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नागपुर अधिवेशन : असंतोष, बेचैनी और आक्रोश!

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प्रकाश पोहरे (प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)

सभी वैदर्भियों को हमेशा आश्चर्य होता है कि नागपुर करार के अनुसार होनेवाले राज्य विधानमंडल के वार्षिक शीतकालीन अधिवेशन (सत्र) ने आज तक विदर्भ को क्या दिया है? ऐसे में उम्मीद थी कि 7 दिसंबर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र में विदर्भ का अक्स देखने को मिलेगा। हालाँकि, सत्र के पहले दिन से ही विदर्भ के मुद्दे पर प्राथमिकता के आधार पर चर्चा करने के बजाय, आरक्षण जैसे जातिगत मुद्दे पर सत्ता पक्ष और विपक्ष की ‘बाजीगरी’ ने वैदर्भियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। अपने से परे किसी भी चीज़ से कोई लेना-देना नहीं रखने वाला नेतृत्व! पचास खोके के मायाबाजार में फंसे हुए विधायक! हतोत्साहित प्रशासन! झूमती नौकरशाही! आज संपूर्ण विदर्भ राज्य की व्यवस्था जर्जर है और समाज सुधारक (?) स्वतंत्र हैं। यह देखकर मेरे जैसा आदमी शांत नहीं बैठ सकता।

इस पृष्ठभूमि में सबका ध्यान 11 दिसंबर को विदर्भ ज्वाइंट एक्शन कमेटी द्वारा विधानमंडल तक निकाले गए भव्य मोर्चे की ओर गया। इस मोर्चे में भाग लेने वालों में से कोई भी भाड़े का कार्यकर्ता नहीं था। स्वतंत्र विदर्भ राज्य को लेकर पिछले एक साल से इसी तरह असंतोष पनप रहा है। हालाँकि, इससे असंवेदनशीलता का दूसरा उदाहरण क्या दिया जा सकता है कि एक मंत्री तो क्या, कम से कम एक सक्षम अधिकारी भी मोर्चा को भेंट देने नहीं आया! सत्र की शुरुआत से ही परियोजना प्रभावित किसानों, श्रमिकों, छात्रों सहित विदर्भ के लाखों लोगों ने अपनी विभिन्न मांगों को लेकर नागपुर की ओर पैदल मार्च किया। जब ये लोग नागपुर के यशवन्त स्टेडियम में बैठे हैं, तो एक भी मंत्री वहां जाने को तैयार नहीं है। इससे ज्यादा शर्मनाक बात क्या हो सकती है!

वैदर्भी लोग कई वर्षों से जानते हैं कि यहां के राजनीतिक नेताओं की नीति, शीत-सत्र में ‘गैर-मुद्दों’ पर हंगामा करना, विदर्भ के मुद्दों और समस्याओं को न उठाना और स्वतंत्र विदर्भ राज्य सहित विदर्भ के लोगों की मांग को आसानी से नजरअंदाज करना है। नागपुर करार के कारण महाराष्ट्र सरकार अनिच्छा से नागपुर में शीतकालीन- सत्र आयोजित करती है। विदर्भ के साथ न्याय का केवल दिखावा किया जाता है, परिणामस्वरूप विदर्भ के साथ लगातार अन्याय होता आया है। यही भूमिका विपक्षी दल की भी है। इस वर्ष मैं सत्र के पहले दिन से ही सभागृह में एक पत्रकार के रूप में उपस्थित था। लगातार चार दिनों तक एक ही विषय मराठा आरक्षण…साथ ही ओबीसी, धनगर आरक्षण..बेशक इन विषयों पर चर्चा हुई तो दुख नहीं हुआ, लेकिन विदर्भ में यह सम्मेलन था और चर्चा में विदर्भ का एक भी मुद्दा नहीं था, जो कि क्रुद्ध करने वाला था। अगर आप आरक्षण पर चर्चा करना चाहते हैं, तो इसके लिए विशेष सत्र बुलाएं। नागपुर करार के अनुसार, छह सप्ताह के सत्र लेने का अनुबंध है, लेकिन केवल 2 सप्ताह यानी 7 से 20 दिसंबर तक सत्र लिया जा रहा है। उसमें भी पहला दिन गुरुवार को शोक में बिताया गया, दूसरे दिन शुक्रवार को आधा दिन काम हुआ और उसके बाद बहिष्कार और काम बंद हो गया। फिर शनिवार व रविवार को अवकाश हो गया। सोमवार को फिर इधर-उधर की चर्चा हो गयी। फिर मंगलवार, बुधवार, गुरुवार तक विदर्भ के एक भी मुद्दे पर चर्चा नहीं हुई। इसलिए जब मैं गुरुवार शाम को प्रेस गैलरी में था, तो आखिरकार मेरे संयम का बांध टूट गया और जब मुंबई के एक सदस्य कोई अनावश्यक मुद्दों पर बात कर रहा था, तो मैंने आवाज उठाई और कहा कि विदर्भ की समस्या के लिए यहां सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है, तो विदर्भ मुद्दे पर चर्चा करोगे या नहीं? यदि विदर्भ में अधिवेशन आयोजित कर विदर्भ के मुद्दे पर चर्चा नहीं की जाती, तो यहां अधिवेशन ही आयोजित क्यों किया जाए? आप लोगों का पैसा क्यों बर्बाद करते हैं? मैं ऐसे ही सवाल उठाते हुए बाहर आया। तभी सुरक्षा गार्डों ने मुझे घेर लिया। हालांकि, इससे बीजेपी सदस्य काफी नाराज हो गए।

