अखिलेश अखिल
तेलंगाना की लड़ाई अब आखरी पड़ाव पर है। कहने को दर्जन भर पार्टियां तेलंगाना में झंडा ,बैनर लिए चुनावी जंग में जरूर दिख रही है लेकिन मुख्य मुकाबला कांग्रेस ,बीजेपी और बीआरएस के बीच ही है। बीआरएस अब सत्ता में है और वह लगातार तीसरी बात जीत के लिए संघर्ष कर रही है लेकिन इस बार उसकी जीत को रोकने के लिए कांग्रेस और बीजेपी ने भी अपना दाव खेला है। तेलंगाना की जनता आखिरी फैसला क्या करती है इसे देखना बाकी है।
लेकिन बीजेपी ,कांग्रेस और बीआरएस की इस लड़ाई में जीत तो उसी की होगी जिसके पास आदिवासी ,दलित और मुस्लमान वोट जायेंगे। राज्य की राजनीति में इसी समाज का दबदबा है और यहाँ के चुनाव को यही समाज प्रभावित भी करते रहे हैं। पिछले दो चुनाव में केसीआर ने दाल;आईटी ,आदिवासी और मुसलमान वोट को साधने में सफल रहे ,गद्दी पर बैठ गए। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है।
तेलंगाना की लड़ाई में कांग्रेस का ज्यादा जोड़ दलित ,आदिवासी और मुस्लिम वोट पर है। उधर बीजेपी भी दलित और आदिवासी वोट को साधने लगी है। बीआरएस भी हर हाल में अपने पुराने वोट बैंक को साधने में जुटे हैं। बीआरएस को जब इस बार लगा कि मुस्लिम वोट उससे अलग हो रहे हैं तब केसीआर ने ओवैसी के साथ गठबंधन किया। इस गठबंधन का क्या हश्र होगा ,इसे अभी देखना है लेकिन इतना तय है कि इस बार मुस्लिम वोट दो गुटों में बाँटने जा रहे हैं। एक बड़ा वोट बैंक कांग्रेस से जुड़ा हुआ है जबकि दूसरा वोट बक ओवैसी के साथ जा मिला है। ऐसे में जिस पार्टी के पास दलित और आदिवासियों का पूरा समर्थन होगा उसकी जीत पक्की होगी।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि तेलंगाना में दलित, आदिवासी के साथ-साथ मुसलमानों के वोट से सत्ता का रास्ता तय किया जाता है। बीते दो चुनावों में तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर के हिस्से इन तीनों प्रमुख समुदाय के मिले वोट से सत्ता की गद्दी हासिल हुई थी। यही वजह है कि कांग्रेस ने दलित, आदिवासी और मुसलमानों पर एक साथ सियासी दांव आजमाने शुरू किए हैं। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने दलितों और आदिवासियों के सहारे राज्य में सत्ता पाने की अपनी जुगत लगाई है।
तेलंगाना की सियासत में दलित आदिवासी और मुस्लिम समुदाय का प्रमुख योगदान होता है। इन तीनों समुदायों के 43 फ़ीसदी वोट तय करते हैं कि तेलंगाना में सरकार किसकी बनेगी। आंकड़ों के मुताबिक तेलंगाना में 18 फ़ीसदी दलित और 12 फीसदी आदिवासी समुदाय के साथ-साथ 13 फीसदी मुस्लिम मतदाता शामिल हैं। राजनीतिक कहते हैं कि बीते दो चुनाव में तो इन तीनों प्रमुख समुदायों पर केसीआर का ही बड़ा हक बना था। नतीजतन वह 2014 और 2018 में तेलंगाना की सत्ता में काबिज हुए। इस बार फिर सभी राजनीतिक दल इन्हीं सियासी समीकरणों के माध्यम से जातीयता के आधार पर तेलंगाना में सत्ता पाने का रास्ता तैयार कर रहे हैं।
सियासी जानकारों का कहना है कि 2014 के विधानसभा चुनावों में 19 आरक्षित सीटों में केसीआर की पार्टी बीआरएस को 16 सीटें हासिल हुई थीं। इसी तरह 2018 के चुनाव में भी आरक्षित सीटों में केसीआर की पार्टी बीआरएस की हिस्सेदारी तकरीबन बराबर ही रही थी। राजनीतिक विश्लेषक रेड्डी कहते हैं कि 2014 और 2018 के चुनाव में केसीआर ने 18 फ़ीसदी दलित, 12 फ़ीसदी आदिवासी और 13 फ़ीसदी मुसलमानों के वोट बैंक से 2014 की बनी सरकार की नीतियों के चलते वोट बैंक में बड़ी हिस्सेदारी हासिल की। अब दो चुनावों के बाद कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को तेलंगाना में सत्ता पाने का वह नुस्खा पता चल गया है, जिसके आधार पर केसीआर राज्य में सत्ता पाते आए हैं। यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी दलित और आदिवासियों की योजनाओं को आगे कर और कांग्रेस दलित, आदिवासी और मुसलमान की योजनाओं के सहारे तेलंगाना की सियासत में बड़ा दांव लगा रही है।
राजनीतिक यह भी कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने तेलंगाना में माडिगा समुदाय को जिस तरीके से सरकार बनने पर उनके हित और हिस्सेदारी की बात की है, वह दलित समुदायों के लिहाज से एक बड़ा दांव माना जा रहा है। तेलंगाना की 119 सीटों में से तकरीबन 28 सीटें ऐसी हैं जो माडिगा समुदाय के प्रभाव में आती हैं। सियासी जानकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद सिर्फ मडिगा समुदाय ही नहीं, बल्कि माला समुदाय को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सियासी तौर पर साधा है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि आरक्षण की लड़ाई लड़ने वाले मडिगा और माला समुदाय के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी तेलंगाना में दलितों की सियासत को आगे कर रही है। लेकिन इसका कितना लाभ बीजेपी को मिलेगा यह देखने की बात होगी। बता दें कि कांग्रेस में भी इसी समुदाय के बहुत से नेता है जिनकी राजनीति काफी अहम है। लेकिन लेकिन बात तय है कि जो चुनावी परिणाम सामने आएंगे उसमे इस समुदाय के प्रभावी भूमिका होंगे।
सियासी जानकारों का कहना है कि तेलंगाना के तकरीबन 6 जिलों में तो 24 फीसदी आबादी दलितों की है। जिसमें नागरकोइलूं, जोनगांव भेपालपल्ली और मंचिर्याल जैसे जिले प्रमुखता से शामिल हैं। इसलिए सभी सियासी दल तेलंगाना में दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए इन जिलों में मजबूती से सियासी दांव पेंच आजमाते हैं। कांग्रेस खड़गे के जरिए इस समुदाय को साधने में लगे हैं। इसी तरह तकरीबन साढ़े तीन करोड़ आबादी वाले तेलंगाना राज्य में 13 फीसदी आबादी मुस्लिम है। सियासी जानकारों का कहना है कि राज्य की 119 विधानसभा सीटों में एक तिहाई से ज्यादा सीटें मुस्लिम प्रभावित हैं। यानी तेलंगाना की करीब 46 सीटों पर मुस्लिम मतदाता हार जीत का फैसला करते हैं। बीआरएस और कांग्रेस इस समुदाय पर फोकस किये हुए है।