अखिलेश अखिल
इस लोक से जाना तो सबको है। समाजवाद के प्रखर नेता शरद यादव भी इस मायानगरी को छोड़कर चले गए। जबलपुर में पहले छात्र राजनीति में चर्चित हुए और बाद में देश की राजनीति में नायक। लड़ते रहे ,भिड़ते रहे लेकिन समाजवादी धारा से विमुख नहीं हुए। समाज के वंचित लोगों की आवाज थे शरद यादव। उन्होंने कई सरकार बनवाई,कई सरकार सरकार गिरवाई और कइयों की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए उसे स्थापित भी किया। शरद सबके थे लेकिन सब शरद के नहीं थे। कइयों ने उन्हें धोखा भी दिया लेकिन वे हारे नहीं। वे समाजवादी तो थे ही लोकवादी भी थे। शरद जेपी के शिष्य थे तप अटल आडवाणी के ख़ास भी। वे लालू के गुरु थे तो नीतीश के अभिभावक भी। वे जनता परिवार के थे और अंत तक जनता परिवार में रहकर विदा हो गए। शरद इस देश की राजनीति के ऐसे शिखर पुरुष थे जो जन्मे तो थे मध्यप्रदेश में लेकिन आजीवन उनका मरना -जीना बिहार के लिए होता रहा। बिहारी रहन सहन ,खान पान और बोलचाल में वे रम से गए थे। इस महान आत्मा को विनम्र श्रद्धांजलि।
पत्रकारीय मेल -मिलाप के तौर पर शरद यादव से मुलाकात तो होती ही रहती थी लेकिन कुछ सवालों को लेकर उनके साथ दो बार लम्बी बैठके हुई थी। एक बार नाराज हुए थे और की बैठक में खुश हुए थे। 1996 में मैं पटना गया था विचार मीमांसा पत्रिका में। मुझे दिल्ली से वहाँ भेजा गया था। तब बिहार की हालत बेहद ख़राब थी। चारो तरफ हिंसा ,लूट ,अपहरण और जातीय सेनाओं के बीच भिड़ंत का माहौल था। तब लालू यादव वहां के मुख्यमंत्री थे और उनकी देशी अदाएं देश -दुनिया में चर्चित थी। पत्रिका के लिए एक स्टोरी तय हुई। कई साथियों ने उस स्टोरी में सहभागी बने। ‘बन्दर के हाथ में बिहार ‘ शीर्षक से कवर स्टोरी छपी और बिहार में जैसे आग लग गई। फिर तो बहुत सी घटनाये घटी। इसी बीच एक दिन शरद जी से मुलाकात हुई। वे भड़क गए। बोले कि ‘ ये सब क्या करते हो — बेहद खतरनाक काम है ये —- अभी तो पिटाई खाये हो ,कुछ भी हो सकता था —फिर भी तुमने जो किया सब ठीक ही था। सरकार को जगाने के लिए यह जरुरी भी था। ” इसके बाद शरद जी ने बहुत सी बातों की चर्चा की और शाबासी भी दी। उन्होंने ये भी कहा था कि नेता और पत्रकार को कभी डरना नहीं चाहिए। अगर डर गए तो फिर लोकतंत्र का क्या होगा ? लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए पत्रकार को साहसी होना होगा।
शरद जी से दूसरी लम्बी मुलाकात 2005 में हुई जब गोधरा दंगा के बाद एक स्टोरी करने गुजरात गया था। गुजरात में मफतलाल पटेल जी से मेरी मुलाकात हुई थी। मफ़तलालाल पटेल आनंदी बेन पटेल के पति हैं। अकसर गुजरात दौरे पर उन्ही के यहाँ ठहरता था मैं। पटेल की मोदी सरकार से बनती नहीं थी और उनकी पत्नी आनंदी बेन पटेल तब मोदी सरकार में मंत्री थी। उन्होंने तब मोदी के खिलाफ बहुत कुछ कहा था और आडवाणी को गंभीर पत्र भी लिखा था। रात में मफ़तलाल पटेल ने हमें मोदी की शादी की बात बतायी और ससुराल से लेकर मोदी