अखिलेश अखिल
देश की आंतरिक हालत तो यही है कि लाखों करोड़ की योजनाए देश में चलने के बाद भी गरीबी और बेरोजगारी कुलांचे मार रही है। देश के इस सच को अभी कोई भी सरकार और नेता चुनौती नहीं दे सकता। यह बड़ी चुनौती है। लेकिन सभी सरकारें ेरे विपक्ष भी इस समस्या से दांये -बाएं झांकते रहे हैं। किसी के पास कोई नया मॉडल नहीं है और न ही कोई नीति जो यह कह सके कि देश की जो मौलिक समस्या है उसे ख़त्म किया जा सकता है। क्या मौजूदा देश की सरकार यह दावा कर सकती है कि देश की बड़ी आबादी गरीबी से नहीं जूझ रही है। क्या सरकार यह दावा कर सकती है कि देश की बड़ी आबादी बेकारी से परेशान नहीं है? जब सरकार भी जान रही है तो झूठ बोलने की क्या जरूरत है ?सरकार खुद भी झूठ बोलती है और अपने सारे तंत्र को भी झूठ बोलने के लिए कहती है। ऐसा क्यों ? इसी बीच सरकार कुछ ऐसे फैसले करती रहती है जिनका मौजूदा समय में अभी कोई दरकार नहीं है। कई नीतियां और कानून सरकार बनाती है। जैसे अभी हाल में ही महिला आरक्षण बील सामने आया। क्या अभी इसकी जरूरत थी ?और थी भी तो इसे इतना टूल देने की जरूरत क्यों है ? जो बड़ी समस्या है उस पर सरकार कोई काम क्यों नहीं करती ?संसद क्यों नहीं चलाती ?
सच तो यही है कि जनता को गुमराह करने का सब लखेल चल रहा है। यही खेल विपक्ष भी कर रहा है। सस्ती राजनीति के जरिये सत्ता पर काबिज होने का खेल। अब फिर से एक नयी राजनीति शुरू हो रह है। वह खेल है एक देश एक चुनाव। इससे क्या हो जायेगा ? सरकार कहती है कि इससे देश का धन बचेगा। जो पैस चुनाव पर सैलून भर खर्च होते हैं उस पर लगाम लग सकते हैं। हाँ इस पर कुछ लगाम तो लग सकते हैं लेकिन क्या यह सबसे जरुरी काम है ? जरुरी काम तो यह होता कि देश के सभी सांसद और विधायक ,मंत्री की सभी सुविधाएं बंद कर दी जाती। उन्हें भी कुछ हजार और लाख रूपये के वेतन दिए जाते। इससे भी अरबो रुपये की बचत हो सकती है। क्या यह संभव है ?
देश में एक देश एक चुनाव को लेकर हंगामा मचा हुआ है। अब कहा जा रहा है कि इसको लेकर बैठके चल रही है। सरकार ने जो समिति बनाई है उसकी बैठक भी चल रही है और विधि आयोग की भी बैठक चल रही है। खबर आ रही है कि एक देश एक चुनाव को अगले आम चुनाव यानी 2024 से लागू करना संभव नहीं है। 2029 के लोकसभा चुनाव से इसे लागू किया जा सकता है। सूत्रों ने बताया कि विधि आयोग 2029 को ध्यान में रखकर ही एक फॉर्मूले पर काम कर रहा है। इसके तहत जरूरत के हिसाब से विधानसभाओं के कार्यकाल को बढ़ाया और घटाया जा सकता है।
सरकार पहले ही लोकसभा, विधानसभाओं, पंचायत, पालिका और जिला परिषद के चुनाव एकसाथ कराने की संभावनाएं तलाशने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय समिति गठित कर चुकी है। विधि आयोग भी विशेष रूप से राष्ट्रीय व राज्य विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने पर काम कर रहा है। उसे स्थानीय निकाय चुनाव को भी अपने दायरे में लेने को कहा जा सकता है। एक देश एक चुनाव पर अभी विधि आयोग की रिपोर्ट तैयार नहीं है। कुछ मुद्दों पर पेच फंसा है। बुधवार को आयोग की बैठक के बाद आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ऋतुराज अवस्थी ने कहा था, एक राष्ट्र एक चुनाव की अवधारणा पर चर्चा के दौरान किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाए। लगता है, अंतिम रिपोर्ट भेजने से पहले कुछ और बैठकें करनी होंगी।
विधि आयोग लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनावाें के लिए साझा मतदाता सूची सुनिश्चित करने के तौर-तरीकों पर भी काम कर रहा है। इससे लागत घटेगी और मानव श्रम बचेगा। अभी चुनाव आयोग व विभिन्न राज्य चुनाव आयोगों को इसके लिए अलग-अलग काम करना पड़ता है। आयोग ऐसे तंत्र पर भी काम कर रहा है, जिससे लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ हों, तो मतदाताओं को सिर्फ एक बार ही बूथ पर जाना पड़े।
इससे पहले 21वें विधि आयोग के अध्यक्ष जस्टिस बीएस चौहान ने भी एक देश एक चुनाव को लेकर रिपोर्ट तैयार की थी। उस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि एक देश एक चुनाव लागू करने से पहले संवैधानिक और व्यावहारिक तैयारियां कर ली जाएं। कई राजनीतिक दलों से भी इस बाबत बात की गई थी। आयोग ने यह भी कहा था, मौजूदा संवैधानिक ढांचे में एक देश एक चुनाव को लागू नहीं किया जा सकता है। आयोग ने इसके लिए जरूरी बदलाव का सुझाव दिया था।
विधि आयोग अब लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव एक साल में दो चरणों में कराने का सुझाव दे सकता है। पहले चरण में लोकसभा व विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। दूसरे में निकाय और पंचायती राज चुनाव कराए जा सकते हैं। सूत्रों ने कहा, यह देश में विभिन्न जलवायु परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक नजरिया है। अब आप ही बताये कि यह सब जो हो रहा है अभी ही क्यों हो रहा है ? कह सकते हैं कि यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि अभी देश की राजनीति और सरकार के पास कोई काम नहीं है। सभी चुनावी खेल में जुटे हुए हैं। अभी यह एक देश एक चुनाव का पीरियड चल रहा है फिर दो महीने बाद अयोध्या के मंदिर का खेल शरू हो जाएगा। लेकिन जनता की जो samas या है उस पर न तो साकार का ध्यान है और न ही विपक्ष का। राजनीतिक यह खेल भ्रम पैदा कर रहा है।