Homeदेशढहता लोकतंत्र : जनता से दूर होते सांसद और विधायक -पार्ट 4

ढहता लोकतंत्र : जनता से दूर होते सांसद और विधायक -पार्ट 4

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अखिलेश अखिल
दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाने वाला भारत क्या वाकई में जनता के प्रति जवाबदेह और जनता के नजदीक भी है? दूसरा सवाल है कि क्या भारतीय लोकतंत्र जनता की उम्मीदों पर खरा भी उतर पा रहा है? जनता या लोकतंत्र के प्रति जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही एक बड़ा प्रश्न है, फिलहाल हम कुछ आंकड़ों के जरिये जनता से नज़दीकी के सवाल को परखते हैं।

ये बातें इसलिए कही जा रही हैं कि भारत 2022 के लोकतंत्र सूचकांक की वैश्विक रैंकिंग में दो स्थान फिसलकर 46 वें स्थान पर पहुंच गया है। द इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट यानी ईआईयू मुताबिक लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने और नागरिकों की स्वतंत्रता पर कार्रवाई को लेकर भारत पिछले साल की तुलना में दो पायदान फिसला है। ये बातें साल भर पहले की है। हालांकि भारत पड़ोसी देशों से ऊपर है। भारत को पिछले साल 6.9 अंक मिले थे, जो अब घटकर 6.61 अंक रह गए हैं। 2014 में भारत 7.92 अंक के साथ 27वें स्थान पर था।

ईआईयू के पिछले साल के सूचकांक में नॉर्वे को शीर्ष स्थान मिला है। इसके बाद आइसलैंड, स्वीडन, न्यूजीलैंड और कनाडा का नंबर है। इस सूचकांक में 167 देशों में से 23 को पूर्ण लोकतंत्र, 52 को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र, 35 को मिश्रित शासन और 57 को सत्तावादी शासन के रूप में वर्गीकृत किया गया था। भारत को अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील के साथ त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र के तौर पर वर्गीकृत किया गया था।

लेकिन ये सब बातें तो भारत के लोकतंत्र के गुण-दोषों पर आधारित हैं। असल कहानी तो यह है कि भारतीय लोकतंत्र जनता के प्रति कितना जवाबदेह है और इस लोकतंत्र में जनता की भूमिका कहाँ है? ऊपर से देखने में यहां सबकुछ हरा भरा लगता है लेकिन सच्चाई यही है कि इस लोकतंत्र में न तो जनता का अपने नेता से कोई जुड़ाव है और न ही नेता अपनी विशाल जनता के प्रति जबाबदेह है।

देश की आबादी लगातार बढ़ती गई लेकिन आबादी के मुताबिक संसद और विधान सभाओं की सीटें नहीं बढ़ीं। इसका असर ये हुआ कि ऐसा तंत्र बन गया है जिसमें चुनाव तो होते हैं लेकिन नेताओं की जनता से दूरी बढ़ती जाती है। लोकतंत्र का यह खेल लुभाता भी है और भरमाता भी है। मौजूदा सच यह है कि देश की राजनीति ने संसद और विधानसभा सीटों की 2026 तक नसबंदी कर रखी है, यानी रोक लगा रखी है। इसका असर यह हुआ कि इससे न सिर्फ छोटे राज्यों की सरकारें उलटती-पलटती रही हैं बल्कि एक संसदीय और विधानसभा क्षेत्र के सांसद और विधायक अपनी जनता से दूर होते चले गए हैं।

भारत और चीन की तस्वीर को गौर से देखें तो लगता है कि भारत से ज्यादा चीन की सरकार और उसके नेता जनता के नजदीक और जवाबदेह हैं। हालांकि चीन से भारत के लोकतंत्र की तुलना ठीक नहीं, दोनों की प्रक्रिया अलग है, लेकिन जहां तक जनता के प्रतिनिधियों का सवाल है उसमें चीन, भारत से आगे है और जनता के प्रति जवाबदेह भी। जबकि दोनों देशो की आबादी लगभग एक सामान है। इस कसौटी पर अन्य देशों का लोकतंत्र भी भारत से ज्यादा सफल और जवाबदेह है। तो सवाल है कि क्या भारत का लोकतंत्र कानून की जकड़ में है या राजनीति का शिकार है?

