रक्षाबंधन पर्व को मानने की शुरुआत होने को लेकर एक पौराणिक कथा भगवान विष्णु, देवी लक्ष्मी और राजा बलि से जुड़ी हुई है।इस कहानी के अनुसार असुरों का राजा बलि 100 यज्ञ पूर्ण कर अजेय हो गया।धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित कर वह स्वर्ग का सिंहासन प्राप्त करने की तैयारी करने लगा।यह ज्ञात होने पर देवराज इंद्र चिंतित हो गए और भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे।
इंद्र ने भगवान विष्णु से स्वर्ग का सिंहासन बचाने की प्रार्थना की। तब वामन अवतार धारण कर भगवान विष्णु राजा बलि के दरबार में गए और उनसे भिक्षा की याचना की। राजा बलि दानवीर था।उसने वामन अवतार भगवान विष्णु को वचन दिया कि वह भिक्षा में जो भी मांगेगा, उसे प्रदान किया जायेगा।
भगवान विष्णु ने भिक्षा में तीन पग भूमि मांग ली।राजा बलि ने अपना वचन निभाते हुए वामन अवतार भगवान विष्णु को तीन पग भूमि दान में प्रदान कर दी और कहा कि वह तीन पग भूमि नाप ले।
भगवान विष्णु ने पहले पग में पृथ्वी को नाप लिया और दूसरे पग में स्वर्ग को।तीसरे पग के पूर्व ही राजा बलि भांप चुका था कि उसके समक्ष उपस्थित वामन कोई साधारण व्यक्ति नहीं है।उसने अपना शीश वामन रूपी भगवान विष्णु के आगे झुका दिया और उनसे तीसरा पग अपने शीश पर रखने का निवेदन दिया।
भगवान विष्णु ने वैसा ही किया। इस तरह राजा बलि अपना संपूर्ण राज्य गंवाकर पाताल लोक में रहने को विवश हो गया,क्योंकि वामन वेषधारी भगवान विष्णु ने उन्हें पाताल लोक में ही जाकर रहने को कहा था। पाताल जाने के पूर्व राजा बलि ने उनके मूल स्वरूप को देखने की जिज्ञासा प्रकट । बलि की प्रार्थना पर भगवान विष्णु अपने वास्तविक रूप में आये।वे बलि की दानशिलता देख अत्यंत प्रसन्न थे। उन्होंने बलि से वर मांगने को कहा।राजा बलि बोले ,भगवान्! मेरा तो सर्वस्व चला गया है। मेरी आपसे बस यही प्रार्थना है कि आप हर घड़ी मेरे समक्ष रहें। भगवान विष्णु ने तथास्तु कहा और राजा बलि के साथ पाताल लोक चले आये।
बैकुंठ में भगवान विष्णु की प्रतीक्षा कर रही देवी लक्ष्मी को जब यह सूचना मिली, तो वे चिंतित हो उठी।उन्होंने नारद मुनि को बुलाकर मंत्रणा की और इस समस्या का निदान पूछा।नारद मुनि ने उन्हें सुझाया कि वे राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर अपना भाई बना ले और उपहार स्वरूप भगवान विष्णु को मांग लें।
तब देवी लक्ष्मी गरीब ब्राह्मणी का भेष धरकर पाताल लोक पहुँची। राजा बलि को द्रवित करने के लिए वे यह कहकर विलाप करने लगी की उसके उपर संकट आया है उसका कोई भाई नहीं है जो इस समय उसे उस संकट से बचा सके।तब बलि ने उसे बहन बताते हुए कहा तुम अपने संकट बताओ।तब नारद के सुझाव के अनुसार देवी लक्ष्मी ने राजा बलि की कलाई में रक्षासूत्र बांधा। इसके बाद जब बलि ने उनसे अपनी संकट बताने के लिए कहा तो देवी लक्ष्मी अपने वास्तविक स्वरुप में आई और बोली, आपके पास पहरेदार के रूप में साक्षात भगवान विष्णु हैं। मुझे वही चाहिए, क्योंकि उनके यहां रहने से जगत के पालन पोषण का कार्य अवरुद्ध हो रहा है।
राजा बलि ने भगवान विष्णु को देवी लक्ष्मी के साथ जाने दिया और एक बहन को दिया अपना वचन निभाया। इससे प्रसन्न होकर जाते-जाते भगवान विष्णु ने राजा बलि से कहा कि वे हर साल चार माह पाताल लोक में उनके साथ निवास करेंगे। यह चार माह चातुर्मास कहलाता है।यह देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होकर देवउठनी एकादशी तक रहता है।
जिस दिन देवी लक्ष्मी ने राजा बलि को रक्षासूत्र बांधा था, वह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था।तब से वह दिन रक्षाबंधन के रूप में मनाया जाता है और उस दिन बहनें अपने भाइयों की कलाई पर रक्षासूत्र/ राखी बांधती हैं और भाई बहनों को रक्षा करने का वचन देते हैं।
रक्षा सूत्र बांधने के समय एक मंत्र पढ़ा जाता है। यह मंत्र है – येन बद्धो बलि राजा दानवेंद्रो महाबल, तेन त्वाम प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल।अर्थात जिससे (रक्षासूत्र) दानवेंद्र महाबली राजा बलि को बांधा गया, उसे में आपको बांध रही हूं। हे रक्षा सूत्र आप अचल रहें।
इस रक्षा सूत्र से जुड़ी एक कथा देवराज इंद्र से भी जुड़ी हुई है।
