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आतिशी का मुख्यमंत्री के रूप में शासन करना कितना शास्त्र तथा संविधान सम्मत

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इन दिनों भारत,खासकर दिल्ली की राजनीति में राम, भरत और खड़ाऊ जैसे शब्दों की चर्चा पूरे जोर पर है। जेल में रहते हुए भी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा न देने वाले अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत पर रिहा करने के बाद जेल से बाहर आने के तीसरे ही दिन आम आदमी पार्टी की सभा में मुख्यमंत्री पद इस्तीफा देने और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तबतक न बैठने की बात कही जबतक कि दिल्ली की जनता उन्हें ईमानदार मानकर विधान सभा चुनाव में जीत नहीं दिला देती है।इस दौरान उन्होंने अपने प्रतिनिधि के रूप में आम आदमी पार्टी के किसी दूसरे नेता के मुख्यमंत्री के रूप में काम करने की बात कही थी। इसके बाद आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अरविंद केजरीवाल को राम के रूप में और भावी मुख्यमंत्री को भरत के रूप में प्रसारित करना प्रारंभ कर दिया। तब बीजेपी वाले ने खड़ाऊ मुख्यमंत्री का एक नया पद प्रारंभ कर आम आदमी पर टीका टिप्पणी शुरू कर दी।

इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और उनके प्रतिनिधि के रूप में मुख्यमंत्री का काम करने के लिए आतिशी का नाम प्रस्तावित किया।

आतिशी ने मुख्यमंत्री पद और गोपनीयता की सपथ भी ले ली।उसके बाद उन्होंने अपने आप को अरविंद केजरीवाल की प्रतिनिधि के रूप में तब तक मुख्यमंत्री बने रहने की बात दुहराई जब तक कि फरवरी में दिल्ली विधान सभा जा चुनाव चुनाव नहीं हो जाता है।इसके बाद वे अरविंद केजरीवाल केब्जित कर आने की बात करती हैं और तब अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री की कुर्सी वापस कर देने की बात करती हैं।इस दौरान उन्होंने मुख्यमंत्री कार्यालय में जिस कुर्सी पर अरविंद केजरीवाल बैठते थे उसे खाली रखा है और खुद दूसरी कुर्सी पर बैठकर मुख्यमंत्री का कार्यभार देखती हैं। इस खाली कुर्सी को वह भारत की खड़ाऊ की संज्ञा देती हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस प्रकार मुख्यमंत्री के पद का त्याग कर देने मात्र से अरविंद केजरीवाल या कोई क्या राम के समकक्ष हो जाते हैं, और केजरीवाल के इस्तीफा के बाद अरविंद केजरीवाल के प्रतिनिधि रूप में मुख्यमंत्री के कार्यभार संभालने और मुख्यमंत्री कार्यालय में एक कुर्सी खड़ाऊ के प्रतीक रूप में खाली रखने मात्र से कोई क्या भारत हो सकता है ! जैसा कि से आदमी पार्टी के net प्रचारित कर रहे हैं।और क्या अरविंद केजरीवाल के प्रतिनिधि रूप में मुख्यमंत्री का पद संभालना संविधान सम्मत है।आइए रामचरितमानस और संविधान में तलाशते हैं ऐसी बातों की सार्थकता।

सबसे पहले बात राम की की जाए जिसके संदर्भ में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को प्रस्तुत कर रहे हैं। रामचरितमानस में राम अपने वन गमन और भारत को राज्य देने की कैकई की दसरथ से की गई मांग की बात से पूर्णतः अनभिज्ञ थे,यहां तक की राजा दशरथ ने भी इस संदर्भ में उन्हें कुछ नहीं कहा था। तब कैकई ने ही बताया कि दसरथ ने मुझे दो वचन दिए थे जिसके संदर्भ में मैंने राम के वन गमन और भारत के राज्याभिषेक की बात मांग ली तब से ये ऐसे पड़े हुए हैं। इस बात की जानकारी मिलते ही राम ने वन गमन को सहर्ष स्वीकार कर लिया और बिना कोई संदर्भ दिए सिर्फ यह कहते हुए वन गमन कर गए की पुत्र के लिए माता-पिता की बात का मान रखना सबसे बड़ा कर्तव्य है ।आम आदमी पार्टी के वर्तमान संदर्भ में अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री के पद परित्याग की सारी पटकथा अरविंद केजरीवाल और आतिशी तथा कुछ आप नेताओं ने ही मिलकर रचा था।