यह बात इसलिए कही जा रही है कि 15 अप्रैल 1952 को हमारे देश में प्रथम लोकसभा का गठन हुआ था। उस समय हमारे संसद में सदस्यों की संख्या 489 थी। तब देश में करीब 17 करोड़ मतदाता थे। 2009 में संसद में सदस्यों की संख्या बढ़कर 543 हो गई। यानी 57 साल में 54 सदस्यों की बढ़ोतरी। 1952 में मतदाताओं की संख्या जहां 17 करोड़ थी वहीं 2009 में मतदाताओं की संख्या 72 करोड़ हो गई और 2014 में करीब 90 करोड़। आज की तारीख में मतदाताओं की संख्या लगभग 92 करोड़ है जबकि आबादी 138 करोड़ के पास।

उधर चीन  में 1954 में चीनी संसद नेशनल पीपुल्स कांग्रेस का गठन हुआ। यानी हमारे देश से दो साल बाद। चीन में तब संसद सदस्यों की संख्या 1226 थी। आज चीन की आबादी एक अरब 40  करोड़ के आसपास  है और भारत की आबादी एक अरब 38 करोड़ के करीब। आज की तारीख में चीनी संसद में सदस्यों की संख्या 1226 से बढ़कर 2987 हो गई है जबकि भारत में संसद सदस्यों की संख्या 489 से बढ़कर  केवल 543 ही हो पायी है। चीन की आबादी हमसे मात्र दो से तीन करोड़ ज्यादा है जबकि वहां संसद सदस्यों की संख्या भारत से 2444 ज्यादा है। इन आंकड़ों से साफ हो जाता है कि चीन के जन प्रतिनीधि भारतीय जन प्रतिनिधि की तुलना में जनता के ज्यादा नजदीक है।

दुनिया के और कई देशों से भारतीय लोकतंत्र की तुलना करे और भी चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। जर्मनी को ही लीजिये। ऐसा नहीं है कि भारत की हालत चीन से ही खराब है। हमसे ज्यादा लोकतांत्रिक देश तो वह जर्मनी है जहां की आबादी 8 करोड़ से कुछ ज्यादा है लेकिन उसके सदन ‘बुंडेस्टाग’ की सदस्य संख्या 631 है। साफ है कि जर्मनी में एक सांसद करीब एक लाख चालीस हजार की आबादी का प्रतिनिधित्व करता है और जर्मन सांसद जनता के प्रति ज्यादा उत्तरदायी हैं। वहां का एक सांसद अपने इलाके के सभी लोगों को जानता है और वहां की सभी समस्याओं से अवगत भी रहता है। इंग्लैंड की आबादी लगभग 6 करोड़ है जबकि हाउस ऑफ़ कॉमन में उसके सदस्यों की संख्या 650 और हाउस ऑफ लॉर्ड्स में सदस्यों की संख्या 804 है। अमेरिका की हालत भी भारत से बेहतर है। अमेरिका की आबादी करीब 33 करोड़ है और वहां की प्रतिनिधि सभा में 435 सदस्य हैं। फ़्रांस की आबादी लगभग सात करोड़ है और उसकी नेशनल असेंबली में सीटों की संख्या 577 है, सीनेट की संख्या 348 है।

पड़ोसी देश पाकिस्तान की आबादी लगभग 22 करोड़ है जबकि नेशनल असेम्बली में सदस्यों की संख्या 342 है। इसी तरह 16 करोड़ की आबादी वाले बांग्लादेश में जातीय (राष्ट्रीय) संसद में सांसदों की संख्या 350 है। नेपाल की आबादी तीन करोड़ है और प्रतिनिधि सभा में 275 सदस्य हैं। कनाडा की आबादी चार करोड़ और उसके निचली सदन में सदस्यों की संख्या 338 है। तुर्की की आबादी लगभग आठ करोड़ और सदन मजलिस में उसके सदस्यों की संख्या 550 है। इन आंकड़ों से साफ़ होता है कि भारतीय लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि इन देशों की तुलना में अपनी जनता से काफी दूर हैं।

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