राजस्थान की सरकार ख़तरे में है तो गांधी परिवार की साख भी। कांग्रेस में बॉस पार्टी में अध्यक्ष पद का चुनाव जीतने की उम्मीद कर रहे अशोक गहलौत होंगे या अशोक गहलौत समेत पूरी पार्टी गांधी परिवार के किसी सदस्य को अपना बॉस मानेगी- इसके लिए भी जोर आजमाइश का वक्त है।
राजस्थान के विधायक जो तेवर दिखा रहे हैं वह उस नेता के लिए है जिसके पास अब तक मुख्यमंत्री की शक्ति है और आगे आने वाले समय में पार्टी अध्यक्ष की शक्ति होगी- ऐसा सबका मानना है। ये विधायक दरअसल उस शक्ति की ही पूजा कर रहे हैं।
बदल गये गांधी परिवार के भक्त गहलौत?
राजस्थान का शक्तिमान सियासदां यानी अशोक गहलौत विधायकों को रोक क्यों नहीं रहे हैं? ये विधायक खुद को गहलौत समर्थक खुलेआम बता रहे हैं! ऐसा लगता ही नहीं है कि ये वही अशोक गहलौत हैं जो गांधी परिवार के गुण हर क्षण गाया करते थे। अध्यक्ष तक का चुनाव वे इसलिए लड़ने चले आए क्योंकि राहुल गांधी चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए! ये सारी पैंतरेबाजी अब खुलकर सतह पर आ चुकी है।
प्रकृति के स्वभाव से समझें तो पौ फटते ही अंधेरा मिट जाता है, उजाला हो जाता है। जिस क्षण राजस्थान के विधायकों को पता चलेगा कि गहलौत की शक्ति में शुमार कांग्रेस आलाकमान यानी गांधी परिवार की ताकत हट गयी है, वैसे ही राजस्थान कांग्रेस में पौ फट जाएगा। भरे उजाले में उन्हें दिखने लगेगा कि कांग्रेस कहां है- गहलौत के साथ या गहलौत को जहां से ताकत मिलती रही है उनके साथ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं। वेबसाइट का इससे कोई लेना-देना नहीं है।)
बहुमत का आंकड़ा आलाकमान के रुख से होता है तय
बहुतेरे लोग लोकतंत्र को विधायकों की गणना बता रहे हैं। कह रहे हैं कि गणना अगर सचिन पायलट के खिलाफ है तो मुख्यमंत्री उन्हें नहीं किसी और को बनाना चाहिए। मगर, ऐसे विद्वान लोगों को यह समझना चाहिए कि गणनाएं पार्टी की शक्ति के सामने अक्सर बदला करती है। कांग्रेस में तो आलाकमान पर फैसला छोड़ने की परिपार्टी रही है। आलाकमान किसके साथ खड़ा होता है गणना उसके साथ होती है।
अशोक गहलौत की सियासत ने यह साबित करने की कोशिश की है कि राजस्थान में आलाकमान का मतलब वे खुद हैं। यह बात उनके खिलाफ भी जा सकती है क्योंकि अभी वे अध्यक्ष नहीं बने हैं। बगैर गांधी परिवार के समर्थन से वे बन भी नहीं सकते। इसलिए राजस्थान के कांग्रेसी विधायकों की गणना अभी सही फोरम में सही तरीके से शुरू भी नहीं हुई है।
निस्संदेह 107 में 80 विधायक अशोक गहलौत के साथ दिख रहे हैं। साथ दिखना तो सभी 107 विधायकों को चाहिए था। आखिर अशोक गहलौत अब भी मुख्यमंत्री हैं और अपेक्षानुसार आगे भी उनके हाथ पूरी पार्टी की कमान रहने वाली है! सवाल यह है कि क्या तब भी ये विधायक अशोक गहलौत के साथ रहेंगे जब आलाकमान अपने हाथ सचिन पायलट के सिर पर रख देगा?
गहलौत ने खिला दिए कांग्रेस विरोधियों के चेहरे!
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलौत ने जो राजनीतिक चाल चली है उसने कांग्रेस विरोधी खेमे के तमाम चेहरे खिला दिए हैं। सवाल उठने लगे हैं कि
क्या एक और कैप्टन अमरिंदर राजस्थान में पैदा होने की वाले हैं?
क्या राजस्थान में बीजेपी की सरकार आने वाली है?
अचरज की बात यह है कि इन सवालों को अशोक गहलौत को ही हल करना है अगर वे कांग्रेस का अध्यक्ष बनेंगे। फिर अशोक गहलौत यह सब क्यों कर रहे हैं?