इस कथा का उल्लेख भविष्य पुराण में मिलता है।एक बार 12 वर्षों तक अनवरत देवों और असुरों के मध्य युद्ध होता रहा। इस युद्ध में देवगणों की पराजय हुई।तब देवराज इंद्र सभी देवों के साथ अमरावती चले गये।
उधर असुरों ने तीनों लोकों पर कब्ज़ा कर अपना राज्य स्थापित कर लिया और घोषणा करवाई कि इस राज्य में यज्ञ, वेदों का पठन-पाठन, पूजा और धार्मिक अनुष्ठान नहीं होंगे।इस तरह तीनों लोकों में धर्म का नाश होने लगा।
दु:खी और चिंतित देवराज इंद्र गुरू ब्रहस्पति के पास पहुँचे। उस समय गुरू ब्रहस्पति के साथ उनकी पत्नि शुचि भी उपस्थित थी।देवराज इंद्र की व्यथा समझते हुए वे बोली, “देवराज! कल ब्राह्मण शुक्ल पूर्णिमा है।विधानपूर्वक तैयार किया गया रक्षासूत्र मैं आपको प्रदान करूंगी। उसे कल रक्षा विधान करवाकर आप ब्राह्मणों द्वारा अपनी कलाई पर बंधवा लेना, आपकी विजय होगी।
ब्राह्मण शुक्ल को प्रातःकाल देवराज इंद्र ने शुचि द्वारा दिया गया रक्षासूत्र ब्राह्मणों द्वारा अपनी कलाई पर बंधवाया और उसके प्रभाव से युद्ध में देवताओं की विजय हुई।उस दिन से रक्षाबंधन पर्व ब्राह्मणों के माध्यम से मनाया जाता है।
रक्षा सूत्र से जुड़ी एक अन्य कथा महाभारत काल से भी जुड़ी हुई है।
यह कथा महाभारत युद्ध के समय की है।युद्ध के दौरान एक दिन युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा कि मुझे कोई उपाय बताइए, ताकि मैं सभी संकटों को पार कर सकूं।तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा कि वे सभी सैनिकों की कलाई पर रक्षासूत्र बांधे ।वह समस्त संकट हरकर विजय प्राप्ति सुनिश्चित करेगा।युधिष्ठिर ने वैसा ही किया और महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त की। इस विजय में रक्षासूत्र का भी योगदान था।जिस दिन युधिष्ठिर ने सभी सैनिकों को रक्षासूत्र बांधा था, वह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था, तब से इस दिन सैनिकों को भी राखी बांधी जाती है।
रक्षासूत्र से जुड़ी एक कहानी सिकंदर और राजा पुरू के युद्ध के बीच की भी है।
विश्वविजय के लिए निकला यूनान का सम्राट सिकंदर जब भारत पहुँचा, तो उसका सामना भारत के पुरूवंश के वीर राजा पोरस से हुआ। राजा पोरस का राज्य झेलम और चिनाब नदियों के मध्य स्थित था और सिंध-पंजाब का बहुत बड़ा क्षेत्र उसके अंतर्गत आता था।इसे लेकर सिकंदर और पोरस के मध्य घमासान युद्ध हुआ।इस युद्ध में सिकंदर की सेना को पोरस की सेना कड़ी टक्कर दे रही थी।
सिकंदर की पत्नि को भारतीय त्यौहार रक्षाबंधन की जानकारी थी। उसने अपने पति पर संकट के बादल मंडराते देख राजा पोरस के पास एक राखी भिजवाई। राजा पोरस सिकंदर की पत्नि के द्वारा भेजी राखी देखकर आश्चर्यचकित था, लेकिन उसने राखी के धागों का मान रखा।
इस युद्ध में एक ऐसा समय भी आया, जब सिकंदर का घोड़ा पोरस के भाई के द्वारा मारा जा चुका था और सिकंदर निहत्था पोरस के सामने खड़ा था।पोरस के पास सिकंदर को समाप्त करने का यह एक श्रेष्ठ अवसर था,किंतु उसने राखी का मान रखते हुए निहत्थे सिकंदर पर वार नहीं किया और उसे छोड़ दिया।
राखी की एक कहानी चित्तौड़ के राजपूत राजा सांगा की विधवा रानी कर्णवती और मुग़ल शासक हुमांयू से भी जुड़ी हुई है।
राजस्थान में यह प्रथा थी कि जब राजपूत राजा युद्ध पर जाते, तो महिलायें उनके माथे अपर कुमकुम का तिलक करती और कलाई पर रेशम का रक्षासूत्र बांधती।उनका यह विश्वास था कि रेशम का वह धागा उन्हें युद्ध में विजय दिलाएगा।
मार्च १५३४ में गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया। तब चित्तौड़ की विधवा रानी कर्णवती ने मुग़ल बादशाह हुमांयू को राखी भेजी और उनसे सहायता मांगी थी।
जिस समय हुमायूं को यह रखी मिली उस समय हुमांयू बंगाल पर चढ़ाई के लिए जा रहे थे, लेकिन राखी मिलते ही वे अपन बंगाल अभियान छोड़कर रानी कर्णवती की सहायता के लिए चित्तौड़ रवाना हो गए। वह ज़माना हाथी-घोड़ों का था।ऐसे में हुमांयू जब तक चित्तौड़ पहुँचे, तब तक देर हो चुकी थी और रानी कर्णवती ने जौहर कर लिया था।और उधर बहादुर शाह ने चित्तौड़गढ़ पर जीत हासिल कर ली थी।
राखी का फ़र्ज़ निभाने हुमांयू ने बहादुर शाह से युद्ध किया और उन्हें हराकर चित्तौड़ के शासन की बागडोर अपनी मुँहबोली बहन रानी कर्णवती के पुत्र विक्रमादित्य को सौंप दिया।