अखिलेश अखिल
भारतीय लोकतंत्र पर उठते सवाल, संसद की गिरती गरिमा, नेताओं के गिरते चरित्र और जनता के प्रति बेरुखी और संसदीय प्रणाली में गिरावट की हम चर्चा यहाँ करेंगे, लेकिन सबसे पहले संसदीय संस्कृति में गिरावट पर एक नजर डालने की जरूरत है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवादी देशों से मुक्त और आजाद हुए देशों में भारत शीर्ष पर था जिसने जनतंत्र को अपना धर्म बनाया और वोट की ताकत को देकर जनता को सत्ता में भागीदारी का रास्ता दिखाया। यह सब कोंग्रेसी आंदोलन और गाँधी जी की देन थी। जिन्होंने सियासत को दीवाने ख़ास से निकालकर सड़क तक पहुंचाया। आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू, महात्मा गाँधी से जुड़े थे और उन्हें जनतंत्र व संसद की गरिमा का ख्याल था इसलिए उन्होंने अपने जीवन काल तक इसका निर्वहन भी किया। इसके साथ ही शुचिता क्या महत्व रखती है इसके लिए कई मौके ऐसे भी आये, जब उन्हें अंतिम परीक्षा से भी गुजरना पड़ा और वे इसमें खड़े भी उतरे।
‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा के मुताबिक, 1951-52 में पहला आम चुनाव, बाकी बातों के अलावा जनता का विश्वास हासिल करने की भी जंग था। यह बात सही है कि यूरोप और अमेरिका में जनता के मताधिकारों के मायने सीमित थे, मसलन उस वक्त वहां की औरतों को मताधिकार से वंचित रखा गया था। वहीं, इसके उलट नए-नए आज़ाद हुए हिंदुस्तान ने देश युवाओं को मताधिकार सौंप दिया था, जिस देश को आज़ाद हुए बमुश्किल पांच साल हुए हों, जिस देश में सदियों से राजशाही रही हो, जहां शिक्षा का स्तर महज 20 फीसदी हो, उस देश की आबादी को अपनी सरकार चुनने का अधिकार मिलना उस देश के लिए ही नहीं, शायद पूरी दुनिया के लिए, उस साल की सबसे बड़ी चुनौती थी।
प्रथम लोकसभा में एक से बढ़कर एक विद्वान संसद में पहुंचे थे। वकीलों की बड़ी फ़ौज तैनाती थी। सत्ता और विपक्ष में महिलाओं की संख्या तो तब चार फीसदी ही थी लेकिन उनमें कई बड़ी प्रतिभाशाली थीं। रेनू चक्रवर्ती साम्यवादी थीं, बड़े ही धड़ल्ले से बोलती थीं और अकेले उन्होंने संसद में सबसे ज्यादा समय लिया था। सत्ताधारी कांग्रेस में कुछ अति गौरवशाली और विद्वान सांसद थे जो किसी भी सवाल पर खूब बोलते थे। नेहरू के अतिरिक्त इनमें पुरुषोत्तम दास टंडन, हरे कृष्ण महताब, एस.के. पाटिल, एन वी गाडगिल, स्वर्ण सिंह, आर वेंकट रमन, एन जी रंगा, सेठ गोविन्द दास और ठाकुर दस भार्गव ऐसे नेता थे जो जनता के सवालों पर खूब बहस करते थे।
तब विपक्ष संख्या में तो कमजोर था और छोटे -छोटे दलों में बंटा भी था किंतु उनकी भूमिका भी कमजोर नहीं थी। विपक्ष की तरफ से आचार्य कृपलानी थे तो अशोक मेहता भी। श्यामाप्रसाद मुखर्जी थे, एन सी चटर्जी, एसएस मोरे, लंका सुंदरम, मेघनाथ साहा, एचवी कामथ और सरदार हुकुम सिंह जैसे प्रखर वक्ता थे जो सरकार को पानी पिलाने से बाज नहीं आते थे। विपक्ष द्वारा किये गए विरोध और प्रहारों के कारण ही 1956 में टीटी कृष्णमाचारी को मंत्री पद से हटना पड़ा था।