बीते दिन संसद भवन में दो युवाओं ने ऐसा ही प्रदर्शन किया। मुझे उस पल एहसास हुआ कि हमारी तरह उनके भी सब्र का बांध टूट गया होगा। संसद में प्रदर्शन में शामिल पांचों युवा बेरोजगारी से बेचैन हैं। उनका किसी भी तरह के अपराध का कोई रिकॉर्ड नहीं है। हालाँकि वे मासूम, निर्दोष और आधारहीन चेहरे हैं, जो इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद देश के लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए असंवैधानिक रास्ता अपनाते हैं कि अहिंसा के मार्ग पर चलने से न्याय नहीं मिलता है। यदि वे हिंसक होना चाहते, तो वे कुछ सांसदों पर हमला भी कर सकते थे, लेकिन उन्होंने संसद में सिवा उछलकूद के कुछ नहीं किया। फिर भी उनके खिलाफ देशद्रोह, राजद्रोह, हत्या का प्रयास जैसे मामले तो चलेंगे ही। लेकिन, उन्होंने हिंसा का सहारा नहीं लिया, सिर्फ अपनी बात रखने की कोशिश की. लोगों का ध्यान खींचने की कोशिश की। सौभाग्य से, उनमें से कोई भी मुसलमान नहीं था। यदि ऐसा होता, तो हम उन्हें आतंकवादी के रूप में चिन्हित अवश्य कर देते! हालाँकि, उन्होंने यह ‘भगतसिंह’ नीति इसलिए आज़माई, ताकि लोग उनके विषयों को समझें। लेकिन उन्हें क्या पता कि हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर बिकने वाले मीडिया हाउस ये कभी नहीं बताएंगे कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? लेकिन उन्होंने जो विद्रोह किया, वह उग्र नहीं था, आतंक नहीं था। सवाल है कि किन परिस्थितियों ने उन्हें इस स्तर तक पहुंचने पर मजबूर किया? वे बेरोजगारी, महंगाई और मणिपुर में हो रहे अन्याय के खिलाफ भी आवाज उठा रहे थे। सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया, उल्टे घटना पर चर्चा की मांग करने वाले विपक्षी दल के पंद्रह सांसदों को निलंबित कर दिया। इस मामले ने मुझे यह अहसास कराया कि वह संसद में एक ऐसा असहज-अस्वस्थ दिन था, जैसा कि मैं भी 14 दिसंबर को विधानसभा की प्रेस गैलरी में बैठे हुए अनुभव कर रहा था!