बात आतिशी के भारत की प्रतिमूर्ति के रूप में की जाए तो जिस भारत की विशालता को उसे जन्म देने वाली माता कैकई नहीं समझ सकी और राम के वन गमन और भारत को राज्याभिषेक जैसा वरदान मांग कर अपना सुहाग मिटा दिया, जो भारत पिता के श्राद्ध कर्म के पश्चात सिंहासन को ठुकरा कर अपने प्रिय राम को लिवाने वन चल दिए जिससे आम लोगों को ही नहीं वरन देवताओं तक को भ्रम हो गया कि भरत राम को मार कर अयोध्या का कंटक राजा बनना चाहते हैं, और जब वे भरत से मिलते हैं और उन्हें भरत की रामभक्ति और निष्छलता का प्रमाण मिलता है, उसे आतिशी या आम आदमी पार्टी के नेता क्या समझ सकते हैं, वे तो जिस प्रकार कालनेमि राम राम कहकर हनुमान को ठगने का प्रयास कर रहे थे वैसा ही कुछ करते हुए प्रतीत हो रहे हैं।

बात अरविंद केजरीवाल की कुर्सी खाली रखकर उसे राम का खड़ाऊ और खुद को भरत बताने वाली आतिशी की की जाए तो इस संदर्भ में रामचरितमानस में यह उल्लेख है कि भरत ने राम से चरण पादुका यानी खड़ाऊ की मांग नहीं की थी, उन्होंने तो सिर्फ 14 वर्ष तक अपने भरोसे में राम से रखने की प्रार्थना की थी, जिसके प्रतीक स्वरूप प्रभु श्री राम ने उन्हें अपने चरण पादुका दी थी।भरत इस चरण पादुका की पूजा वंदना करते थे, उसे किसी स्वार्थवश प्रचारित नहीं करते थे। सती राम किया चरण पादुका उनका व्यक्ति कोई सार्वजनिक नहीं, जबकि अरविंद केजरीवाल की कुर्सी एक सार्वजनिक पद की कुर्सी थी।

आतिशी भरत की प्रयाय हो हो सकती है या नहीं इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि भरत ने राजपद ग्रहण नहीं किया था ,जबकि आतिशी ने मुख्यमंत्री का पद ग्रहण किया है, भले ही वह प्रोक्सी मुख्यमंत्री ही क्यों ना हो।

अब बात संविधान की दृष्टिकोण की की जाए तो जिस प्रकार से आतिशी अभी भी अरविंद केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री मानती हैं, और उनके प्रतिनिधि स्वरूप शासन चलाने की बात करती हैं,उसे भारत का संविधान सम्मत भी नहीं माना जा सकता है क्योंकि भारत के संविधान में यह उल्लेख है की बहुमत दल का नेता मुख्यमंत्री बनेगा और वह मंत्रिमंडल की सहायता से शासन करेगा।अरविंद केजरीवाल मंत्रिमंडल के सदस्य नहीं है ,ऐसे में अरविंद केजरीवाल के प्रतिनिधि के रूप में जिस प्रकार उनके द्वारा शासन चलाने की बात की जाती है इसका उल्लेख संविधान में नहीं है। साथ ही मुख्यमंत्री बनने के बाद पद और गोपनीयता की शपथ ली जाती है अगर अरविंद केजरीवाल के प्रतिनिधि स्वरूप आतिशी शासन व्यवस्था चलाएंगी तो मुख्यमंत्री के पद पर और गोपनीयता की शपथ का उल्लंघन होगा।

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