की पत्नी यशोदा बेन की चर्चा की। हमने हफ्ते -दस दिन में बड़नगर से ब्राह्मणबाड़ा की पूरी कहानी दर्ज की। यशोदाबेन से मुलाकात की और स्टोरी बनायी। इस खबर के बाद देश को पता चला कि मोदी शादी शुदा हैं और उनकी पत्नी यशोदा बेन है। बीजेपी वालों ने हम पर झूठी और पीत पत्रकारिता का आरोप लगाया। एक दिन शरद यादव जी से भेंट हुई। उन्होंने कहा – ”आजकल ये नयी कहानी क्या है। मैंने स्टोरी देखी है। क्या सचमुच ऐसा है ? गजब है यार। इतनी बड़ी झूठ देश के सामने बीजेपी वाले फैला रहे हैं। बहुत अच्छा लिखे हो। ”
शरद यादव सचमुच गरम भी थे और नरम भी। शरद यादव का नाम राष्ट्रीय स्तर पर तब चर्चा में आया जब 1974 में जबलपुर में हुए लोकसभा के उपचुनाव में उन्होंने विपक्ष के साझा उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस के दिग्गज नेता गोविंद दास को चुनाव हराया। इसके पहले वह जबलपुर विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में देश के छात्र एवं युवा आंदोलन का एक बड़ा और अगुआ चेहरा बन चुके थे। जब 1984 में वह अमेठी लोकसभा सीट से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े तब देश ने उन्हें जाना -पहचाना था। लेकिन यह भी सच है कि तब के युवा शरद देश की राजनीति को समझ गए थे।
शरद यादव कांग्रेस के खिलाफ थे। वे इंदिरा गाँधी की राजनीति के भी खिलाफ ही रहते थे लेकिन इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री के वे हमेशा प्रशंसक थे। वे आपातकाल में जेल भी गए ,74 के आंदोलन में अहम् भूमिका भी निभाते रहे। जीपी के शिष्य बनकर आंदोलन की अगुवाई भी करते रहे। जनता पार्टी की सरकार से लेकर अटल की सरकार और फिर वीपी सिंह की सरकार से लेकर देवगौड़ा ,इंद्रकुमार गुजरात की सरकार के वे करता धरता रहे।
शरद यादव लालू प्रसाद के भी गुरु रहे। लालू को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में सबसे आगे रहे। वे नीतीश कुमार के भी साथ रहे। जनता दाल के संस्थापक रहे। वे जॉर्ज के भी सखा थे और तमाम समाजवादी नेताओं के साथ ही उनके सम्बन्ध हर पार्टी के सभी नेताओं से रहे। जनता दल से दुखी होकर निकले भी। अलग पार्टी बनायी और अंत में फिर उसी जनता परिवार के राजद के साथ हो लिए। वे पहले भी लालू के साथ थे और अंत भी लालू के साथ ही किया।
शरद यादव न सिर्फ कबीर को सबसे बड़ा सुधारक मानते थे, बल्कि उन्हें राजनीति का कबीर भी कहा जा सकता है। वह ऐसे विरले नेताओं में थे जो तीन राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। वह लंबे समय तक संसद के दोनों सदनों में रहे। केंद्रीय मंत्री रहे लेकिन उनके ऊपर किसी तरह का कोई आरोप विवाद या दाग नहीं लगा। जिस दल में वह रहे वहां उनका दबदबा रहा और पद से लेकर टिकट बंटवारे तक उनकी चली। लेकिन किसी ने भी कभी यह नहीं कहा कि उन्होंने बदले में कोई लाभ लिया हो। उनका यह कबीरपन जब वह मंत्री थे तब भी वैसा ही रहा और जब वह राजनीति के हाशिए पर चले गए तब भी बना रहा।