मूलतः प्रत्येक मुख्यमंत्री नागपुर अधिवेशन के महत्व को कम करके आंकना चाहता था। विदर्भ के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारने का प्रयास किया गया। कोयले की आपूर्ति कहां करनी है? इसका फैसला भी केंद्र सरकार की एक समिति करती है। केंद्र के नियंत्रण के कारण विदर्भ में कोयले से होने वाला राजस्व महाराष्ट्र को मिल जाता है, विदर्भ को इसका लाभ नहीं मिलता है। हालाँकि विदर्भ में भरपूर कोयला उपलब्ध है और यहां बिजली का उत्पादन किया जा रहा है। इसके बावजूद विदर्भ में बिजली का हिस्सा सबसे कम है! विदर्भ की तुलना में चार गुना अधिक कृषि बिजली का उपयोग पुणे डिवीजन (पश्चिम महाराष्ट्र) और नासिक डिवीजन (उत्तर महाराष्ट्र) में किया जाता है! महाराष्ट्र में बिजली आपूर्ति वाले कुल कृषि पंपों में से केवल 19.57 प्रतिशत पंप विदर्भ (11 जिलों) में हैं। जबकि इस संख्या के ढाई गुना से भी अधिक, 51 प्रतिशत कृषि पंप उत्तर-पश्चिम महाराष्ट्र में (10 जिलों में) हैं, केवल आधा प्रतिशत कृषि बिजली चंद्रपुर जिले में है, जो कि राज्य में सबसे अधिक बिजली का उत्पादन करता है! चंद्रपुर सहित विदर्भ के 11 जिलों में केवल 13 प्रतिशत और जलगांव और सोलापुर के दो जिलों में 24 प्रतिशत! गढ़चिरौली जिले में 0.16 प्रतिशत से भी कम कृषि बिजली! औद्योगिक बिजली खपत का भी यही गणित है। 10 जिलों वाला पुणे-नासिक संभाग, 11 जिलों के विदर्भ से 10 गुना अधिक औद्योगिक बिजली की खपत करता है। वर्ष 2021-22 के दौरान महाराष्ट्र राज्य में 44,109 मिलियन किलोवाट घंटे की औद्योगिक बिजली की खपत हुई। उसमें से 11.46 प्रतिशत बिजली ग्यारह जिलों के विदर्भ में और 26.85 प्रतिशत बिजली दस जिलों के पुणे (पश्चिम महाराष्ट्र) और नासिक (उत्तर महाराष्ट्र) डिवीजनों में खपत की गई थी। सिंचाई का भी यही हाल है। महाराष्ट्र में रहकर विदर्भ बंजर हो गया! कारण- सिंचाई में अक्षम्य भेदभाव!! राज्य में प्रमुख एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ 405 हैं. उनमें से पचास प्रतिशत 10 जिलों के पुणे और नासिक डिवीजनों में पचास प्रतिशत यानी 202 परियोजनाएं हैं! जबकि ग्यारह जिलों के विदर्भ में सिर्फ पच्चीस प्रतिशत 101 परियोजनाएँ हैं!!
खास बात यह है कि अकेले पुणे संभाग के सातारा जिले में 45 परियोजनाएं हैं! तो, पांच जिलों यानी पश्चिम विदर्भ के अमरावती डिवीजन में केवल 40 परियोजनाएं हैं!! यही स्थिति विनिर्माण के संदर्भ में भी है।

महाराष्ट्र राज्य में 36,485 सक्रिय कारखाने पंजीकृत हैं। उनमें से केवल 7 प्रतिशत यानी 2,618 कारखाने विदर्भ के ग्यारह जिलों में स्थित हैं। जबकि पश्चिम और उत्तर महाराष्ट्र के दस जिलों में फैक्टरियों की संख्या 42 फीसदी यानी 10,08,424 (दस लाख आठ हजार चार सौ चौबीस) है। बेशक, विदर्भ की फैक्ट्रियों से छह गुना और पश्चिम महाराष्ट्र में चार गुना मजदूर हैं! विदर्भ में वीरान गांवों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। भाषा के नाम पर संयुक्त महाराष्ट्र में शामिल हुआ विदर्भ पिछले 62 वर्षों में ‘बंजर’ बन गया है। 11 जिलों का विदर्भ बंजर गांवों का क्षेत्र बन गया है! महाराष्ट्र के 2,703 बंजर गांवों में से 85 प्रतिशत यानी 2,305 बंजर गांव अकेले विदर्भ में ही हैं। जबकि पश्चिम और उत्तर महाराष्ट्र के 10 जिलों में बंजर गांवों की संख्या सिर्फ 135 है।

उसी तरह कपास का पूरा भविष्य अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर निर्भर करता है। अगर वैश्विक बाजार में कीमतें ऊंची हैं, तो यह फायदेमंद है। लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने यहां ‘कपड़ा उद्योग’ का पूरा रास्ता ही बंद कर दिया है। इसलिए, ‘गोल्डन बेल्ट’ (सोने की कुरहाड) के रूप में जाने जाने वाले विदर्भ के कपास किसानों को अभूतपूर्व भेदभाव का शिकार होना पड़ा। विदर्भ में 12 कपड़ा मिलें बंद हो गईं। अधिकांश सहकारी धागा मिलें बंद हो गईं, यही हाल सहकारी जिनिंग-प्रेसिंग समितियों का भी है। वर्तमान में केवल दो से तीन सूती मिलें ही टिकी हुई हैं। पश्चिम महाराष्ट्र के नेताओं ने चीनी मिलों, सहकारी बैंकिंग आंदोलन की तरह अपने क्षेत्र के विकास, आर्थिक सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। दूध के कारोबार ने वहां के किसानों को ताकत दी। विदर्भ से कपास लाकर सूती मिलें स्थापित कीं और उनका सफलतापूर्वक संचालन किया। इसके विपरीत, जब महाराष्ट्र सरकार कपास किसानों के साथ अन्याय कर रही थी और विदर्भ की पूरी अर्थव्यवस्था को नष्ट कर रही थी, तो विदर्भ के नेता क्या कर रहे थे? इसे गंभीरता से लेना आवश्यक है।