राजस्थान की घटना बता रही है कि अशोक गहलौत के लिए कांग्रेस का अध्यक्ष पद से अधिक मुख्यमंत्री का पद महत्वपूर्ण है। उनके लिए देश में सत्ताविहीन कांग्रेस से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्तासीन राजस्थान है। यह स्पष्ट हो रहा है मानो अशोक गहलौत को कांग्रेस का अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए बाध्य किया गया हो। ऐसा दिख रहा है जैसे जवाबी कार्रवाई के तौर पर गहलौत अब आलाकमान यानी गांधी परिवार को ही बाध्य करने की रणनीति पर चल चुके हैं।
क्या होने वाला है आगे?
प्रश्न है कि आगे क्या होगा? अशोक गहलौत, सचिन पायलट और राजस्थान गये तमाम पर्यवेक्षक दिल्ली तलब कर लिए गये हैं। विधायक दल की बैठक रद्द करने की बेबस घोषणा करनी पड़ी है। राजस्थान का राजनीतिक संकट अशोक गहलौत के जरिए सुलझाया जाएगा या फिर अशोक गहलौत को जवाबी सियासत के साथ निबटाया जाएगा- यह देखना दिलचस्प है।
अशोक गहलौत के साथ मोल-भाव होता है तो इसमें संदेह नहीं कि अध्यक्ष बनने के बाद ये और अधिक खूंख्वार रूप में सामने आएंगे। आशंका इस बात की भी पैदा हो गयी है कि अध्यक्ष बनने के बाद अशोक गहलौत शायद राहुल गांधी के लिए भी वैसे ही और ‘रगड़वाने’ की जरूरत कहने लगें जैसा कि सचिन पायलट के बारे में कहते रहे हैं। हालांकि गांधी परिवार के भक्त का दर्जा रखन वाले अशोक गहलौत से कोई ऐसी उम्मीद नहीं कर सकता। मगर, राजस्थान की सियासत बहुत कुछ बोल रही है।
कहते हैं कि कांग्रेस में अध्यक्ष कोई भी रहा हो- महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी अपने-अपने समय में हमेशा पार्टी के बॉस रहे। माना जा रहा था कि आगे भी यही सिलसिला रहने वाला है जब गांधी परिवार से कोई कांग्रेस अध्यक्ष नहीं होगा, लेकिन उनकी मर्जी के बगैर कांग्रेस अध्यक्ष कोई कदम नहीं उठा सकेंगे।
गहलौत ना भूलें कि अध्यक्ष का चुनाव होना अभी बाकी है!
अशोक गहलौत की रणनीति ने तो अध्यक्ष बनने से पहले ही इस धारणा पर जोरदार हमला बोल दिया है। ऐसे में गांधी परिवार खामोश नहीं रह सकता। अब अगर वह खामोश रही तो आने वाले समय में भी उन्हें खामोश ही रहना पड़ेगा। देश भर में ‘भारत जोड़ो’ यात्रा कर रहे राहुल गांधी का आत्मविश्वास मजबूत है। वे कोई कमजोर फैसला नहीं लेंगे, यह तय है। हालांकि प्रत्यक्ष तौर पर वे इस मामले से दूर ही दिखेंगे, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होगा। केरल में रहकर भी राहुल गांधी ने अशोक गहलौत को ‘एक पार्टी एक पद’ की याद जिस सख्ती से दिखलायी है, वह उनके बदले हुए तेवर का प्रमाण है।
अशोक गहलौत को लेकर गांधी परिवार की धारणा बदलने का असर कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव पर भी पड़ना तय लगता है। कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नामांकन भरने का वक्त अभी बीता नहीं है। दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी दावा ठोंक रहे हैं। दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के मेंटर माने जाते हैं। वे संकट की घड़ी में अच्छे रणनीतिकार भी रहे हैं। ऐसा संभव है कि अशोक गहलौत को ही जिम्मेदारी दी जाए कि वे न सिर्फ राजस्थान का संकट सुलझाएं बल्कि सचिन पायलट को मुख्यमंत्री पद पर बिठाने का रास्ता भी बनाएं। स्पष्ट संकेत दिया जा सकता है कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो कांग्रेस अध्यक्ष पद पर चुने जाने की योग्यता वे देश के कांग्रेसियों के समक्ष खो देंगे। तब ‘माया मिली न राम’ वाली कहावत चरितार्थ होगी।