दूसरी लोकसभा की एक विशेषता रही कि इसमें सामाजिक सुधार अधिनियम पारित हुए। संविधान में चार संशोधन हुए और इनमें से एक के द्वारा गोवा भारत संघ में शामिल हुआ। पहली बार लोकसभा और राज्य सभा की एक संयुक्त बैठक दहेज़ निरोधक बिल पर हुई।
हालांकि संख्या की दृष्टि से विपक्ष कमजोर था लेकिन विपक्ष के नेता अति प्रतिभाशाली थे। इन्होने संसदीय लोकतंत्र के सतर्क प्रहरी की भूमिका निभाने में अपनी काफी भूमिका निभाई थी। संसद में शक्तिशाली विपक्ष की वजह से ही बेरुबारी वाला मामला कोर्ट में राय के लिए भेजना पड़ा था। तब संसद में कांग्रेस के भीतर भी एक विपक्ष था जो सरकार को परेशान रखता था और नेहरू सबका स्वागत करते थे। नेहरू कहते थे कांग्रेस के भीतर भी सरकार की आलोचना करने का अधिकार है। प्रसिद्ध मूंदरा कांड कांग्रेस के सांसदों ने ही उजागर किया था जिसमें कोंग्रेसी मंत्री को पद छोड़ना पड़ा।
इसी काल में जब अटल बिहारी वाजपेयी ने नेहरू के पूर्व सचिव एम ओ मथाई के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की शिकायत की तो खुद नेहरू ने सिफारिश की कि मामले को रफा दफा करने की कोई कोशिश न करे और इस मामले को विशेषाधिकार समिति को सौपा जाए। उन्होंने कहा था कि ”जब संसद का एक अंग चाहता है कि कुछ किया जाना चाहिए तो फिर यह मामला ऐसा नहीं है कि इसे बहुमत से तय किया जाए और उन भावनाओं की अवहेलना की जाए। ”
सन 63 में राममनोहर लोहिया संसद में पहुंचे। संसद में पहली बार अविश्वास का प्रस्ताव आया। उस एक अविश्वास प्रस्ताव ने संसद का दरवाज़ा खोल दिया और जनता की तस्वीर वहां दिखने लगी। उस समय एक तरफ पंडित नेहरू, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, महावीर त्यागी, स्वर्ण सिंह खड़े थे तो विपक्ष में लोहिया, जे बी कृपलानी, हुकुम सिंह और ज्योतिर्मय बसु और पीलू मोदी खड़े थे। उस समय की संसदीय कार्यवाही को देखने पर पता चलता है कि सही में संसद देश का आइना है। कुछ बहस तो आज तक नजीर बनी हुई हैं।
”तीन आने वनाम तेरह आने”, भारत की चीन सीमा विवाद, भाषा आंदोलन, बेरोजगारी वगैरह पर सरकार के सामने विपक्ष के सवाल भारी पड़ते थे और सत्ता पक्ष मौन होकर सब सुनता रहता था। नेहरू जी ऐसे मुद्दों को और आगे बढ़ाने के लिए लोगों को प्रेरित करते थे। यूपी की गरीबी पर विश्वनाथ गहमरी के उस भाषण पर जिसमें उन्होंने सुनाया था कि किसान का बच्चा गोबर से निकलकर कैसे दाना खाता है। नेहरू जी रोने लगे थे। क्या आज ऐसा संभव है ? देश आज पहले से ज्यादा सुदृढ़ हुआ है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारी ताकत भी खूब बढ़ी है। हम दुनिया के देशो के साथ आँख मिलकर चल रहे हैं। लेकिन यह सब आज की देंन नहीं। हमारी हर सरकारें काम करती रही और हम आगे बढ़ते रहे ,लेकिन आज राजनीति और सरकार एक ऐसे रास्ते पर चलती दिख रही है जहां जनता केवल वोट देने की मशीन है। लोकतंत्र का हाल आगे क्या होगा कहा नहीं जा सकता।