इतना ही नहीं, अब विदर्भ भी महाराष्ट्र के पाप में शामिल हो रहा है, जो 7 लाख करोड़ का कर्ज मांग रहा है। 2014 में गठबंधन सरकार हट गई, उस वक्त महाराष्ट्र पर 55 हजार करोड़ का कर्ज था। यह आंकड़ा आज 7 लाख करोड़ (7,00,00,000 करोड़) रुपये तक पहुंच गया है। महाराष्ट्र सरकार ने समृद्धि हाईवे 75 हजार करोड़ और आगामी नागपुर गोवा हाईवे 1 लाख करोड़ जैसी अनावश्यक सड़क परियोजनाओं का काम तो निकाल लिया, कई और अनावश्यक भूमिपूजन चल रहे हैं, क्योंकि इससे कमीशनखोरी होती है। कर्ज राज्य की जनता पर है, लेकिन मालिदा अपनी जेब में है। अभी महाराष्ट्र के हर नागरिक पर 63 हजार 640 रुपये का कर्ज है, केंद्र सरकार का कर्ज अलग है। इसका मतलब है कि हम जल, जंगल, जमीन, खनिज, जनशक्ति आदि से समृद्ध हैं, लेकिन महाराष्ट्र सरकार खुलेआम हमें अपनी ‘भीख’ में शामिल कर रही है। वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड, 2002 में झारखंड और 2014 में तेलंगाना का गठन हुआ। हालाँकि ये तीनों-चारों छोटे राज्य वर्तमान में विकासशील श्रेणी में आते हैं, लेकिन ये किसी भी तरह से भिखारी नहीं हैं। क्योंकि ये राज्य अपने-अपने राज्य के राजस्व के बल पर चल रहे हैं। विदर्भ इन राज्यों से कई गुना ज्यादा अमीर है! क्या विदर्भ, मुंबई के बिना चल सकता है? ऐसा सोचने के बजाय, क्या मुंबई और शेष महाराष्ट्र विदर्भ के बिना रह सकते हैं? यह सीधा विचार क्यों नहीं है?

वर्तमान तस्वीर यह है कि जिन लोगों ने आज तक विदर्भ की जनता को स्वतंत्र विदर्भ राज्य के बारे में सपनों का गाजर दिखाया, वे सभी अब सत्ता की गर्म सीट पर बैठकर उस गाजर का हलवा खा रहे हैं। ऐसा देखा गया कि जिस विदर्भ में रोजाना 14 किसान आत्महत्या कर रहे हों, उसकी समस्या को सत्र में उठाकर सरकार को सवालों के घेरे में रखकर विदर्भ की समस्या हल करने में किसी की रुचि नहीं है। ऐसे समय में विदर्भ में जन- प्रतिनिधियों की नैतिकता पर ही सवाल उठने लगे हैं। हालाँकि शब्द और पहचान के धुरंधर विदर्भ मुद्दे पर दुम दबाकर बैठे दिखे। यही कारण है कि अब विदर्भ की जनता, विदर्भ की उपेक्षा करने वाले महाराष्ट्र के शासन में नहीं रहना चाहती।

अब सत्ताधारियों के लिए बेहतर यही होगा कि वे समय रहते ‘स्वतंत्र विदर्भ राज्य’ की मांग पर ध्यान दें, अन्यथा आने वाले समय में वे जातीय आरक्षण का दीपक जलाकर अपने राजनीतिक लक्ष्य साधने के चक्कर मे बर्बाद हो जायेंगे!

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लेखक : प्रकाश पोहरे
(प्रधान संपादक- मराठी दैनिक देशोन्नति, हिंदी दैनिक राष्ट्रप्रकाश, साप्ताहिक कृषकोन्नति)
प्रतिक्रिया के लिए: मोबाइल नं. 9822593921
ईमेल: 2prakashpohare@gmail.com

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