पालकी से टकरा गया।इससे क्रुद्ध होकर राजा रहुगण जिस प्रकार अपने प्रजा को प्रताड़ित करते थे, उसी लहजे में उन्होंने जड़ भरत को दंड देने के उद्देश्य से कहा की अरे सेवक तू तो जीते जी मरे हुए के समान है। तुझे पता नहीं कि तुम राजा रहुगण की पालकी ढो रहे हो और तुम्हें इस प्रकार की धृष्टता के लिए बड़ा दंड दिया जा सकता है।
रहुगण के कहे इस वाक्य से हालांकि परमात्मा में लीन रहने वाले जड़ भरत को कोई कष्ट नहीं हुआ,लेकिन राजा आगे अपनी प्रजा पर अत्याचार ना करे यह सोचकर उन्होंने कहा कि राजन! केवल मैं ही नहीं सारा जगत ही जीते जी मृत-सा है, इसमें हर शरीर शव के समान है। सत्य तो केवल परमात्मा ही हैं।आत्मिक दृष्टि से तुम और मैं एक ही हैं। शरीर को शक्ति देता है मन, और मन को शक्ति देती है बुद्धि परन्तु बुद्धि को प्रकाशित करने वाले तो केवल श्री हरि परमात्मा ही हैं। राजन हर जीव में परमात्मा हैं, यही सोच कर मैं चींटी का भी ख्याल करते हुए इस प्रकार छलांग लगाते हुए चलता हूँ।
जड भरत के ऐसे विद्वता पूर्ण कथन सुनकर राजा रहुगण अचंभित रह गए और सोचने लगे कि यह कोई पागल नहीं, परमहंस है, ज्ञानी महात्मा हैं, अवधूत संत हैं। इन अलौकिक ब्रह्मनिष्ठ का अपमान करके मैंने बहुत क्षति कर दी। यह सोच राजा चलती हुई पालकी से कूद पड़े। जो मारने को तैयार था, वह अब वंदन करने लगा। इसके बाद जड़ भरत से प्रभावित होकर राजा रहुगण भी अपने प्रजा से पुत्रवत व्यवहार करने लगे।
एक दूसरे भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत होने की बात कही जाती है, वह राजा रामचंद्र के भाई और राजा दशरथ के पुत्र भरत थे। इन्होंने एक षड्यंत्र के तहत मिलने वाली अयोध्या जैसे राज्य की राजगद्दी का परित्याग कर दिया था,लेकिन राजभवन से दूर रहकर भी अपनी बुद्धि,ताकत,साहस और कुशल प्रबंधन क्षमता से 14 वर्षों तक अयोध्या और अयोध्यावासियों पर किसी भी प्रकार का संकट नहीं आने दिया और रामचंद्र के वन से वापस आने पर यह साम्राज्य उन्हें सौंप दिया।
एक अन्य भरत जिसके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा वह हस्तिनापुर के सम्राट दुष्यंत और शकुंतला का पुत्र भरत थे। दुष्यंत द्वारा शकुंतला को नहीं पहचाने जाने के कारण मां के साथ परित्यक्त जीवन बिताते हुए भी विषम परिस्थितियों के बावजूद भरत में इतनी ताकत,साहस और बुद्धि थी कि वह शेरों के भी दांत गिनने की क्षमता रखते थे। उनके इसी ताकत, साहस और बुद्धि से प्रभावित होकर दुष्यंत ने उनसे परिचय बढ़ाने के क्रम में जाना कि वे उनके ही पुत्र हैं और तब उन्होंने न सिर्फ माता सहित भरत को राजमहल लाकर सम्मान दिया बल्कि भरत को हस्तिनापुर की राजगद्दी भी सौंप दी।भरत ने अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन किया, लेकिन जब उम्र के चौथे पड़ाव में वे संन्यास ग्रहण करने चले तो उन्होंने हस्तिनापुर के अपने साम्राज्य को अपने अयोग्य पुत्रों में से किसी को भी नहीं देकर सुयोग्य मंत्री पुत्र शांतनु को सौंप कर एक बड़ा आदर्श प्रस्तुत किया।
क्रमशः