लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी समेत विपक्षी दलों के लगातार हमले की वजह से भारत निर्वाचन आयोग तथा मुख्य निर्वाचन आयुक्त इन दिनों खूब चर्चा में हैं। राहुल गांधी से शपथ पत्र मांगने और देश से माफी मांगने के बयान से भारत निर्वाचन आयोग और निर्वाचन आयुक्त गण, मुख्य निर्वाचन आयुक्त की भूमिका सवालों के घेरे में है। अब देश के अलग-अलग हिस्सों से इस संवैधानिक संस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं। अब चर्चा है कि विपक्ष मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा है ।
मुख्य चुनाव आयुक्त की संवैधानिक स्थिति की बात करें तो
भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) की स्थापना की है, जो केंद्रीय स्तर पर चुनावों का संचालन के लिए अंतिम रूप से जिम्मेदार है।संवैधानिक रूप से बेहद ताकतवर इस संस्था के प्रमुख की भूमिका मुख्य निर्वाचन आयुक्त (Chief Election Commissioner) निभाते आ रहे हैं। संविधान में इस पद की स्वतंत्रता और सुरक्षा पर विशेष बल दिया गया है।
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट अश्विनी कुमार दुबे के मुताबिक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में यह स्पष्ट किया गया है कि राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय चुनावों की देखरेख, निर्देशन और नियंत्रण भारत निर्वाचन आयोग के पास रहेगा।इस स्वायत्त संस्था के प्रमुख के रूप में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार भारत के राष्ट्रपति के पास है।
अनुच्छेद 324(1) के तहत तय है कि चुनावों की समस्त ज़िम्मेदारी निर्वाचन आयोग की होगी।
अनुच्छेद 324(2) कहता है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति करेंगे।
अनुच्छेद 324(5) कहता है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया न्यायाधीशों के समान होगी।
इस तरह भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त को भारतीय संविधान के मुताबिक पूर्ण सुरक्षा प्राप्त है। सामान्य दशा में उन्हें हटाया नहीं जा सकता।
मुख्य चुनाव आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया की बात करें तो
अनुच्छेद 324(5) और अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की हटाने की प्रक्रिया दर्ज है। यही नियम-कानून मुख्य निर्वाचन आयुक्त पर भी लागू हैं।इस पद पर बैठे किसी भी व्यक्ति को हटाने की प्रक्रिया कुछ यूं है।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त तो न्यायमूर्ति के समकक्ष सुरक्षा प्राप्त करते हैं, लेकिन अन्य निर्वाचन आयुक्तों को सीधे राष्ट्रपति हटा सकते हैं।हालांकि, संविधान कहता है कि यदि राष्ट्रपति अन्य आयुक्तों को हटाना चाहते हैं तो मुख्य निर्वाचन आयुक्त से परामर्श लेना अनिवार्य होगा।यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की स्वतंत्र भूमिका बनी रहे।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया की नींव है। यदि सरकारें चाहें तो उनकी मनमानी से चुनाव आयोग को दबाव में ला सकती हैं। यही कारण है कि संविधान ने उन्हें न्यायाधीश जैसी सुरक्षा दी ताकि वे स्वतंत्र तरीके से कार्य कर सकें।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार कहा है कि चुनाव आयोग लोकतंत्र की प्रहरिणी संस्था (watchdog institution) है। एस.एस. धनोआ बनाम भारत संघ (1991) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटाने में केवल संसद का विशेषाधिकार है, कार्यपालिका का नहीं।इससे उनकी स्वतंत्रता और मजबूती सिद्ध होती है। टी.एन. शेषन बनाम भारत संघ (1995) के ऐतिहासिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ मुख्य निर्वाचन आयुक्त ही नहीं, बल्कि अन्य निर्वाचन आयुक्त भी समान अधिकार रखते हैं। आयोग एक बहु-सदस्यीय निकाय है और सामूहिक निर्णय महत्वपूर्ण है।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यकाल छह वर्ष का होता है। इस दौरान उनका वेतन और भत्ते सुप्रीम कोर्ट जज के समान होते हैं।उनकी सेवा शर्तें कार्यकाल के दौरान नहीं बदली जा सकतीं।
अब तक भारत में किसी भी मुख्य निर्वाचन आयुक्त को औपचारिक महाभियोग जैसी प्रक्रिया से नहीं हटाया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि संविधान द्वारा दिया गया सुरक्षा कवच कितना मजबूत है। हालांकि समय-समय पर आयोग की निष्पक्षता पर आरोप लगे हैं, परंतु किसी सीईसी को संसद ने हटाया नहीं है।
साल 2023 में संसद ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति अधिनियम पारित किया, जिसके अंतर्गत प्रधानमंत्री, एक कैबिनेट मंत्री और विपक्ष नेता से बनी समिति नियुक्ति में भाग लेगी। इसी कमेटी के फैसले पर राष्ट्रपति की मुहर लगेगी।पहले इसमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी सदस्य होते थे।अब ऐसा नहीं है।नई व्यवस्था को लेकर विवाद भी हुआ है लेकिन यह जस की तस है। एक और कानूनी प्रावधान यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त के खिलाफ कोई केस नहीं दर्ज हो सकता है।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया भारतीय संविधान के सबसे कठोर प्रावधानों में से एक है।इसका उद्देश्य बेहद स्पष्ट है। इस पद को किसी भी राजनीतिक दबाव से मुक्त रखना। क्योंकि इस पद की स्वतंत्रता ही लोकतंत्र का मुख्य आधार स्तम्भ है।